गांधीजी ने एक बार कहा था कि गोरक्षा का प्रश्न स्वराज्य से भी कठिन है। आज देश को आजाद हुए पचहत्तर साल हो गए हैं। लोकतंत्र कायम होने के बाद लगभग सभी प्रकार की विचारधाराओं ने शासन का संचालन किया है। गोरक्षा के प्रश्न को राजनीतिक दलों ने अपने घोषणा पत्रों में भी स्थान दिया। संसद में इस बारे में अनेक विधेयक प्रस्तुत किए गए। इन पर मतदान भी हुआ। इसके बावजूद संपूर्ण गोवंश हत्याबंदी का केंद्रीय कानून बनने का स्वप्न आजतक पूरा नहीं हो पाया है। गोरक्षा जैसा वैज्ञानिक और आध्यात्मिक प्रश्न राजनीति के भंवर में घिर गया है। आज स्थिति यह है कि गोरक्षा का प्रश्न हाशिये पर चला गया है। पूरी कृषि संस्कृति बाजार के हवाले हो गयी है। सरकार की नीतियों, बाजार की ताकत और सामाजिक उपेक्षा ने संपूर्ण गोवंश को कृषि से बेदखल कर दिया है। गोरक्षा के फलस्वरूप भारत में कृषि, ग्रामोद्योग, व्यापार, संचार एवं परिवहन, भाषा, कला, साहित्य, संस्कृति, रहन-सहन तथा खान-पान का विकास हुआ। भारत में गोरक्षा के कारण ही मांसाहार से मुक्ति मिली और अहिंसक जीवन को नया आयाम मिला। यहां की पूरी कृषि सभ्यता का विकास गोवंश पर आधारित रहा है। गोवंश, गांवों की सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक योजना के केंद्र में रहा है। देश की भिन्न जलवायु के अनुसार गाय की अनेक नस्लों का संवर्द्धन हुआ। प्राचीन साहित्य में गाय की महिमा का अनेक प्रकार से गान किया गया है, यहां तक कि गाय को विश्व की माता निरूपित किया गया। गोरक्षा के लिए अनेक प्रकार के बलिदान दिए गए।
भारत में गोहत्या
अंग्रेजी राज में अंग्रेज सैनिकों को गोमांस की पूर्ति के लिए सेना की छावनियों के आसपास गोहत्या शुरू हुई। इसके लिए योजनापूर्वक मुसलमान कसाइयों को काम पर लगाया गया। इससे अंग्रेजों को हिंदू-मुसलमानों के बीच भेद पैदा करने का अवसर मिल गया। ऐसे भेद पैदा करने के बावजूद 1857 के सैनिक विद्रोह में हिंदू-मुसलमान दोनों ने मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध आजादी की लड़ाई लड़ी थी। इसके बाद सारे भारत में गोरक्षा को लेकर आंदोलन चलने लगे। गोरक्षा को लेकर चलने वाले ये आंदोलन मूलतः अंग्रेजी राज के विरुद्ध थे। किंतु अंग्रेजों ने अपनी कूटनीति से इस प्रश्न को हिंदू-मुसलमानों के बीच विवाद का प्रश्न बना दिया, जबकि वास्तव में वह ऐसा था नहीं।
आजादी के आंदोलन में गोरक्षा के प्रश्न पर बहुत गहराई से चिंतन हुआ। देश में गोहत्याबंदी करने के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने लाखों लोगों के हस्ताक्षर का पत्र महारानी विक्टोरिया तक पहुंचाया। लोकमान्य तिलक ने कहा कि स्वराज्य प्राप्त होते ही बिना कलम बदले गोहत्याबंदी कर दी जाएगी। जब महात्मा गांधी इंग्लैंड से पढ़ाई पूरी करके भारत वापस आए, तब तक गोहत्या हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य का संवेदनशील मुद्दा बन चुका था। इससे देश आज भी जूझ रहा है। महात्मा गांधी गोरक्षा भी अहिंसा से ही करना चाहते थे। उन्होंने 1925 में अखिल भारत गोरक्षा मंडल बनाया। उसका विधान उन्होंने स्वयं लिखा। इसका अनुमोदन पंडित मदनमोहन मालवीय ने किया। किन्हीं कारणों से यह संगठन आगे नहीं चला, तो इसका विसर्जन कर दिया गया। 1941 में जमनालाल बजाज की अध्यक्षता में गोसेवा संघ कायम किया गया। तब आयोजित गोसेवा सम्मेलन का उद्घाटन गांधीजी ने किया। इसकी अध्यक्षता विनोबा ने की। गोसेवा संघ ने वर्धा जिले में उल्लेखनीय कार्य किया। यहां गौलव नस्ल का सुधार हुआ। गोसेवा संघ ने वर्धा में गाय के दूध का प्रसार और प्रचार किया। गोपुरी में मृत चर्म उद्योग का विकास हुआ।
आजादी के बाद गोरक्षा
देश के आजाद होने के बाद परिस्थिति में गुणात्मक परिवर्तन हुआ। देशी राज्यों का भारत संघ में विलय हो गया। सभी ने मिलकर संविधान बनाया। संविधान बनाने वालों में मौलाना आजाद, शेख अब्दुल्ला, रफी अहमद किदवई, अब्दुल बारी जैसे इस्लाम के जानकार लोग थे। उन्होंने सर्वसम्मति से संविधान की धारा 48 में गोहत्याबंदी को राज्यों के नीति निर्देशक तत्व में मान्य किया। इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि भारत की राष्ट्रीय आय में गोवंश का योगदान अतुलनीय है। देश के दुग्ध उत्पादन में गोदुग्ध का योगदान सर्वाधिक है। गोबर से जितनी खाद और जलावन मिलती है, वह करोड़ों टन कोयले और पेट्रोल के बराबर है। इसकी तुलना में गोधन के प्रति हमारा व्यवहार आपराधिक उपेक्षा का है।
आजादी के बाद देश में 1951 से 1966-67 तक गोहत्याबंदी को सांप्रदायिक और राजनीतिक प्रश्न बना दिया गया। देश में कुछ लोग गोहत्याबंदी से तो सहमत थे, परंतु वे किसी राजनीतिक दल से नहीं जुड़ना चाहते थे। समाजवादी, साम्यवादी दल भी गोहत्याबंदी को दकियानूसी, प्रतिक्रियावादी कार्यक्रम समझने लगे और कांग्रेस भी इस दिशा में पहल नहीं कर सकी।
कानून की बाध्यता नहीं
संविधान निर्माताओं ने गोरक्षा को नीति निर्देशक तत्व में रखा, लेकिन राज्यों को इस संबंध में कानून बनाने की बाध्यता नहीं है। राज्यों को कानून बनाने के लिए न्यायालय द्वारा बाध्य भी नहीं किया जा सकता है। इस कारण देश के सभी राज्यों में गोहत्याबंदी कानून नहीं बने। इसके फलस्वरूप विभिन्न राजनीतिक दलों और उनके अनुषांगिक संगठनों ने गोरक्षा के प्रश्न को राजनीतिक और सांप्रदायिक बना दिया। रामराज्य परिषद, हिंदू महासभा, मुस्लिम लीग आदि राजनीतिक दलों के रूप में खड़े हो गए। भारतीय जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी ने भी गोहत्याबंदी को घोषणा पत्र में स्थान दिया। इस प्रकार गोहत्याबंदी जैसा देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा राजनीति का शिकार बन गया।
गोहत्याबंदी और विनोबा की भूमिका
आजादी के बाद देश में रचनात्मक कार्यकर्ताओं की भूमिका नगण्य हो चली थी। देश की राजनीति पर उनका प्रभाव न के बराबर था। विनोबाजी ने 1951 से 1975 तक अथक प्रयत्न करते हुए सर्वोदय समाज और रचनात्मक कार्य को मजबूती प्रदान की। भूदान-ग्रामदान आंदोलन ने देश में एक नयी हवा का निर्माण किया। जब सर्वोदय समाज राजनीति निरपेक्ष समूह के रूप में स्थापित हुआ, तब विनोबाजी ने 1976 में गोहत्याबंदी का प्रश्न उठाया और इसके लिए आमरण उपवास की घोषणा की। इस उपवास की यही मांग थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की धारा 48 की जो व्याख्या की है, उसके अनुसार सारे देश में कानूनन गोवंश का कत्ल पूरी तरह बंद हो।
उपवास का परिणाम
आमरण अनशन की घोषणा का परिणाम यह हुआ कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पहल की और केरल तथा बंगाल को छोड़कर सभी राज्यों में गोहत्याबंदी कानून बना दिए गए। तब भारत सरकार ने यह वचन दिया था कि इन दो राज्यों में एक साल बाद कानून बना दिए जाएंगे। जब एक साल बाद भी कानून नहीं बना, तब विनोबाजी ने अपना आमरण उपवास शुरू किया। उपवास के पांचवे दिन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने संसद में यह घोषणा की कि ‘संविधान संशोधन करके इस विषय को समवर्ती सूची में ले लिया जाएगा और देश भर के लिए गोहत्याबंदी का केंद्रीय कानून बना दिया जाएगा।’ संसद में प्रधानमंत्री द्वारा गए इस आश्वासन पर विनोबाजी ने अपना अनशन समाप्त किया। इसके बाद मोरारजी देसाई की सरकार गिर जाने से संविधान संशोधन नहीं हो सका। बाद की सरकारों ने प्रधानमंत्री के वादे को नहीं निभाया।
गोरक्षा सत्याग्रह
सरकार द्वारा वचन भंग करने पर विनोबाजी के सामने सत्याग्रह करने के सिवा कोई विकल्प शेष नहीं बचा। अंततः विनोबाजी ने 11 जनवरी 1982 को मुंबई के देवनार कत्लखाने के सामने अराजनैतिक, असांप्रदायिक और अहिंसक सत्याग्रह करने का आदेश अपने साथियों को दिया। सत्याग्रहियों को दिए अपने आदेश में विनोबाजी ने लिखा, ‘कृषि प्रधान भारत में किसी भी उम्र के गाय-बैल का क़त्ल बंद होना चाहिए, इसके लिए देवनार में सत्याग्रह करो। इसका प्रारंभ शांति सेना करे।’ विनोबा जी ने मांस निर्यात बंद करने की मांग भी सत्याग्रह की मांग के रूप में रखी।
सबसे लंबा सत्याग्रह
आजाद भारत में गोरक्षा के प्रश्न को लेकर लगातार 33 साल तक चलने वाला यह सबसे लंबा सत्याग्रह है। जब महाराष्ट्र सरकार ने 2015 में पशु रक्षा अधिनियम बनाकर देवनार कत्लखाने में बैलों के कत्ल पर प्रतिबंध लगा दिया, तब सर्वानुमति से सत्याग्रह को विराम दिया गया। इन 33 वर्षों में ‘गोरक्षा और सत्याग्रह’ दोनों पर अत्यंत गहराई से विचार हुआ। इसके निम्नलिखित निष्कर्ष निकलकर सामने आए-
1- गोरक्षा एक वैज्ञानिक विचार है। गोरक्षा समस्त मानव जाति के लिए है।
2- गोरक्षा अहिंसक जीवन पद्धति का आधार है। सत्य और अहिंसा पर आधारित ग्राम स्वराज्य की स्थापना गोरक्षा से ही संभव है।
3- संतुलित, प्रदूषण रहित खेती, खादी ग्रामोद्योग, ग्राम स्वावलंबन आदि सारा रचनात्मक कार्यक्रम गोरक्षा के बिना असंभव है।
4- देश में गाय-बैलों का कत्ल जारी रहने से हमारी आजादी खतरे में पड़ी है। जब तक मांस निर्यात और चमड़े के लिए गाय-बैलों का कत्ल जारी रहेगा, तब तक किसानों को सस्ते बैल नहीं मिलेंगे, दूध के लिए सस्ती गायें नहीं मिलेंगी, ग्रामोद्योग नहीं चलेंगे, खेती के लिए जैविक खाद नहीं मिलेगी, ग्रामीण चर्मकारों को चमड़ा नहीं मिलेगा, अर्थात गोसेवा, गोपालन, गोरक्षा आदि कुछ भी नहीं हो सकेगा, इसलिए सबसे पहले गोहत्या बंद होनी चाहिए।
5- सत्याग्रह का स्वरूप असांप्रदायिक ही हो सकता है। एक संप्रदाय वाले दूसरे संप्रदाय पर अपनी मान्यताएं थोपने के लिए सत्याग्रह का अवलंब नहीं ले सकते। चूंकि गोरक्षा का प्रश्न एक लम्बे अर्से तक राजनीतिक व सांप्रदायिक प्रश्न रहा है, इसलिए कुछ लोगों में यह भ्रम है कि गोरक्षा सत्याग्रह का उद्देश्य भी सांप्रदायिक है, लेकिन देवनार गोरक्षा सत्याग्रह ने 33 वर्षों में इस प्रश्न को शुद्ध संवैधानिक, आर्थिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक आधार प्रदान किया।
6- सत्याग्रह का आधार अहिंसा है, इसलिए सत्याग्रह का स्वरूप अहिंसक ही हो सकता है।
विनोबा ने सत्याग्रह की परिभाषा देते हुए कहा था, ‘‘सत्याग्रह सही चिंतन करने के लिए अहिंसक सहयोग है। वस्तुतः समाज की समस्याओं का मूलभूत कारण गलत चिंतन है। गलत चिंतन से गलत योजनाएं निकलती हैं और उसके गलत परिणाम आते हैं। उद्देश्य सही होते हुए भी चिंतन गलत होने से अपेक्षित परिणाम नहीं आते।
गोहत्याबंदी का कानूनी पहलू
सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय संविधान पीठ ने 2005 में अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में 1994 में गुजरात सरकार द्वारा गाय, बैल और सांड़ के कत्ल पर लगाये गये प्रतिबंध को 6:1 के बहुमत से वैध घोषित किया। इस निर्णय के परिप्रेक्ष्य में राज्य सरकारें संपूर्ण गोवंश के कत्ल पर कानूनी प्रतिबंध लगा सकेंगी। इसके पूर्व 1959 में हनीफ कुरैशी बनाम बिहार सरकार के मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय ने गाय के कत्ल पर लगाये गये प्रतिबंध को तो संविधानसम्मत माना था, किंतु अनुपयोगी बैल और सांड़ के कत्ल पर लगाये गये प्रतिबंध को असंवैधानिक घोषित किया था। उक्त निर्णय के परिप्रेक्ष्य में बिहार सरकार ने अपने कानून में 25 साल की आयु तक के बैलों को उपयोगी मानते हुए उनके कत्ल पर प्रतिबंध लगाया, किंतु 1961 में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे नहीं माना और 15 साल की आयु मर्यादा तय की।
1969 में मध्यप्रदेश में नगर पालिकाओं द्वारा अपनी सीमा में बैलों तथा सांड़ों का कत्ल प्रतिबंधित करने के अधिकार को कसाइयों ने चुनौती दी। सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी अपील स्वीकार कर नगर पालिका द्वारा लगाये गये ऐसे प्रतिबंध को निरस्त कर दिया।
गुजरात सरकार ने यह दलील दी कि 15 साल की मर्यादा का पालन नहीं होता। इसके बहाने जवान बछड़े-बछड़ियां कत्ल किए जाते हैं। जैन संगठनों ने संपूर्ण गोवंश का कत्ल बंद करने की अनिवार्यता सिद्ध की। गुजरात सरकार ने अपनी अपील में दावा किया कि संपूर्ण गोवंश के कत्ल पर प्रतिबंध लगाते समय संविधान की धारा 31- सी तथा मौलिक नागरिक कर्तव्य की धारा 51 ए (जी) को ध्यान में रखा गया है, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि प्राणियों के प्रति करुणा रखना हर नागरिक का कर्तव्य है।
गुजरात सरकार ने अपनी अपील में कहा कि संपूर्ण गोवंश का कत्ल बंद करने का कानून सार्वजनिक हित में है तथा संविधान की धारा 31- सी में वर्णित मौलिक अधिकारों पर संविधान के नीति निर्देशक तत्वों के परिपालन में कानून बनाए जाने पर अंकुश लगाया जा सकता है।
सेक्स सॉर्टेड सीमन टेक्नालॉजी और गोरक्षा
आज गोवंश को उसकी समग्रता में स्वीकार न करते हुए सिर्फ गाय को बाजार की दृष्टि से देखा जा रहा है। केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय गोकुल मिशन के तहत सेक्स सॉर्टेड सीमन प्रयोगशाला के लिए उत्तराखंड राज्य के प्रस्ताव को मंजूरी दी। अप्रैल 2019 से सेक्स सार्टेड सीमन का उत्पादन भी प्रांरभ हो गया है। सरकार का मत है कि देश में सिर्फ 5 प्रतिशत खेती बैल आधारित है। शेष 95 प्रतिशत खेती का यंत्रीकरण हो चुका है। इसलिए देश में अब नंदी अथवा सांड़ की जरूरत नहीं है। सरकार का एक तर्क यह भी है कि सांड़ आवारा होकर किसानों की फसलों को बर्बाद कर रहे हैं, इसलिए उनकी पैदाइश पर रोक लगाने की आवश्यकता है। दूसरी ओर देश की अधिसंख्य जनता शाकाहारी है। उन्हें पोषण के रूप में दूध नहीं मिलता है। अतः देश में दूध का उत्पादन बढ़ाने की आवश्यकता है। इस विचार को अमली जामा पहनाने के लिए सरकार ने अमेरिका के साथ समझौता किया है, जिसके तहत कृत्रिम गर्भाधान पद्धति का उपयोग करते हुए सेक्स सार्टेड सीमन टेक्नालॉजी (लिंग वर्गीकृत वीर्य तकनीक) से सिर्फ गाय ही पैदा होगी, नंदी पैदा नहीं होगा। इस बारे में सरकार का तर्क है कि वर्तमान में देश में 18 करोड़ टन दूध का उत्पादन होता है, इसे बढ़ाकर छत्तीस करोड़ टन तक पहुंचाना है। इस लक्ष्य को गायों की नस्ल बदलकर ही हासिल किया जा सकता है। सरकार का कहना है कि हमें जब नंदी की आवश्यकता होगी, तब उसे पैदा कर लिया जाएगा। कृत्रिम गर्भाधान और सेक्स सार्टेड सीमन टेक्नालॉजी का उपयोग करने के लिए देश में अनेक स्थानों पर सीमेन स्टेशन बनाए गए हैं। सेक्स सार्टेड सीमन टेक्नालॉजी के पक्ष में यह तर्क प्रचारित किया गया है कि केवल मादा बछिया होने से नर बछड़ों पर होने वाला खर्च बच जाएगा। ज्यादा बछिया होने से डेयरी के लिए बाजार से गायें नहीं खरीदनी पड़ेंगी, वहीं अतिरिक्त बछिया को बेचकर मुनाफा भी कमाया जा सकेगा। केवल बछिया पैदा होने से पशुओं की नस्ल में सुधार आएगा। उच्च गुणवत्ता की गाय से उसके जीवनकाल में अधिक बछिया प्राप्त होने से गुणवत्ता का अधिकतम उपयोग किया जा सकेगा। सरकार का एक तर्क यह भी है कि अवांछित नर हमेशा पशु पालन की लागत बढ़ाते हैं, जो किसानों को पशुपालन छोड़ने के लिए प्रेरित करता है।
भारत सरकार की यह योजना पूरी तरह भारतीय संस्कृति और सभ्यता के खिलाफ है। पश्चिमी संस्कृति में गोपालन दूध और मांस की दृष्टि से किया जाता है, जबकि भारत में दूध बाय प्रोडक्ट (उप उत्पाद) रहा है। गाय से मिलने वाला बैल मुख्य है, इसलिए भारतीय संस्कृति में गोवंश का आध्यात्मिक महत्व है। संविधान में इसे मनुष्य परिवार में शामिल किया गया है।
कृत्रिम गर्भाधान आज के जीवन की शोकांतिका
गोहत्याबंदी के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने वाले संत विनोबा ने कृत्रिम गर्भाधान को आज के जीवन की शोकांतिका निरूपित किया। विनोबा कहते हैं, ‘‘हिंदुस्तान में जो गोवंश है, उसे सुधारना होगा और अधिक दूध की योजना करनी होगी। बाहर से मजबूत सांड़ लाकर, उन्हें संकर कर मजबूत बैल और ज्यादा दूध देने वाली गायें पैदा करने के विचार से मैं सहमत हूं, अगर उसकी मर्यादा ध्यान में रखें तो. लेकिन उत्तम सांड़ का वीर्य लाकर गाय में इंजेक्ट करें, इस तरह से एक सांड़ के वीर्य का सैकड़ों गायों को लाभ होगा, मजबूत बैल भी पैदा होंगे और दूध भी ज्यादा होगा, इसके मैं खिलाफ हूं। नर और मादा का जो संयोग होता है, उसमें प्रेम होता है। इसलिए उससे जो संतति निर्माण होती है, उसको बचपन से प्रेम मिलता है। क्योंकि संगम में प्रेम होता है। जिस गाय के दूध में प्रेम का अनुभव आया ही नहीं, उस गाय का दूध पीकर आपको क्या लाभ होने वाला है? गाय के बारे में लोग कहते हैं कि वह तो पशु है। वह पशु नहीं है, वह गोमाता है। गोमाता की उपासना वेदों के जमाने से चली आयी है। इसलिए दूध बढ़ाने के लिए इस तरह के प्रयोग किए जायेंगे, तो वह आध्यात्मिक दृष्टि से उचित नहीं है। उस प्रक्रिया से जो दूध पैदा होगा, उसकी आध्यात्मिक कीमत नहीं रहेगी। इन गायों का दूध पीने से न ताकत आयेगी, न आध्यात्मिकता।
आज दूध बढ़ाने के लिए सेक्स सार्टेड सीमन टेक्नालॉजी से गायों की संख्या में वृद्धि की जा रही है। कल को जब यही गायें दूध देना बंद करेंगी, तब इनके कत्ल की योजना बनाना पड़ेगी। पश्चिम के देशों में भारतीय पशुओं के मांस की मांग बहुत अधिक है, क्योंकि यहां के पशुओं को प्राकृतिक आहार दिया जाता है। इसलिए इन्हें जैविक मांस के अंतर्गत रखा जाता है। वर्तमान में भारत मांस निर्यात में दुनिया में दूसरे नंबर पर है। जिस योजना को किसानों के हित में बताया जा रहा है, अंततः उसके परिणाम दुखदायी होंगे। जिस प्रकार तकनीक और स्वार्थ ने मनुष्य समाज में स्त्री-पुरुष लिंगानुपात को गड़बड़ा दिया है, उसी प्रकार पशु समाज में भी परिणाम दिखायी देंगे।
कहने का आशय यह है कि ग्रामस्वराज्य के विचार को दृष्टि में रखते हुए गोवंश को लेकर समग्र योजना बनाने की आवश्यकता है। गांव को स्वतंत्र इकाई मानते हुए सामूहिक पशुपालन से गांव और किसान दोनों समृद्ध होंगे। आज के जमाने में व्यक्तिगत गोपालन असंभव हो गया है। बैलों की रक्षा के बिना गोरक्षा नहीं हो सकती। विनोबा के शब्दों में कहें तो भारतीय सभ्यता की यह मांग है कि हिंदुस्तान में गोरक्षा होनी ही चाहिए। अगर हिंदुस्तान में हम गोरक्षा नहीं कर सके, तो आजादी के कोई मानी ही नहीं होते। अगर गोरक्षा नहीं होती है, तो हमने अपनी आजादी खो दी और उसकी सुगंध गंवा दी, यह मानना होगा।
-डॉ.पुष्पेंद्र दुबे
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