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उत्तराखंड में सर्वोदय आंदोलन

दुनिया में पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से आज प्राकृतिक संसाधनों, जंगलों, पेड़ों और पृथ्वी को बचाने की बात की जा रही है, इसकी शुरुआत उत्तराखंड में गांधी और सर्वोदय विचारों से प्रभावित होकर हुई थी।

उत्तराखंड हमेशा से ऐसा इलाका रहा है, जहां से सामाजिक एकता और अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए रोशनी और प्रेरणा मिलती रही है। स्वतंत्रता के बाद आधुनिक काल में गांधी के विचारों से प्रभावित होकर यहां के समाज सेवकों ने ऐसे क्रांतिकारी आंदोलन आरंभ किये, जिन्होंने देश विदेश में लोगों, संस्थाओं व सरकारों को प्रेरित और प्रभावित किया।

आज़ादी से पहले गांधी जी की दो शिष्याएं सरला बहन और मीरा बहन हिमालय के इस अंचल में आ गयी थीं। सरला बहन ने कौसानी में कस्तूरबा महिला मंडल की स्थापना करके महिला जनजागरण के साथ स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों को सहारा दिया, वहीं मीरा बहन ने गढ़वाल क्षेत्र में पशुपालन और पशुधन से ग्रामीण आर्थिकी में प्रयोग किए। आज दुनिया में पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से प्राकृतिक संसाधनों, जंगलों, पेड़ों और पृथ्वी को बचाने की बात की जा रही है, उसकी शुरुआत उत्तराखंड में गांधी और सर्वोदय विचारों से प्रभावित होकर हुई थी।

1957 में उत्तरकाशी में सिल्यारा आश्रम की स्थापना हुई, जिसमें प्रमुख भूमिका सरला बहन की शिष्या विमला बहुगुणा की थी, हालांकि उसे प्रसिद्धि सुन्दर लाल बहुगुणा के नाम पर मिली। बाद में सुन्दर लाल बहुगुणा ने सुरेन्द्र भट्ट के साथ उत्तरकाशी में ही उजेली सर्वोदय आश्रम की स्थापना करके ग्रामीण समाज के काम और रचनात्मक आंदोलन को आगे बढ़ाया। 1961 में गांधी जी की शिष्या सरला बहन के प्रयासों से सर्वोदय मण्डल की स्थापना हुई, जिसके बाद अनेक सामाजिक आंदोलन आरम्भ हुए। शराबबंदी का प्रारम्भिक आंदोलन सर्वोदय द्वारा 1965-67 में किया गया था। इस आंदोलन के करीब डेढ़ दशक बाद उत्तराखंड में नशा नहीं, रोजगार दो आंदोलन चौखुटिया से आरंभ हुआ। युवाओं द्वारा आरंभ किए गए उस आंदोलन का सर्वोदय समाज के लोगों ने भरपूर साथ दिया।

जल, जंगल, जमीन, हिमालय और गंगा को बचाने के लिए यहां से चिपको आंदोलन, रक्षासूत्र अंदोलन, गंगा और नदी बचाओ आंदोलन जैसे पर्यावरण संरक्षण के और छुआछूत विरोधी, दलितों का मंदिर प्रवेश और शराबबंदी जैसे सामाजिक आन्दोलन आरंभ हुए, जिनका प्रभाव देश के अलावा दुनिया के और हिस्सों पर भी पड़ा।

उत्तराखंड से आरंभ हुए ऐसे आंदोलनों से समाज और सरकार के सोचने समझने और रहन-सहन के तरीकों में बदलाव हुआ। यह और इस तरह के सारे आंदोलन गांधी और विनोबा के विचारों से प्रभावित व प्रेरित रहे। इन सब के जरिये उत्तराखंड में सामाजिक सद्भाव के लिए जो काम हुआ, उसकी दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल है। देश की स्वतंत्रता के दो साल बाद टिहरी रियासत के विलय के बाद गांधी विचार से प्रभावित कार्यकर्ता उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों में रचनात्मक कार्य में लग गए थे। खेती, पशुपालन, खादी और ग्रामोद्योग के माध्यम से लोगों में स्वावलंबन बढ़ाने और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण काम जगह-जगह आरम्भ हुआ, लेकिन जो काम अपने दौर का सबसे क्रांतिकारी काम था, वह सामाजिक सद्भाव और छुआछूत रोकने का काम था। उत्तराखंड के दूर दराज के एक इलाके बूढ़ा केदारनाथ में 1952 में एक विलक्षण प्रयोग का आरंभ हुआ था। उत्तराखंड के परम्परागत व रूढ़िवादी समाज में अभी भी छुआछूत और जातिगत भेदभाव की कहानियाँ और घटनाएं देखने सुनने को मिल जाती हैं। सवर्ण-अवर्ण में गहरा जातिगत भेदभाव तो है ही, सवर्णों के बीच भी जातिगत भेदभाव मौजूद हैं।

कल्पना करें कि आज से 70-75 साल पहले का समाज कितना पुरातनपंथी होगा। उस हालत में भी गांधी विचार से प्रभावित होकर बूढ़ा केदारनाथ में ब्राह्मण, क्षत्रिय और शिल्पकार परिवारों ने कैसे एक साथ मिलकर रहने, काम करने और खाना खाने का निर्णय लिया होगा। यह विलक्षण और अनुकरणीय कार्य टिहरी रियासत के एक ब्राह्मण रसोइया परिवार के धर्मानंद नौटियाल, एक क्षत्रिय ठाकुर बहादुर सिंह राणा और शिल्पकार भरपूर नगवाण ने 1952 में आरम्भ किया था। सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि जिस मकान में तीनों परिवारों ने साथ रहने का निर्णय लिया, वह घर प्रसिद्ध बूढ़ा केदारनाथ मंदिर के पास ही था, जहां उस समय दलितों, शिल्पकारों आदि का प्रवेश वर्जित था।

गांधीजी ने बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में साबरमती आश्रम में यह प्रयोग किया था, वह गांधी का प्रभामंडल था, उनकी मौजूदगी थी और स्वतंत्रता का एक मिशन था, जिसके लिए समाज के सभी हिस्सों को साथ रखने और साथ चलाने की ज़रूरत थी। आश्रम के बाहर समाज में इस तरह का प्रयोग करने की भला किसकी हिम्मत थी! समाज से छुआछूत हटाने के अनेक व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयास हुए, लेकिन साथ रहने, खाने और काम करने का ऐसा प्रयोग उस समय तक कोई न कर सका था। 12 साल तक ये तीनों परिवार एक छत के नीचे रहकर सद्भाव और समन्वय की मिसाल बने रहे, बाद में परिवार बढ़ने के कारण अलग तो हुए, लेकिन आपसी सद्भाव बना रहा। इस सद्भाव के प्रयोग से प्रभावित होकर क्षेत्र में दलितों के मंदिर प्रवेश का सफल आंदोलन चला।

हालांकि दलितों के मन्दिर प्रवेश के आंदोलन में दूसरे पक्ष द्वारा हिंसा भी हुई, जिसमें सुन्दर लाल बहुगुणा और बिमला बहुगुणा सहित अनेक सर्वोदय कार्यकर्ता घायल हुए। ऐसे ही एक आंदोलन में सर्वोदयी बलवंत भारतीय का सर फोड़ दिया गया था, लेकिन इस तरह के आंदोलन का असर आज तक महसूस किया जाता है। यह बात सही है कि अभी भी स्थानीय स्तर पर मन्दिर प्रवेश को लेकर विवाद की ख़बरें आती हैं, फिर भी यह अब पूरे प्रदेश की समस्या नहीं है। इसके लिए गांधी, विनोबा की सर्वोदय की वैचारिकी को श्रेय दिया जाना चाहिए।

इसी तरह शराबबंदी के ख़िलाफ़ जहां भी आवाजें उठती हैं, उनके पीछे गांधी और विनोबा की वैचारिकी और गांधीवादी कार्यकर्ताओं की शक्ति रहती है। इधर के वर्षों में गांधीजनों द्वारा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए किये जाने वाले रचनात्मक कार्यों में कमी आई है, बड़ी संख्या में ग्रामीण क्षेत्र से शहरों को जनसंख्या का पलायन हुआ है, जो आज की अनेक समस्याओं का कारण है। ऐसे में गांधी की विकास की अवधारणा, विशेषकर ग्रामीण विकास की अवधारण को पुनः समझने और उस पर चलने की ज़रूरत है।

-इस्लाम हुसैन

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