उमायरा तूफानों से खेलती आई हैं। 9 साल की थीं तो लड़कों जैसे बाल कटाने की हिमाकत कर बैठीं। फिर क्या था, तालिबानी लड़ाके आ धमके। उमायरा जान बचाने के लिए कुएं में कूद गईं। किसी तरह जिंदा बचीं। वक्त गुजरता गया। तालिबान सत्ता से बाहर हो गया। उमायरा काबुल में ग्रेजुएशन के बाद दिल्ली आ गयीं। जेएनयू से मास्टर्स डिग्री ली। पीएचडी की। लॉकडाउन के बाद काबुल लौटी ही थीं कि तालिबान ने सत्ता कब्जाकर महिलाओं के लिए तरक्की के रास्ते बंद कर दिए। उमायरा को जान बचाने के लिए अफगानिस्तान छोड़ना पड़ा। फिलहाल वह नीदरलैंड्स के एक रिफ्यूजी कैंप में हैं। अपनी कहानी साझा करते हुए उमायरा ने दैनिक भास्कर के मुकेश कौशिक से कहा कि काश मैं हिंदुस्तान की बेटी होती, तो आज पूरे हक से अपने मुल्क में रहती।
काबुल का वह आखिरी दिन बहुत भारी था। दरवाजे से एयरपोर्ट तक दहशतगर्द थे। हमने आखिरी बार अपने आशियाने को हसरत से निहारा। जरूरत का कुछ सामान बांधकर मैं, मां और मेरा भाई निकलने लगे। मां ने सिर्फ एक तकिया मांगा, जिससे उन्हें कमर दर्द से आराम मिलता है। मैंने पता नहीं क्यों पूछ लिया कि मां, ताला लगा दूं? ‘ताला तो इस मुल्क को तालिबान ने लगा दिया है। अब इस लोहे के ताले से क्या होगा…’ मां के जवाब से मेरे भीतर थमा सब्र का सैलाब फूट पड़ा। मैं संभल पाती कि मां ने घर की चौखट पर दोनों पांव नमाज पढ़ने के अंदाज में टिका दिए। मैं हिंदुस्तान में जन्नत जी चुकी हूं, पर मां तो पहली बार काबुल छोड़ रही थीं। शायद सदा के लिए। वह दुआ मांगने के अंदाज में कुछ बड़बड़ा रही थीं।’ अल्लाह से क्या मांग रही हो… मैंने पूछा। वह बिलख पड़ीं। बोलीं- ‘ये झूठा शरिया तुम्हें मुबारक। मैं अपना ईमान, इंसानियत लेकर यहां से चली। उसके बाद हमने घर की ओर मुड़कर भी नहीं देखा। काबुल की सड़कों पर दिल्ली जैसी रेड-ग्रीन लाइटें नहीं हैं। वह शहर हमेशा अल्लाह के भरोसे रहा है। तालिबानी कब्जे के बाद पब्लिक हेल्थ को छोड़, सभी मिनिस्ट्री बंद हैं। पुलिस कहीं नहीं दिखती। बाजार ऐसे हो गए हैं, जैसे लॉकडाऊन लगा हो। हमें लगता था कि काबुल पर कब्जा कम से कम दो महीने दूर है। फिर खबर आयी कि राष्ट्रपति अशरफ गनी भाग गए हैं। हर कोई कहने लगा- गनी ने मुल्क बेच दिया। अगली सुबह पता चला कि तालिबान ने तख्त कब्जा लिया है। उसी वक्त सारी उम्मीदें खत्म हो गयीं।
टीवी चैनलों पर म्यूजिक बंद हो गया। मनोरंजन कार्यक्रम रोक दिए गये। टोलो न्यूज इस्लामी कार्यक्रम दिखाने लगा। जान बचाने के लिए जेहन में पहला नाम दिल्ली आया। जेएनयू कैंपस की यादें ताजा थीं। सरोजनी नगर की शॉपिंग और लाजपत नगर के छोले-कुल्चों का जायका भी अभी जुबां पर था। लेकिन, काबुल में भारतीय दूतावास से संपर्क नहीं हो पाया। हिंदुस्तान से लौटकर मैंने नीदरलैंड्स के एक एनजीओ के साथ काम शुरू किया था। दुबारा उससे संपर्क किया। उनके दूतावास की गाड़ी घर के सामने थी। सवार होने से पहले मां ने एक और ताकीद की। ‘बुर्का पहन लो।’ मेरे कानों में जैसे दहकता हुआ लोहा उड़ेल दिया हो। मैंने खुद को उस काले ताबूत में जिंदा लाश की तरह बंद कर लिया। विमान में सवार होते ही सबसे पहले मैंने बुर्का उतार फेंका। कसम खाई कि अब कभी लाश बन कर नहीं जीऊंगी। पश्चिमी मुल्क अफगानों को शरण दे रहे हैं। यह कहानी हॉलीवुड फिल्म ‘शिंडलर्स लिस्ट’ जैसी है। उसमें सिर्फ हुनरमंद यहूदियों को ले जाया जाता है। मेरे जेहन में वे मासूम चेहरे चीख रहे हैं, जिन्हें ले जाने वाला कोई नहीं है। वे बंदूकों के साये में पीछे छूट गये हैं।’
भारत की तुलना अफगानिस्तान से नहीं की जा सकती. मगर इसका श्रेय देश की मौजूदा सत्तारूढ़ जमात को नहीं जाता. गनीमत है कि इस जमात के उलट प्रयासों के बावजूद अब तक भारतीय समाज में उदार परंपरा बची हुई है. उमायरा यदि भारत की ही बेटी होती तो क्या पता वह कब तक और कितना महफूज रहती. उसे यह एहसास नहीं है शायद कि हमारे यहां तालिबान से प्रेरणा लेने वालों की कमी नहीं है. इमरान खान की तरह यहां भी ऐसा मानने वाले लोग हैं कि तालिबान के आने से अफगानिस्तान ‘गुलामी से मुक्त’ हुआ है!
प्रस्तुति : श्रीनिवास
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