लगभग चार दशक पूर्व होली और पलाश (टेसू) का फूल एक दूसरे के पर्याय हुआ करते थे। जिस साल पलाश के फूल कम आते, उस साल की होली फीकी हो जाती थी, क्योंकि होली खेलने के लिए केशरिया रंग का स्रोत टेसू का फूल ही हुआ करता था। यही नहीं तीज, त्योहार, यज्ञ, यज्ञोपवीत, शादी ब्याह, श्राद्धादि सभी शुभ-अशुभ कार्यक्रमों में देवताओं के भोग तथा आमंत्रित लोगों के भोजन के लिए पलाश के पत्तों तथा इन पत्तों से बने पत्तलों को ही शुद्ध एवं पवित्र माना जाता था। परन्तु समय ने करवट बदली, परम्पराओं, संस्कृति-संस्कारों की अवधारणा में आधुनिकता का संक्रमण हुआ और पलाश के फूलों की जगह रासायनिक रंगों ने और पत्तों की जगह प्लास्टिक के पत्तलों ने ले ली। पलाश महत्वहीन होने लगा। बेचारा पलाश चुपचाप अपना पतन देखता रहा, स्वार्थी मानव के हाथों कटता रहा, लेकिन इसी बीच साल 2003 पलाश के लिए खुशियों की सौगात लेकर आया। प्रदेश विभाजन के समय उत्तर प्रदेश का राज्य-पुष्प ‘ब्रह्मकमल’ अपने मूल निवास उत्तराखंड के हिस्से में चला गया। जब पुष्प विहीन उत्तर प्रदेश के राज्य-पुष्प का सिंहासन खाली नजर आया तो नये राज-पुष्प की खोज शुरू हुई, जो 3 जनवरी 2011 को पलाश -पुष्प को राज-पुष्प घोषित करने के साथ पूर्ण हुई। अर्थववेद में वर्णित यह ब्रह्मवृक्ष, ब्रह्मकमल द्वारा खाली किये गये सिंहासन पर सुशोभित हो गया।
पलास भारतीय जनजीवन के साथ ही संस्कृति, साहित्य एवं विज्ञान के लिए प्राचीन काल से ही आकर्षण का विषय रहा है। अर्थववेद में इसे यज्ञवृक्ष और ब्रह्मवृक्ष की संज्ञा दी गयी है। पलाश के बिना यज्ञ पूरा ही नहीं हो सकता है। यज्ञोपवीत संस्कार में पलाश दण्ड व पत्र लेकर ही तप का संकल्प लेने का विधान है।
अथर्ववेद (का6अ2सू15) में पलाश का वंदन करते हुए कहा गया है कि ‘हे सोमपर्ण से उत्पन्न पलाश! तुम औषधियों में श्रेष्ठ हो, अन्य वृक्ष तुम्हारे अनुगत हैं, हमें क्षति पहुँचाने वाले शत्रुओं को नष्ट करो।’ दूसरी ऋचा में इसके औषघीय गुणों का बखान करते हुए कहते कहा गया है- ‘हे पलाश! तुम विसर्प (सोरियासिस), कुष्ठ आदि रोगों की परम औषधि हो, घाव, क्षय (टीबी), श्वास (दमा), कृमि, वात नामक रोगों को भी दूर करने में सक्षम हो, तुम्हारे बिना ब्रह्म-यज्ञ संभव नहीं हैं, इसलिए तुम ब्रह्म वृक्ष हो’ (4/13/128), इसी वेद-वंदित पलाश को लोकजीवन ने अमल कर इसको संरक्षित रखा था। आयुर्वेद में तो इसे कायाकल्प करने वाली औषधि की संज्ञा दी गयी है। अष्टांग हृदय के रसायन अध्याय में एक ऐसे योग का वर्णन है, जो वृद्ध को भी युवा बना देता है।
पलाश के फूलों ने भारतीय साहित्यकारों को भी खूब लुभाया है. संस्कृत, हिन्दी, भोजपुरी आदि भाषाओं-बोलियों के कवियों ने बसंत के आगमन का प्रमाण पलाश के फूलों को ही माना है। कालिदास, तुलसीदास, प्रसाद और भारतेन्दु से लेकर आधुनिक कवियों तक ने पलाश की आग को महसूस किया है। इसके फूल जब खिलते हैं, तो पूरा पलाश -वन केशरिया हो जाता है, ऐसा लगता है मानो वन में आग लगी हो! कीट-पतंगों ही नहीं, मनुष्य को भी सहज ही ध्यानाकर्षित कर लेता है।
शास्त्रों के अनुसार पलाश का फूल देवी को विशेष प्रिय है, इसके अर्पण से स्वर्णदान का फल मिलता है। तंत्र ग्रंथों के अनुसार पलाश-पुष्प बासी नहीं होता है। तांत्रिक साधना में इसका विशेष प्रयोग होता है। दश महाविद्या में 9 वीं महाविद्या मातंगी को पलाश-पुष्प विशेष प्रिय है। आइये, अब पलाश को विज्ञान की दृष्टि से देखते हैं। प्राचीन आयुर्विज्ञान से लेकर आधुनिक वनस्पति व औषधि विज्ञान ने इसे अपने प्रयोगों में शामिल किया है।
पलाश अत्यंत शुष्क भागों को छोड़कर भारत के प्रत्येक क्षेत्र में 1200 मीटर की ऊंचाई तक पाया जाता है। इसे प्रायः बगीचों में भी लगया जाता है, यह प्राय समूह में उगा होता है। इसके पेड़ छोटे या मध्यम लम्बाई के होते हैं। इसकी पत्तियाँ लम्बे डंठल पर 3 की संख्या में होती है, जिसे मुहावरे के रूप में कहा जाता है ‘ढाक के तीन पात’। इसके पत्ते 10 से 20 सेंटीमीटर चौड़े, कुछ खुरदरे, चिकने तथा नीचे की ओर कोमल रोम जैसे होते है, जिन पर उभरी हुई रेखाएं होती हैं। तीन पत्तों में आगे का पत्ता त्रिकोणीय आयताकार होता है, जो डंठल की ओर कुछ पतला या अभिअण्डाकार, कुष्ठिताग्र या खण्डिताग्र या किनारे तिर्यकाकार होते हैं। इसकी ऊपरी सतह हरी तथा निचली सतह भूराभ होती है।
पलाश के फूल अत्यंत सुन्दर केशरिया रंग के होते हैं, इसकी आकृति तोते की चोंच की तरह होती है, इसलिए इसे किंशुक (तोता) भी कहा जाता है। पतझड़ में जब इसके सभी पत्ते गिर जाते हैं तो पत्रविहीन टहनियों पर गुच्छों के रूप में अधिक संख्या में फूल आते हैं, जो लगभग महीने भर रहते हैं। इनकी संख्या इतनी अधिक होती है कि दूर से देखने पर पूरा पेड़ या बाग ही लाल रंग का दिखता है। इसके ऊपर का आकाश भी केशरिया आभा लिए हुए दिखता है। इसी लिए इसे स्वर्ण-पुष्प भी कहा जाता है।
इसकी फलियाँ बड़ी, आगे की ओर तथा एक बीजयुक्त होती हैं। चिपटी वृक्काकार (सेम के बीज की तरह) 25-38 मिमी लम्बी, 16-25 मिमी चौड़ी, 15 से 20 मिमी मोटी, स्वाद में कटु तथा तीखी होती हैं। इनसे हल्की गंध भी आती है। पलाश के पेड़ की छाल भूरे रंग की होती है। इसको काटने से निकलने वाला गोंद लाल रंग का होता है, जो सूखने पर चाकलेटी रंग का, टूटने वाला तथा चमकीला हो जाता है।
इसका रासायनिक विश्लेषण करने पर इसके बीजों में स्वादहीन तेल, ग्लूकोसाइडस, व्यूटीन, आइसोव्यूटीन तथा पॉलीस्ट्रीन पाया जाता है। पलास के फूलों में व्यूटीन कोरिप्सीन, मोनोस्पर्मोसाइड, डेराईवेटिज तथा सल्फरीन आदि पाया जाता है।
आयुर्वेद के अनुसार इसके फूल स्वादिष्ट, कषाय, विपाक में कटु, वातजनक, कफ-पित्त, रक्तविकार तथा मूत्रावरोध नाशक होते हैं और प्यास का शमन करते हैं। यह गठिया तथा कुष्ठ आदि रोगों के लिए भी लाभदायक होता है। पलाश का बीज प्रमेह, बवासीर, कीड़े, वात, कफ, कुष्ठ, गाँठ व पेट के रोगों में लाभदायक होता है।
आधुनिक विश्लेषणों से भी यह पता चला है कि इसकी छाल रक्तस्राव, कृमि तथा बवासीर में लाभकारी होती है। इसका फल पेसाब साफ करने वाला, महिलाओं के प्रदर (सफेद पानी गिरना) अतिसार तथा रक्तस्राव में प्रयोग किया जाता है। इसकी पत्तियाँ जीवाणु नाशक होती हैं। इसकी छाल फफूँद और दाद आदि रोगों में लाभ करती है।
पलाश के सामाजिक, धार्मिक, वैज्ञानिक महत्व को भारत ही नहीं, विश्व के विशेषज्ञों ने भी स्वीकार किया है। पलाश को संस्कृत में ब्रह्म-वृक्ष, यज्ञ-वृक्ष, क्षारश्रेष्ठ, समिद्वार, हिन्दी में ढाक, टेसू, पलाश, परास, बंगाली में परास गाँछ, मराठी में परास, गुजराती में खाखरों, कन्नड़ में मुन्तुग, तेलगु में मोदुगवेदर, तमिल में पायस, यूनानी में कमरकस, अंग्रेजी में फ्लैम आफ फाॅरेस्ट तथा वैज्ञानिक शब्दावली में ब्यूटिया फ्रन्डोसा कहा जाता है। आयुर्वेद ने इसे वटादिकुल तथा पाश्चात्य विज्ञान ने इसे पेटिलियोनेसी परिवार का सदस्य माना है। प्रत्येक भाषा व समाज में इसकी उपस्थिति इसके महत्व को दर्शाने के लिए पर्याप्त है। उत्तर प्रदेश के प्रत्येक भाग में ऊंची, शुष्क, बलुई जमीन में इसके पेड़ पाये जाते हैं। गोरखपुर से वाराणसी मंडल तक इसके बाग दिख जाएंगे, जिनका क्षेत्रफल अब सिकुड़ता जा रहा है। फिर भी अभी इसके पेड़ों की इतनी मात्रा बची हुई है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में पान के बीड़े पलाश के पत्तों में ही बाँधे जाते हैं। इसके बागों या पेड़ों को बसंत काल में आसानी से पहचाना जा सकता है। देवरिया, बलिया आदि जिलों में इसके नाम से गाँवों के नाम भी हैं, जैसे- परसा जंगल, परसा बुजुर्ग, परसौनी, परसाखाड़ आदि।
इस प्रकार पलाश को राज्य-पुष्प घोषित करने के साथ शासन को सर्वे कराकर इसके बागों और पेड़ों को संरक्षण प्रदान करना चाहिए। संचार माध्यमों से राज्य-पुष्प को प्रचारित कर आज जनता को इसके संरक्षण के लिए जागरूक करना चाहिए। वृक्षारोपड़ अभियान में इसे शामिल कर स्कूल, कॉलेज आदि सार्वजनिक स्थानों, पार्कों में इसे लगवाया जाना चाहिए। तभी इसका सौन्दर्य प्रदेश को गौरवान्वित करेगा और तभी इसको राज्य-पुष्प घोषित करने की सार्थकता साबित होगी।
-डॉ.आर.अचल पुलस्तेय
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