हमारे देश के संविधान के अनुच्छेद 51-A में देश के प्रत्येक बच्चे के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाली समान शिक्षा की व्यवस्था की गयी है, बालक-बालिका, गरीब-अमीर, हिन्दू-मुसलमान, सिख-ईसाई, दलित-पिछड़ा, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक जैसे भेद शिक्षा प्राप्त करने के अवसरों में नही होने चाहिए. लेकिन वास्तविक अर्थों में आजादी के 75 बीतने के बावजूद हम सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने में सफल नही हो सके हैं. अमेरिका, इंग्लैंड आदि दुनिया के अमीर देशों में सरकारी स्कूल ही बेहतरीन शिक्षा व्यवस्था की नींव माने जाते हैं. वहां की शिक्षा व्यवस्था पर आम जनता का नियंत्रण होता है. इसके ठीक विपरीत पिछड़े देशों में प्राइवेट स्कूलों की शिक्षा पर लोग ज्यादा भरोसा कर रहे हैं. इसी धारणा का फायदा निजी विद्यालयों के प्रबंधन से जुड़े लोग उठा रहे हैं, जो मनमाने तरीके से स्कूल की फीस बढ़ाते जा रहे हैं. दुर्भाग्य से आज हमारे देश में यही चल रहा है.
सन् 1964 में भारत की केन्द्रीय सरकार ने डॉ दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में स्कूली शिक्षा प्रणाली को नया आकार व नयी दिशा देने के उद्देश्य से एक आयोग का गठन किया। इसे कोठारी आयोग के नाम से जाना जाता है. कोठारी आयोग (1964-66) ने अपनी रिपोर्ट में सामाजिक बदलावों के मद्देनजर कुछ ठोस सुझाव दिए थे. आयोग के मुताबिक समान स्कूल के नियम पर ही एक ऐसी राष्ट्रीय व्यवस्था तैयार हो सकेगी, जहां हर तबके के बच्चे एक साथ पढ़ सकेंगे. अगर ऐसा नहीं हुआ तो समाज के ताकतवर लोग सरकारी स्कूलों से भागकर प्राइवेट स्कूलों का रुख करेंगे और पूरी प्रणाली ही छिन्न-भिन्न हो जाएगी, कोठारी आयोग की आशंका कालान्तर में सही साबित हुई.
अगर हम अपने आस पास नजर दौड़ाएं तो पायेंगे कि लगभग 40-50 वर्ष की आयु वाले अधिकांश लोगों की प्राथमिक शिक्षा सरकारी स्कूलों में ही हुई थी. दरअसल लगभग 1980 के बाद से ही सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में धीरे धीरे गिरावट आने लगी और और निजी स्कूलों का बाजार बढ़ने लगा. आज स्थिति यह है कि सरकारी स्कूल मात्र गरीबों और वंचितों के लिए ही समझे जाते हैं. सरकारी तंत्र और जन प्रतिनिधियों की लगातार उपेक्षा के कारण आज अधिकांश सरकारी, प्राइमरी और जूनियर स्कूल दयनीय स्थिति में हैं. दूसरी तरफ नामचीन निजी स्कूल अपने उच्चस्तरीय संसाधनों के दम पर बेतहाशा मुनाफा कमा रहे हैं. सरकारी स्कूलों की गिरती स्थिति और निजी स्कूलों के बढ़ते प्रभाव के चलते समाज के सुविधासम्पन्न लोगों ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजना बंद कर दिया, प्रायः यही वह वर्ग था, जो शिक्षा के प्रति थोडा अधिक जागरूक था, इस वर्ग के सरकारी स्कूलों से दूरी बनाने की वजह से सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की गुणवत्ता पर नजर रखने और हस्तक्षेप करने वाला अभिभावक समूह स्वाभाविक रूप से लगभग समाप्त हो गया. अब जिस वर्ग के बच्चे सरकारी स्कूलों में बचे, उनमें से अधिकांश या तो शिक्षा को महत्व कम देते हैं, अथवा उनकी सामाजिक स्थिति ऐसी नहीं होती कि वे स्कूलों में जाकर कोई सवाल जवाब कर सकें, नतीजा यह हुआ कि सरकारी स्कूल, जिनमें पढ़कर बच्चे कभी तमाम ऊँचाइयों तक पहुंच पाते थे, वे केवल खिचड़ी स्कूल बन रह गये.
तमाम शिक्षाविदों की संस्तुतियों के बाद 2010 में देश में अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा का कानून बना, जिसमें स्कूलों के लिए मानक तय किये गये और विद्यालय प्रबंधन समितियों को तमाम अधिकार दिए गये, लेकिन सरकारी इच्छाशक्ति न होने के कारण न तो संसाधन के स्तर पर और न ही गुणवत्ता के स्तर पर कोई सुधार हो सका. विद्यालय प्रबंधन समितियां प्रायः कागजी खानापूर्ति तक ही सीमित रह गईं. इसी बीच 18 अगस्त 2015 को परिषदीय विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के दृष्टिगत उच्च न्यायालय इलाहाबाद के न्यायाधीश न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया, जिसमें उन्होंने राजकीय कोष से वेतन प्राप्त करने वाले सभी नौकरशाहों, सरकारी कर्मचारियों, जन प्रतिनिधियों आदि के लिए उनके बच्चों को सरकारी प्राथमिक विद्यालय में पढ़वाना अनिवार्य किये जाने का निर्देश राज्य सरकार को दिया था, इस फैसले से एक बार फिर सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में उल्लेखनीय सुधार होने की बड़ी सम्भावना बनी थी, क्योंकि अगर सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों, जन प्रतिनिधियों व न्यायाधीशों के बच्चे सरकारी विद्यालय में पढ़ने जाने लगते तो सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता में रातों-रात सुधार हो जाता, जिसका फायदा गरीब जनता को भी मिलता और उनका बच्चा भी अच्छी शिक्षा पाने लगता, इसका लाभ उन मध्यमवर्गीय परिवारों को भी मिलता, जो अभी अपने बच्चों को मनमाना शुल्क वसूल करने वाले निजी विद्यालयों में भेजने के लिए मजबूर हैं, क्योंकि तब ये लोग भी अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ाते, लेकिन दुर्भाग्य से सरकार ने उक्त फैसले को लागू करने की दिशा में कोई रूचि नहीं दिखाई और स्थिति बद से बदतर होती चली गयी.
शिक्षा के बढ़ते बाजारीकरण के कारण आज समाज का एक बड़ा हिस्सा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित हो रहा है, कोई स्पष्ट नीति और इच्छाशक्ति न होने के कारण सरकारी विद्यालयों की स्थिति दयनीय होती जा रही है. देश में कोठारी आयोग की संस्तुति के अनुसार सभी को एक जैसी शिक्षा का अवसर मिलना चाहिए, चाहे वह राष्ट्रपति की संतान हो अथवा किसी अफसर, किसान या मजदूर की. सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता बढ़ाने से ही यह संभव हो सकेगा. उत्तर प्रदेश में पिछले 15 वर्षों में जैसे प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था को लावारिस छोड़ दिया गया, शिक्षा की गुणवत्ता और संसाधन दोनों में बहुत तेजी से गिरवट आयी. विभिन्न सामाजिक संगठनों और शिक्षा पर काम कर सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सरकार पर विभिन्न माध्यमों से दबाव बनाने का कार्य किया, जिसके फलस्वरूप वर्तमान सरकार के सत्तारूढ़ होने पर कुछ सकारात्मक परिणाम सामने दिखे. प्राथमिक विद्यालयों के बच्चों की यूनिफ़ॉर्म पहले से आकर्षक हुई. स्कूलों में संसाधनों के विकास पर भी अच्छा व्यय हुआ. काफी वर्षों बाद अब सत्रारम्भ से ही पुस्तकें बच्चों को मिलने लगी हैं. रंग, पेंट करके स्कूलों के भवनों को भी आकर्षक बनाने का काम विगत 2-3 वर्षों में हुआ है. सांसद और विधायक निधियों के कुछ अंशों का प्रयोग सरकारी स्कूलों के संसाधन विकास में होने की शुरुआत हुई है, कुल मिलाकर स्कूलों की दशा में सुधार के लिए कुछ सुखद संकेत मिलने लगे हैं. अब आवश्यकता है समाज के लोगों के आगे आने की और शिक्षकों के साथ साथ अभिभावकों के भी अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों के प्रति सचेत होने की, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार आ सके. कुल मिलाकर देश में शिक्षा की दशा में वास्तविक सुधार के लिए एक बड़े जनांदोलन की आवश्यकता है.
-वल्लभाचार्य पाण्डेय
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