गीता दर्शन-ग्रंथ है। इसका प्रारम्भ विषाद से होता है और समापन प्रसाद से। विषाद पहले अध्याय में है और प्रसाद अंतिम में। प्रश्न उठता है कि यह विषाद क्या है? युद्ध के प्रारम्भ में ही अर्जुन के सामने कठिनाई आती है। उसके अपने घर के लोग ही युद्ध के लिए तत्पर सामने खड़े हैं। सगे सम्बंधी हैं। वह तय नहीं कर पाता कि क्या सगे सम्बंधियों को मार कर युद्ध में जीतकर राज्य लिया जाना चाहिए। अर्जुन इसी विषाद से ग्रस्त है। वह अपनी मनोदशा बताता है कि मेरा पूरा शरीर कांप रहा है। मेरा मुँह सूख रहा है। हे कृष्ण! मैं युद्ध नहीं करूँगा।’ यहाँ अर्जुन निश्चयात्मक हो गया है। पहले बाएं या दाएं जाने की बात थी। वह अब युद्ध न करने का निर्णय कर चुका है। कभी-कभी हम सबके जीवन में जीवन संचालन के लिए आधारभूत सत्य भी अस्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। समझ में नहीं आता कि क्या किया जाए। ऐसी घड़ी के लिए हमारे राष्ट्रजीवन में वैदिक काल से ही प्रश्नों की परंपरा रही है।
दुनिया की किसी भी सभ्यता में भारत जैसी प्रश्नाकुल बेचैनी नहीं मिलती। गीता भी अर्जुन के प्रश्नाकुल चित्त का उत्तर है। रामचरितमानस में जहां कागभुशुण्डि और गरुण के बीच प्रश्नोत्तर है, वहीं महाभारत में यक्ष और युधिष्ठिर के बीच प्रश्नोत्तर है। भारत की मनीषा जिज्ञासा और प्रश्नों से भरी-पूरी रही है। ऋग्वेद के पहले मण्डल में ही एक सुन्दर सा मंत्र आता है, जहां ऋषि कहता हैं- पृक्षामि त्वाम भुवनस्य नाभि- हे देवताओं! ब्रह्माण्ड बहुत बड़ा है। मैं सभी भुवनों का केन्द्र जानना चाहता हूँ। हमारे पूर्वज ऋषि ब्रह्माण्ड का केन्द्र जानने की जिज्ञासा में थे। उत्तर वैदिक काल में तमाम उपनिषद साहित्य रचे गये। कठोपनिषद की अनेक बातें गीता में अपने मूल स्वरूप में दिखाई पड़ती हैं। जैसे ‘कोई व्यक्ति ये समझता है कि हम किसी को मारते हैं या वह सोचता है कि हमको कोई मारता है। हे अर्जुन! ये दोनों सत्य नहीं जानते।’ यह बात कठोपनिषद में भी यम और नचिकेता के संवाद में है। कोई कह सकता है कि क्या यहां कोई नई बात नहीं लिखी जा सकती थी? असल मे भारतीय परंपरा व चिंतन में एक निरन्तरता है। जो बात ऋग्वेद के ऋषि कहते हैं, वही बात काल के क्रम में श्रीकृष्ण दोहराते हैं। दोहराव का मूल भिन्न नहीं होता। दुनिया के अन्य देशों में ऐसी सांस्कृतिक निरंतरता नहीं दिखाई पड़ती। वैदिक काल व तत्कालीन गीता दर्शन के रचनाकाल में फासला है। गीता के कालखंड में तमाम तरह की परिस्थितियां बदल चुकी थीं। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में एक विराट पुरुष की कल्पना की गई है। बताया गया है कि वह सहस्रशीर्षा है। हजारों सिर वाला, हजारों पैरों वाला है। उसके भीतर पूरा ब्रह्माण्ड है। ऋग्वेद के बहुत समय बाद, हजार-डेढ़ हजार साल बाद एक बार फिर गीता में विश्वरूप दिखाई पड़ता है। विराट पुरुष से विश्व रूप की तुलना कीजिये। ऋग्वेद में जगत, ब्रह्माण्ड, सूर्य, चंद्र, धरती, आकाश, प्रीति, प्यार सब एक जगह पर हैं। पुरुष की तरह ही गीता का विश्वरूप है। गीता में दोनों का मेल दिखाई पड़ेगा। क्यों दिखाई पड़ेगा? क्योंकि सत्य एक है, विद्वान उसे अपने-अपने ढंग से कहते हैं- एकम् सद् विप्राः बहुधा वदन्ति। बात वही है। पहले से चली आ रही परंपरा में है।
एक शब्द है अध्यात्म। बहुत सारे मित्र हमें आध्यात्मिक कहते हैं। फिर स्वयं के लिए कहते हैं कि मैं भी आध्यात्मिक हूँ। मैंने पूछा कि आध्यात्मिक माने क्या? आप हमको भी आध्यात्मिक बनाए दे रहे हो और स्वयं को भी। इसका अर्थ क्या है? सरल चित्त वाले मित्रों ने कहा, ‘रामायण पढ़ लेना, महाभारत पढ़ लेना, होली मनाना, दिवाली मनाना, कर्मकांड करना, कुछ व्रतादि करना अध्यात्म है। हम लोग शांत चित्त से आपस में विचार कर सकते हैं। इस प्रश्न का सीधा उत्तर नहीं मिलता। मेरे पास भी नहीं है, लेकिन गीता में है। गीता में अर्जुन कृष्ण से सीधा प्रश्न करते हैं- किम अध्यात्मं? हे कृष्ण! अध्यात्म क्या है? सीधा प्रश्न है। कृष्ण का उत्तर भी सीधा है। जैसे तीन शब्दों का प्रश्न सीधा, वैसे ही तीन शब्दों का उत्तर भी सीधा, ‘स्वभावो अध्यात्म उच्चयते।’ स्वभाव ही अध्यात्म कहा जाता है। अब स्वभाव का थोड़ा विवेचन कर लें। अगर मैं गुस्सा हो जाऊं। माइक फेंक दूँ तो अखबार के लिए मजेदार खबर बनती है। मेरे मित्र मुझको बचाने के लिए कहेंगे कि यार, उनका स्वभाव ही ऐसा है। क्या किया जाए। यहाँ स्वभाव का अर्थ निकलता है हमारे व्यक्तित्व के परिधि की हलचल। परिधि शब्द गणित विज्ञान का है। व्यक्तित्व की परिधि में जो कुछ घटता है, उसको हम स्वभाव मान लेते हैं। इस स्वभाव का अभिप्राय मूल स्वभाव से नहीं है। स्व हमारा अंतर्तम भाग है। भीतर का अपना भाव। यही अध्यात्म है। वह हमारे भीतर खिलता है। भीतर पकता है, भीतर उगता है, भीतर कली बनता है। भीतर फूल बनता है, भीतर रस बनता है, भीतर सोम बनता है, साम बनता है, छंद बनता है।
अर्थात स्वभाव भीतर है। बाहर के कर्मों को स्वभाव कहना गलत है। वह मूल स्वभाव नहीं है। वह परिधि पर किया गया हमारा कर्म है। स्व महत्वपूर्ण है। स्व शब्द से एक सुन्दर शब्द बना स्वार्थी। बड़ा प्यारा शब्द है। इसका उपयोग है जीवन में, लेकिन यह शब्द बड़ा निन्दित हो गया है कि आदमी बड़ा स्वार्थी है। स्वार्थी माने जो स्व के लिए काम करता है, स्व भीतर का भाग है। स्वार्थी विद्यार्थी ठीक से अध्ययन करता है, ठीक से पढ़ता है, स्वार्थी अध्यापक ठीक से पढ़ाता है। इसी स्व से बनता है स्वस्थ। अपने में होना स्वस्थ होना है। गीता का स्वभाव अध्यात्म है। स्वभाव आपका हमारा मूल है। उसकी तरफ ध्यान करना शुभ है, उसकी गतिविधि का अध्ययन अध्यात्म है, गीता में योग की महत्ता है। इसमें कर्मयोग है। ज्ञान योग है, भक्ति योग है। श्रीकृष्ण ने अध्यात्म की तरह योग की परिभाषा भी की है- दुख संयोग से वियोग ही योग है। गीता कर्मयोग का सुन्दर प्रबोधन है। यह दार्शनिक है। शास्त्रीय है। भौतिक भी है और अध्यात्मिक भी।
-हृदय नारायण दीक्षित
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