Editorial

तुषार बाबू समझा करो

जो आदमी सरकार में होता है, उसे न गांधी पसंद होता और न सत्याग्रह। गांधी, हिन्द स्वराज और सत्याग्रह को ज़िंदा रखना है, तो ख़ुद ही गांधी के रास्ते पर चलकर आम जानता को जगाना और संगठित करना होता है।

ये तुषार गांधी भी अजीब आदमी हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चम्पारण सत्याग्रह की विरासत संजोने की याद दिलाने की हिमाक़त कर रहे हैं, जो एक तरह से गांधी की विरासत की उपेक्षा का आरोप है। तुषार का कहना है कि पाँच साल पहले नीतीश ने ज़िले का नाम बदलकर ‘चम्पारण सत्याग्रह” करने का वादा किया था, जिस पर अभी तक अमल नहीं हुआ। तुषार गांधी को शायद इस बात का एहसास नहीं है कि दूसरे राजनीतिक नेताओं की तरह नीतीश बाबू का मक़सद भी अपनी छवि चमकाना और सत्ता में बने रहना है। इसीलिए चंपारण शताब्दी समारोह के लिए गांधी को मानने वालों और उनके परिवार वालों को राष्ट्रीय विमर्श के लिए बटोरा था। कहा था कि पूरा बिहार अब ‘गांधीमय’ हो जाएगा। जब वादा किया था, तब वह कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के साथ सरकार चला रहे थे।

उस समय गांधीजनों के सहारे नीतीश अपने को राष्ट्रीय विकल्प के लिए प्रोजेक्ट करवा रहे थे। पर पता नहीं दिल्ली वालों ने उनकी कौन-सी कमजोर नस दबायी, नीतीश बाबू पलटी मारकर भाजपा की गोद में बैठ गये। भाजपा और संघ परिवार तो गांधी की विरासत को मिटाने पर तुले ही हैं, इसलिए न केवल चंपारण ज़िले के नाम में सत्याग्रह नहीं जुड़ा, बल्कि सुशासन बाबू के राज में उसी चंपारण में बापू की प्रतिमाएं तक तोड़ी गयीं।

कहते हैं कि भाजपा ने नीतीश को दिल्ली में उप राष्ट्रपति नहीं बनाया और जब 2024 के लिए मोदी के विकल्प की तलाश हो रही है, तो नीतीश बाबू को लालू का परिवार फिर से अच्छा लगने लगा है। शायद तुषार बाबू को यह नहीं पता कि राजनीति में शिखर पर बने रहने के लिए सिद्धांतों और विचारों के बजाय, दूसरी बातों का ध्यान रखना पड़ता है।

क्या है चंपारण सत्याग्रह की विरासत?
वास्तव में चंपारण सत्याग्रह का प्रयोग केवल बिहार नहीं, पूरी दुनिया के लिए एक रोशनी और आशा की किरण है। गांधी ने वहां एक तीर से कई शिकार किये। गांधी ने कांग्रेस को आम जनता को संगठित करने तथा अन्याय के शांतिमय और कारगर प्रतिकार का हथियार दिया। उन्होंने अहिंसा और सविनय अवज्ञा को एक कारगर हथियार साबित किया, जो सावरकर को नहीं पसंद था। सावरकर जैसे लोगों को समझाने के लिए ही उन्होंने हिन्द स्वराज लिखी।

ग़ुलामी के दौर में भी गांधी ब्रिटिश संसद को यह समझा सके कि संप्रभुता राजा में नहीं, प्रजा में होती है और जनता से सरोकार रखने वाले किसी विषय पर क़ानून बनाने से पहले शासकों को जनता की संसद में व्यापक बहस चलानी होती है। गांधी ने ऐसा किया, तभी चंपारण में शांतिपूर्ण सत्याग्रह के बल पर नील की खेती ज़बरदस्ती कराने का क़ानून रद्द हुआ और नया क़ानून बना। पर यह इतना आसानी से नहीं हुआ। उसके लिए गांधी को ग़लत क़ानून तोड़कर गिरफ्तार होना पड़ा और गांव-गांव जनसाधारण को संगठित बग़ावत के लिए तैयार करना पड़ा। एक छोटे से ज़िले में सत्याग्रह के इस अमोघ अस्त्र से इतनी अधिक ऊर्जा निकली कि पूरे भारत में ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिल गयी।

महत्वपूर्ण यह भी है कि राजकुमार शुक्ला बिहार के दिग्गज वकीलों और नेताओं को छोड़कर गांधी को ही चंपारण बुलाने के लिए लखनऊ क्यों गये थे। इसके पीछे गांधी का दक्षिण अफ़्रीका में रंग भेद के खिलाफ सफल अभियान चलाने का अनुभव था कि यह आदमी जिस काम को हाथ में लेता है, उसको पूरा करके ही दम लेता है। बीच में नहीं छोड़ देता, चाहे जान पर भी ख़तरा ही क्यों न बन पड़े. आज की तरह नहीं कि तूफ़ानी दौरे करके और प्रेस को बयान देकर भूल गये।

गांधी ने चंपारण के किसानों के हालात की जांच पड़ताल करके जितनी व्यापक और प्रामाणिक रिपोर्ट तैयार की, वह अपने आप में राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए एक मिसाल है। गांधी ने चंपारण के संघर्ष को जिस तरह संगठित और संचालित किया, वह अद्भुत है और आज भी सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए मार्ग दर्शन का काम कर सकता है। गांधी ने न केवल डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद जैसे नामी गिरामी वकीलों और आचार्य जेबी कृपलानी जैसे विद्वानों की टोली तैयार की, जो बाद में भारत के स्वतंत्रता संग्राम के नायक बने, बल्कि अपनी पत्नी कस्तूरबा को भी चंपारण बुला लिया। पढ़ाई के लिए स्कूल खोला, सफ़ाई अभियान चलाया और दवाई का इंतज़ाम भी किया। समाज सुधार के काम हुए। हिन्दू मुस्लिम सबने मिलकर अंग्रेजों के अत्याचार का मुक़ाबला किया। यह सब करने के बाद ही उन्हें बापू और महात्मा की उपाधि मिली थी।

चंपारण की सबसे बड़ी विरासत किसानों और आम आदमी का शोषण तथा अन्याय के खिलाफ उठ खड़ा होना है। उसमें गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे पत्रकार हैं, जिन्होंने नौकरी गंवाने का जोखिम उठाकर नील किसानों की व्यथा-कथा छापी। किसान आज भी शोषित और पीड़ित हैं। आज की सरकार भी बिना व्यापक विचार विमर्श कुछ कॉर्पोरेट घरानों के फ़ायदे के लिए क़ानून बना देती है। आवाज़ उठाने वालों का दमन होता है। अंग्रेजों की बांटो और राज करो वाली नीति आज तक चली अा रही है। हिन्दू और मुस्लिम को लड़ाया जा रहा है। गोडसे और उनके गुरु सावरकर का महिमामंडन हो रहा है। इसलिए गांधी और चंपारण की विरासत को संजोने की ज़रूरत पहले से ज़्यादा है, जिसके लिए चंपारण ज़िले का नाम बदलने के अलावा और भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत है, वरना लोग गांधीनगर में बैठकर गुजरात में दंगे और नरसंहार न कराते।

इसलिए तुषार बाबू समझा करो। गांधी अब न चंपारण में मिलेंगे, न साबरमती में, न सेवाग्राम में और न राजघाट में। गांधी वाले ख़ुद ही अपने-अपने मठों पर क़ब्ज़ा जमाये रखने के लिए सारे तीन-तिकड़म कर रहे हैं। गांधी को तो नेहरू और कांग्रेस ने भी छोड़ दिया था। जो आदमी सरकार में होता है, उसे न गांधी पसंद होता और न सत्याग्रह। गांधी, हिन्द स्वराज और सत्याग्रह को ज़िंदा रखना है, तो ख़ुद ही गांधी के रास्ते पर चलकर आम जानता को जगाना और संगठित करना होता है।

-राम दत्त त्रिपाठी

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