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उधार की विकास नीति में फंसा देश

भारतीय अर्थव्यवस्था @ 75

भारत एक विविधतापूर्ण समाज है और भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया में किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक जटिल है। इसने पिछले 75 वर्षों में विकास के लिए गंभीर चुनौतियां पेश की हैं लेकिन निस्संदेह चीजें वैसी नहीं हैं, जैसी वे थीं। बड़ी गलती ट्रिकल डाउन नीतियों को चुनने की रही है, जो बेहद गरीबी में जीने वाले लोगों की एक बड़ी संख्या तक नहीं पहुंची हैं। विकास की नीतियां श्रमिकों और पर्यावरण की कीमत पर बनती रही हैं। इसने विकास के आधार को संकुचित कर दिया है और समाज में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से अस्थिरता पैदा कर दी है।

आज़ादी के 75 साल बाद भारत के विकास की कहानी चूके हुए अवसरों की कहानी है। आजादी के बाद से देश ने अबतक बहुत कुछ हासिल किया है, लेकिन एक विकसित समाज बनने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। कोरोना महामारी ने भारत की कमजोरियों को स्पष्ट रूप से उजागर कर दिया है। देश की अधिकांश आबादी कैसी जहालतों में जीवन जीती है, यह स्पष्ट हो गया। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश के 90% श्रमिकों ने लॉकडाउन के दौरान कहा कि उनके पास एक हफ्ते की जरूरत के लिए भी बचत नहीं है। इसीलिए भोजन और जीवन की उम्मीद में लाखों लोगों का बड़े पैमाने पर शहरों से गांवों की ओर पलायन हुआ।

सामान्यतः टेक्नोलोजी के क्षेत्र में, फार्मास्यूटिकल्स और आवश्यक वस्तुओं के कुछ उत्पादक समूहों ने महामारी के बावजूद अच्छा प्रदर्शन किया, इसलिए अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद अच्छा कर रहा है, लेकिन प्राइस सर्वेक्षण-2022 के मुताबिक निचले स्तर पर कम से कम 60% लोगों की आय में गिरावट आई है। अर्थव्यवस्था के असंगठित और संगठित हिस्सों के बीच बड़ा विभाजन बढ़ रहा है।

अर्थव्यवस्था की संरचना और विकास

1947 में जब आज़ादी मिली, तब भारत की सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियां, दक्षिण पूर्व एशिया और चीन आदि देशों की तरह ही थीं। गरीबी का स्तर, निरक्षरता, स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे की कमी आदि क्षेत्रों में ये सभी देश लगभग समान धरातल पर थे। लेकिन तब से लेकर अब तक इन देशों ने भारत को इन सभी क्षेत्रों में पीछे छोड़ते हुए तेजी से प्रगति की है। भारत स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा में सुधार, अर्थव्यवस्था के विविधीकरण और उद्योगों के विकास के बावजूद अपेक्षाकृत पीछे रह गया है।

1950 में सकल घरेलू उत्पाद में 55% हिस्सेदारी के साथ कृषि सर्वप्रमुख क्षेत्र था, यह हिस्सेदारी अब घटकर लगभग 14% हो गयी है। सेवा क्षेत्र का हिस्सा तेजी से बढ़ा, 1980 तक यह कृषि के हिस्से को पार कर गया और अब यह सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 55% है। भारतीय अर्थव्यवस्था ने सुई से जहाज तक के उत्पादन में विविधता पैदा की है।

कृषि अधिकतम 4% प्रति वर्ष की दर से ही बढ़ती है, जबकि सेवा क्षेत्र में 12% प्रति वर्ष की दर से बढ़ने की सम्भावना होती है। हमारी अर्थव्यवस्था की मूल संरचना ने कृषि क्षेत्र से सेवा क्षेत्र में शिफ्ट किया है, इससे अर्थव्यवस्था की विकास दर में तेजी आई है। 1950 और 1970 के बीच अर्थव्यवस्था की औसत विकास दर लगभग 3.5% थी। 1980 और 1990 के दशक में इस बदलाव के कारण विकास दर बढ़कर 5.4% हो गयी। 1980 के दशक की तुलना में 1990 के दशक में अर्थव्यवस्था की विकास दर में आमतौर पर कोई तेजी नहीं आई, लेकिन 2003 के बाद की अवधि में यह दर फिर से बढ़ी और वैश्विक वित्तीय संकट के कारण 2008-09 में एक बार फिर गिरावट दर्ज की गयी। इसके बाद की वैश्विक घटनाओं और भारत में नीतिगत समस्याओं के कारण विकास दर में बेतहाशा उतार-चढ़ाव आता रहा है।

2012-13 में मुद्रा के प्रवाह में कमी के चलते पैदा हुए वैश्विक वित्तीय संकट के बाद वसूली कम हुई। नवंबर 2016 में हुई नोटबंदी ने विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। और इसके बाद बिना सोचे समझे, संरचनात्मक रूप से अनियोजित और त्रुटिपूर्ण जीएसटी आया। इन नीतियों ने अर्थव्यवस्था को काफी झटके दिए। फिर 2020 में महामारी आई। अर्थव्यवस्था की तिमाही वृद्धि दर 2017-18 की चौथी तिमाही में 8% से गिरकर 2019-20 की चौथी तिमाही में 3.1% हो गई, यह महामारी की चपेट में आने से ठीक पहले की स्थिति थी।


भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए 1980-81 का वित्तीय वर्ष टर्निंग पॉइंट की तरह था। उस समय तक साल भर में एक बार पड़ने वाला सूखा भी कृषि और समग्र रूप से अर्थव्यवस्था की विकास दर को भारी नुकसान पहुंचा सकता था। 1979-80 में पड़े सूखे के कारण अर्थव्यवस्था में कुल 6% की गिरावट आई थी। लेकिन, उसके बाद कृषि में गिरावट के परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था की विकास दर कभी नकारात्मक नहीं हुई। बल्कि 1987-88 में पड़े बड़े सूखे के बाद अर्थव्यवस्था में 3.4% की वृद्धि दर्ज की गयी। 1980-81 के बाद, यह पहली बार है कि इस महामारी के दौरान देश की अर्थव्यवस्था ने नकारात्मक विकास दर दर्ज की है, ऐसा इसलिए हुआ कि इस महामारी ने सेवा क्षेत्र, विशेष रूप से संपर्क सेवाओं को बुरी तरह प्रभावित किया है।

रोजगार और प्रौद्योगिकी संबंधी मुद्दे

कृषि क्षेत्र में देश का 45% कार्यबल कार्यरत है, अर्थव्यवस्था में इसकी 14% हिस्सेदारी के बावजूद अब इनकी संख्या घटी है। कृषि क्षेत्र का मशीनीकरण हो रहा है, जिससे श्रमिकों का विस्थापन हो रहा है। गैर-कृषि क्षेत्र में भी यही हाल है। मशीनों के कारण विस्थापित हुआ मजदूर कृषि क्षेत्र में फंस गया है, जिससे बड़े पैमाने पर प्रच्छन्न बेरोजगारी हो रही है।

भारत के रोजगार के आंकड़े संदिग्ध हैं। चूँकि यहाँ बेरोजगारी भत्ता नहीं मिलता, ऐसे में काम गंवाने वालों को कुछ वैकल्पिक काम करना ही पड़ता है, अन्यथा वे भूखे मर जाते। वे रिक्शा चलाते हैं, गाड़ी को धक्का देते हैं, सिर पर बोझ ढोते हैं या सड़क के किनारे कुछ बेचते हैं। इसे रोजगार के रूप में गिना जाता है, भले ही उनके पास केवल कुछ घंटों का काम होता है। बेरोज़गारी के ताजा आंकड़े शिक्षित युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी की ओर इशारा करते हैं। वे अच्छे मौके का इंतज़ार करते हैं। इससे लेबर फ़ोर्स पार्टिसिपेशन रेट (LFPR) कम होती है. भारत में 20% लोग जो काम कर सकते थे, उन्होंने अच्छे अवसर के इंतजार में काम की तलाश बंद कर दी। सरकारी नौकरी अगर फोर्थ क्लास की भी हो तो सौ, दो सौ सीटों के लिए लाखों युवा आवेदन करते हैं। बेरोजगारी को स्त्री पुरुष के नजरिये से देखें तो कम एलएफपीआर से सबसे ज्यादा प्रभावित महिलाएं होती हैं।

अर्थव्यवस्था में अपर्याप्त रोजगार सृजन कि यह स्थिति ऑटोमेशन और निवेश पैटर्न से जुड़ी है। श्रम विस्थापन को आधुनिक क्षेत्रों में अब नई तकनीक के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, पहले सड़क निर्माण जैसी बड़ी परियोजनाओं में सैकड़ों लोगों को काम करते देखा जा सकता था, लेकिन अब कुछ श्रमिकों के साथ बड़ी मशीनों का उपयोग किया जाता है।

इसके अलावा, अधिकांश निवेश भी संगठित क्षेत्रों को मिलता है, जिससे असंगठित क्षेत्र, खासकर कृषि क्षेत्र के लिए बहुत कम बचता है। इस प्रकार, संगठित क्षेत्र और कृषि क्षेत्र दोनों ही अधिक काम नहीं पैदा कर पा रहे हैं। नतीजतन, नौकरी चाहने वालों को ज्यादातर गैर-कृषि वाले असंगठित क्षेत्र में जाने के लिए मजबूर किया जाता है। असंगठित क्षेत्र को संगठित क्षेत्र के लिए एक रिजर्व लेबर आर्मी की तरह इस्तेमाल किया जाता है।

पर्याप्त मजदूरी की कमी

मुनाफे को बढ़ावा देने के लिए संगठित क्षेत्र, स्थायी कर्मचारियों के बजाय ठेका श्रमिकों को रोजगार दे रहा है। यह सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों का सच है। इसलिए न केवल असंगठित क्षेत्र के श्रमिक, बल्कि संगठित क्षेत्र के श्रमिक भी पर्याप्त मजदूरी नहीं कमा पाते। अधिकांश श्रमिकों के पास किसी भी संकट से निपटने के लिए बहुत कम बचत होती है। वे अपने बच्चों को उचित शिक्षा देने में असमर्थ होते हैं और जरूरी स्वास्थ्य सुविधाओं का खर्च तक नहीं उठा पाते। अधिकांश बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं और छोटे- छोटे काम पकड़ लेते हैं। उन्हें बेहतर वेतन वाली नौकरी नहीं मिल सकती, वे जीवन भर गरीब ही रह जायेंगे।

2018 में दिल्ली सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण ने अधिकांश भारतीयों की कम क्रय शक्ति की ओर इशारा किया। पता चला कि दिल्ली में 90% परिवार 25,000 रुपये और 98% परिवार 50,000 रूपये प्रति माह से कम खर्च कर रहे हैं। चूंकि दिल्ली की प्रति व्यक्ति आय अखिल भारतीय औसत की 2.5 गुनी है, इसलिए इस अगर इस अनुपात में दिल्ली के आंकड़ों को कम करें तो लगभग अखिल भारतीय आंकड़े प्राप्त होंगे। इस प्रकार 98 प्रतिशत परिवारों ने 20,000 रुपये और 90 प्रतिशत परिवारों ने 10,000 रुपये प्रति माह से कम खर्च किया होगा। अब गरीबी रेखा के पैमाने से देखें तो 2018 में देश के 90 प्रतिशत परिवार गरीब थे। महामारी के दौरान, उनमें से कई ने यह आय भी खो दी, कंगाल हो गए और अपनी खपत को और कम करने के लिए मजबूर हो गए।

अदृश्य असंगठित क्षेत्र

असंगठित क्षेत्र में मजदूर ट्रेड यूनियनों के रूप में संगठित नहीं होते, इसलिए वे मजदूरी बढ़ाने के लिए सौदेबाजी करने की स्थिति में भी नहीं होते। यह कुल कार्यबल का लगभग 94% हिस्सा है, इसमें सामाजिक सुरक्षा बहुत कम होती है। विश्व की किसी अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्था में इतना बड़ा असंगठित क्षेत्र नहीं है। जब आबादी का इतना बड़ा हिस्सा अपने जीवन में संकट का सामना कर रहा हो, तो अर्थव्यवस्था में गिरावट आती ही है।

हमारे नीति निर्माता इतने बड़े असंगठित क्षेत्र की उपेक्षा करते हैं। लॉकडाउन का अचानक लागू किया जाना इसी प्रवृत्ति की ओर इशारा करता है। माइक्रो सेक्टर में 99% इकाइयाँ और 97.5% एमएसएमई के रोजगार आते हैं। एमएसएमई क्षेत्र के लिए बनाई गई नीतियों का लाभ भी सूक्ष्म इकाइयों को नहीं मिलता।

नोटबंदी और त्रुटिपूर्ण जीएसटी ने अर्थव्यवस्था को बड़े झटके दिए और असंगठित क्षेत्र को कमजोर किया। संगठित क्षेत्र से इसका संबंध टूट गया। इस प्रकार, 2015 में घोषित राष्ट्रीय आय की गणना की पद्धति भी अमान्य हो गई।

आंकड़ों में असंगठित क्षेत्र एकदम गायब होता है, 2016 के बाद से असंगठित क्षेत्र की गिरावट को आंकड़ों में दर्ज नहीं किया गया है। इससे भी बदतर यह कि संगठित क्षेत्र का विकास असंगठित क्षेत्र की कीमत पर हुआ है। अर्थव्यवस्था की एक गुलाबी तस्वीर पेश की जाती है। इससे उन्हें यह विश्वास भी हो जाता है कि असंगठित क्षेत्र के पतन को रोकने के लिए उन्हें कुछ विशेष करने की आवश्यकता नहीं है।

1947 के नीति प्रतिमानों में बदलाव

ये बढ़ती बेरोजगारी और कमजोर सामाजिक-आर्थिक हालात अचानक नहीं हुए हैं। इनकी जड़ें आजादी के बाद अपनाए गए नीतिगत प्रतिमानों में निहित हैं। 1947 में राष्ट्रीय आंदोलन से निकले नेतृत्व ने यह तय किया कि गरीबी, अशिक्षा और अस्वस्थता की समस्याओं के लिए लोगों को दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए, वे उन्हें स्वयं हल नहीं कर सकते। तय किया गया कि स्वतंत्र भारत में इन मुद्दों को सामूहिक रूप से निपटाया जाएगा। इसलिए सरकार को इन मुद्दों से निपटने की जिम्मेदारी और अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका दी गई।

देश के कुलीन वर्ग का नेतृत्व पश्चिमी आधुनिकता के प्रति आसक्त था और भारत को विकसित बनाने के लिए पश्चिम की नकल करना चाहता था। इसके लिए उस समय दो रास्ते थे; मुक्त बाजार व्यवस्था और सोवियत शैली की केंद्रीय योजना। भारत ने दोनों के मिश्रण को अपनाया। यह रास्ता कुछ रणनीतिक कारणों और टेक्नोलॉजी तक पहुंच बनाने के लिए भी चुना गया था, जिसकी आपूर्ति करने के लिए पश्चिम अनिच्छुक था। दोनों चुने हुए रास्ते इस दृष्टिकोण पर आधारित थे कि सबसे नीचे वालों के लिए एक ट्रिकल डाउन होगा। लोगों ने सभी की व्यापक भलाई में विश्वास करते हुए इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। संसाधन जुटाए गए और बड़े बांधों और कारखानों (जो आधुनिक भारत के मंदिर कहलाते हैं) के निर्माण में निवेश किया गया।

अर्थव्यवस्था में विविधता आई और तेजी से विकास हुआ। एक अर्थव्यवस्था जो 50 वर्षों से लगभग 0.75% की दर से बढ़ रही थी, 1950 के दशक में लगभग 4% की दर से बढ़ी। लेकिन, मृत्यु दर में गिरावट के कारण जनसंख्या वृद्धि दर में तेजी आई। इसलिए, प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि नहीं हुई और गरीबी बनी रही। 1965-67 के सूखे और 1962 और 1965 के युद्धों के बाद भोजन की कमी के कारण समस्याएँ बढ़ गईं। नक्सली आंदोलन 1967 में शुरू हुआ, बढ़ती ऊर्जा निर्भरता के कारण 1972-74 में मुद्रास्फीति उच्च स्तर पर थी। इसके तुरंत बाद 1975 में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हुई और आपातकाल लागू हो गया। देश संकट की ओर बढ़ गया।

लोगों का विकास प्रक्रिया में विश्वास खोने लगा। आबादी के विभिन्न वर्गों ने महसूस किया कि विकास का लाभ अपने समूह तक पहुंचाने के लिए सत्ता में हिस्सेदारी की जरूरत है। समाज में हर जाति, क्षेत्र, समुदाय का शोषण किया गया। नेतृत्व भी अल्पकालिक हो गया और तत्काल लाभ का वादा करके प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद में शामिल हो गया।

स्वतंत्रता के समय मौजूद नीतियों पर बनी आम सहमति जल्दी ही समाप्त हो गई। चुनाव के समय वोट पाने के लिए किये गये वादे पूरे नहीं किए गए। उदाहरण के लिए, मोरारजी देसाई ने कहा कि 1977 में जनता पार्टी के घोषणापत्र में किए गए वादे पार्टी के कार्यक्रम थे, न कि सरकार के। राजनीतिक प्रक्रिया में इस तरह जवाबदेही कम करने से लोकतंत्र में जन विश्वास कम हुआ है और अलगाव बढ़ गया है।

काले धन की अर्थव्यवस्था और नीति विफलता

1950 के दशक से राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक प्रभावों के साथ काले धन की अर्थव्यवस्था भी तेजी से बढ़ी है। भले ही यह देश की प्रमुख समस्याओं की जड़ में है, लेकिन अधिकांश विश्लेषक इसे नज़रअंदाज़ कर देते हैं।

यह चुनावों को कमजोर करती है और राजनीतिक दलों पर निहित स्वार्थों की पकड़ मजबूत बनाती है। राजनीतिक दलों का समझौतावादी नेतृत्व अपने निहित स्वार्थों के लिए हर समझौता करने को हमेशा तैयार है। सत्ता में रहते हुए भी निहित स्वार्थों की बोली लगाने को तैयार है। काले धन की अर्थव्यवस्था राजनीति को पूरी तरह नियंत्रित करती है, सत्ता की जवाबदेही को कम करती है और लोकतंत्र को कमजोर करती है।

ईमानदार और आदर्शवादी लोग जल्द ही भ्रष्ट हो जाते हैं, जैसा 1970 के दशक में जेपी आंदोलन से निकले नेतृत्व के साथ हुआ। 1990 के दशक में सत्ता हासिल करने वाले उनमें से कई पर भ्रष्टाचार का आरोप लगे और मुकदमे भी चले। सरकार द्वारा वित्त पोषित चुनावों के प्रस्तावों से भी राजनीति को साफ करने में मदद नहीं मिलेगी।

काली अर्थव्यवस्था विकास की दोहरी समस्या की ओर ले जाती है। कर के दायरे से बाहर होने वाली काली आय सरकार के लिए संसाधनों की उपलब्धता कम करती है। यदि वर्तमान में सकल घरेलू उत्पाद के 60% से अधिक अनुमानित काली आय को कर के दायरे में लाया जाय, तो कर/जीडीपी अनुपात 24% तक बढ़ सकता है। यह अनुपात अभी लगभग 17% है और दुनिया में सबसे निचले पायदान पर खड़े देशों में से एक है। संक्षेप में, काली अर्थव्यवस्था पर अंकुश लगाने से भारत की विभिन्न विकासात्मक समस्याओं का समाधान हो जाएगा, चाहे वह मंदी, गरीबी, असमानता, नीति विफलता, रोजगार सृजन, मुद्रास्फीति कुछ भी हो।

काली अर्थव्यवस्था के बारे में विभिन्न भ्रांतियों के कारण, इसे रोकने के लिए उठाए गए कई कदम नोटबंदी की तरह उलटे पड़े हैं। दर्जनों समितियों और आयोगों ने इससे जुड़े अनेक पहलुओं का विश्लेषण किया है और समस्या से निपटने के लिए सैकड़ों कदम सुझाए हैं। उनमें से कई को लागू भी किया गया है, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण काली अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ता ही गया है।

1991 में नीति प्रतिमानों में हुए बदलाव

नीतियों की विफलता ने 1990 तक की अवधि में संकट पर संकट पैदा किये। इस विफलता का दोष नीतियों पर ही लगाया गया, न कि क्रोनी कैपिटलिज्म और काली अर्थव्यवस्था पर, जो वास्तव में विफलता का कारण बने। 1990 से पहले की नीतियों को अक्सर समाजवादी कहा जाता रहा है। दरअसल, मिश्रित अर्थव्यवस्था का मॉडल पूंजीवाद को बढ़ावा देने के लिए डिजाइन किया गया था। 1990 से पहले निजी पूंजी तेजी से जमा हुई।

1991 में, एक नए नीति प्रतिमान की शुरुआत हुई। ‘व्यक्ति अपनी समस्याओं के लिए खुद जिम्मेदार हैं, न कि समूह’। इस अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका को कम कर दिया गया था और लोगों से अपेक्षा की गई थी कि वे अपनी समस्याओं के समाधान के लिए बाजार जाएंगे। इसे ‘बाजारीकरण’ के रूप में वर्णित किया गया। इससे व्यक्तियों और समाज की सोच में एक दार्शनिक बदलाव आया।

बाजारीकरण ने असमानता और बेरोजगारी में वृद्धि को जन्म दिया। इन नीतियों ने किसी भी कीमत पर विकास को बढ़ावा दिया और गरीबी को और अधिक गहरा किया। इस तरह समाज की समस्याएं और अधिक विकराल हुईं।

ज्ञान के सृजन में कमी

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद से टेक्नोलोजी तेजी से बदली है। नई टेक्नोलोजी के उभार से परिवर्तन होता तो है, लेकिन नागरिक इससे निपटने में असमर्थ होते हैं। 1950 के दशक में जो तकनीक उन्नत मानी जाती थी, आज उससे भी अधिक उन्नत तकनीकी उपलब्ध है है।
कई नियमित नौकरियां जल्द ही गायब हो जाने वाली हैं, ऐसी आशंका है। बैंकिंग अब नेट-बैंकिंग और मशीनों आदि के माध्यम से संभव है। डिजिटल करेंसी से खुद बैंक खतरे में आ गये हैं।

ज्ञान सृजन में भारत की कमजोरी शिक्षा और अनुसंधान एवं विकास को दी गई कम प्राथमिकता से जुड़ी है। हमारा सीखना काफी हद तक ‘रटना सीखने’ पर आधारित ,है जो आगे के विकास को सक्षम नहीं बनाता। कोई आश्चर्य नहीं कि बड़ी संख्या में नागरिकों में वैज्ञानिक सोच का अभाव है। यह राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछडापन बनाये रखने वाली स्थिति है।

शिक्षा के संबंध में नीतिगत कदम उठाये जाने के बावजूद गिरावट आई है। ऐसा इसलिए है क्योंकि शिक्षा का माहौल ही गलत है। नौकरशाही मानसिकता वाले नौकरशाहों, राजनेताओं या शिक्षाविदों के हाथ में शिक्षानीति है। इसलिए, नीतियां यांत्रिक रूप से तैयार की जाती हैं।
सीखने के लिए लोकतंत्रीकरण की आवश्यकता होती है। इसलिए संस्थाओं को वर्तमान सामंती और नौकरशाही नियंत्रण से मुक्त करने की आवश्यकता है। पाठ्यक्रमों को विदेशी विश्वविद्यालयों से कॉपी करने की मांग की जाती है। जेएनयू को हार्वर्ड या कैम्ब्रिज जैसा बताया जाता है। इस संदर्भ में एक विरोधाभास है; मौलिकता की नकल नहीं की जा सकती। विदेशों से कॉपी किए गए पाठ्यक्रम वहां की सामाजिक परिस्थितियों पर आधारित होते हैं, न कि भारतीय परिस्थितियों पर। गांधी ने कहा था कि भारतीय शिक्षा प्रणाली अलग-थलग है और कई लोगों के लिए यह अभी भी है।

सीखने को कम प्राथमिकता दी जाती है, क्योंकि विचारों को विदेशों से उधार लेने की मांग की जाती है। शासकों के मन में उन संस्थानों का बहुत कम महत्व है, जो नए विचार उत्पन्न कर सकते हैं, उन्हें अपर्याप्त धन आवंटित किया जाता है। सबसे अच्छे दिमाग वाले स्कॉलर ज्यादातर विदेश चले जाते हैं और अगर लौटकर आते भी हैं, तो अपने साथ एक विदेशी ढांचा लेकर आते हैं, जो भारत के अनुकूल नहीं है। इसलिए एक समाज के रूप में हमें विचारों को महत्व देना चाहिए. शिक्षा, अनुसंधान एवं विकास को प्राथमिकता देनी चाहिए और सामाजिक रूप से प्रासंगिक ज्ञान उत्पन्न करना चाहिए।

निष्कर्ष

भारत एक विविधतापूर्ण समाज है और भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया में किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक जटिल है। इसने पिछले 75 वर्षों में विकास के लिए गंभीर चुनौतियां पेश की हैं लेकिन निस्संदेह चीजें वैसी नहीं हैं, जैसी वे थीं। बड़ी गलती ट्रिकल डाउन नीतियों को चुनने की रही है, जो बेहद गरीबी में जीने वाले लोगों की एक बड़ी संख्या तक नहीं पहुंची हैं। विकास की नीतियां श्रमिकों और पर्यावरण की कीमत पर बनती रही है। इसने विकास के आधार को संकुचित कर दिया है और समाज में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से अस्थिरता पैदा कर दी है। हाल की नीतिगत गलतियों – नोटबंदी, त्रुटिपूर्ण जीएसटी और अचानक लॉकडाउन से स्थिति और बिगड़ गई है। यूक्रेन में मौजूदा युद्ध से एक नई वैश्विक व्यवस्था की ओर बढ़ने की संभावना है, जो चुनौतियों को और बढ़ाएगी। भारत में अर्थव्यवस्था का अर्थ सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक भी है। जब तक यह चुनौती पूरी नहीं हो जाती, भारत के लिए शुभ संकेत नहीं हैं।

-प्रोफेसर अरुण कुमार

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