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वैश्विक मंदी का भारत पर क्या होने वाला है असर?

अमरीका की आर्थिक मंदी पूरे विश्व में, खासकर भारत जैसे विकासशील देश में आर्थिक मंदी को उत्प्रेरित करने वाली ताकत क्यों और कैसे बन जाती है? यही नहीं, अमरीका की आज की मंदी अपनी ही 1929 की मंदी और 2008 के वित्तीय मेल्ट डाउन से कितनी भिन्न है? अमरीका की आज की मंदी 1929-30 की महामंदी में बुरी तरह पिटे हुए जर्मनी के हालात के आसपास भी नहीं आ सकती, आखिर क्यों? जबकि अमरीका ने जर्मनी की तरह ही अपनी लिक्विडिटी को बढ़ाया है! मतलब अमरीकी डॉलर के कुल परिमाण से बनी उसकी ग्लोबल लिक्विडिटी वैश्विक मंदी की उत्प्रेरक क्यों है? आइये, इन तमाम प्रश्नों पर बिन्दुवार नजर डालते हैं।

वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ और अब भारत के रिज़र्व बैंक से भी खबर आ रही है कि पूरा विश्व आर्थिक मंदी की दहलीज पर खड़ा है और कम से कम 2023 का साल इस मंदी की चपेट से बच नहीं सकता। इस मंदी का जन्म यूरोपीय देशों की आर्थिक उथल-पुथल और सबसे ज्यादा अमरीका की अर्थव्यवस्था से हुआ है, जिसने कोविड के गाढ़े दिनों में तीन ट्रिलियन अतिरिक्त डॉलर छापकर अपनी अर्थव्यवस्था में लिक्विडिटी को सिर्फ इसलिए बढ़ाने का खतरा मोल लिया कि अपने देश की बेरोजगारी संभालना उसकी प्राथमिकता थी, उसे अपने बैंक और इंश्योरेंस बचाने थे, और यह तब था, जब बाजार कोविड के लोकडॉउन से बेजार था।

इस हिंसाब से जब अमरीका की अर्थव्यवस्था में बढ़ी हुई तीन ट्रिलियन डॉलर की इस अतिरिक्त लिक्विडिटी ने पहले मंहगाई और फिर आर्थिक मंदी के रूप में पूरे विश्व को अपनी चपेट में लिया है, तो अमरीका की घरेलू आर्थिक मंदी ग्लोबल होकर आखिर डरा क्यों रही है? क्या अमरीका अपनी मंदी का निर्यात पूरे विश्व को करता रहेगा? अमरीका के घरेलू आर्थिक हालात सिर्फ मंहगाई से त्रस्त हैं, लेकिन चीन के हालात तो 2008 के उस अमरीकी वित्तीय मेल्ट डाउन के बराबर हैं, जो विश्व मंदी की सबसे ताजातरीन घटना है, लेकिन चीन अपने इस आर्थिक ध्वंस को जज्ब किये बैठा है।

असल में अमरीका और चीन का यह फर्क ट्रेडिंग इकॉनॉमी और विनिमय इकॉनॉमी का आधारभूत फर्क है। अमरीका के कंज्यूमर बेस से चीन का कंज्यूमर बेस पांच गुणा बड़ा है। अमरीका की इकॉनॉमी करीब 22 ट्रिलियन डॉलर की है, इस साल की पहले तिमाही में उसकी जीडीपी 1.6% गिरी, फिर दूसरी तिमाही में लगभग 1% गिरी। अर्थशास्त्री ये मानते हैं कि जब लागातार दो तिमाही में जीडीपी के आंकड़े ढलान पर दिखें तो मान लेना चाहिए कि मंदी दस्तक देने लगी है। वस्तुओं और सेवाओं की प्रचुरता और मांग में कमी को आर्थिक मंदी की मुकम्मल तस्वीर माना जाता है।

अमरीका में वस्तु की कोई कमी नहीं है, रोजगार की कमी नहीं है फिर मांग में कमी क्यों हो गई? अमरीका से तो बेरोजगारी के हृदयविदारक आंकड़े भी नहीं आये हैं! 2019 में अमरीका की बेरोजगारी जहाँ 14% थी, वह अब 2022 में मात्र 3.5% ही रह गयी है। इस तरह बेरोजगारी, मांग में कमी का कारण बनती नहीं दिख रही है। मतलब अमरीका के घरेलू बाजार में कोई मंदी नहीं है। हाँ मंहगाई जरूर है, जो उसकी बढ़ी हुई आय और बढ़ी हुई लिक्विडिटी का परिणाम है।

अब यहीं पर यह समझ लेना जरूरी है कि अमरीका की आर्थिक मंदी पूरे विश्व में, खासकर भारत जैसे विकासशील देश में आर्थिक मंदी को उत्प्रेरित करने वाली ताकत क्यों और कैसे बन जाती है? यही नहीं, अमरीका की आज की मंदी अपनी ही 1929 की मंदी और 2008 के वित्तीय मेल्ट डाउन से कितनी भिन्न है? अमरीका की आज की मंदी 1929-30 की महामंदी में बुरी तरह पिटे हुए जर्मनी के हालात के आसपास भी नहीं आ सकती, आखिर क्यों, जबकि अमरीका ने जर्मनी की तरह ही अपनी लिक्विडिटी को बढ़ाया है! मतलब अमरीकी डॉलर के कुल परिमाण से बनी उसकी ग्लोबल लिक्विडिटी वैश्विक मंदी की उत्प्रेरक क्यों है? आइये, इन तमाम प्रश्नों पर बिन्दुवार नजर डालते हैं।

33 करोड़ 50 लाख की जनसंख्या वाले अमरीका की इकॉनॉमी कुल करीब 22 ट्रिलियन डॉलर की है, जिसमें सरकार के बजट की सुदृढ़ रीढ़ ही तकरीबन 6 ट्रिलियन डॉलर की है। मतलब 6 ट्रिलियन डॉलर की घरेलू कमाई और व्यय उसके अपने हाथ में है। अमरीकी लिक्विडिटी का सिर्फ 30% हिस्सा ही अमरीका के घरेलू बाजार में है, बाकी 70% हिस्सा पूरे विश्व की इकॉनॉमी में घूम रहा है।

इस डॉलर की धमक देखिये कि किसी भी देश को अपने फॉरेन रिज़र्व का 60% हिस्सा अमरीकी डॉलर के रूप में रखना पड़ता है, प्रतिभूतियों और बॉन्ड तक के लिए डॉलर को निमंत्रण है।

बचत की चिंता से मुक्त ‘कमाओ और खर्च करो’ की नीति पर चलते अमरीकी जनजीवन की इस चलन ने उसके अपने घरेलू बाजार को एक ऐसी स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है कि एक तरफ उसके घरेलू उपभोक्ता जीवन की तमाम भौतिक सुख सुविधाओं से संतृप्त हैं, तो दूसरी ओर वहां उद्योग और ट्रेड की भूख मांग के रूप में ज्यों की त्यों बनी हुई है। तो अब सवाल है कि अमरीका क्या निर्यात करे, जिससे उसके अपने उद्योग को मांग की कमी न झेलनी पड़े। उपभोक्ता सामानों की स्थिति ऐसी है कि इन वस्तुओं का महाकाय प्रतियोगी चीन खड़ा है।


निर्यात अमरीकी इकॉनॉमी का एक आवश्यक घटक है, ताकि उसके उद्योगों को मांग की कमी से दो चार न होना पड़े, अन्यथा उसकी लिक्विडिटी का आसमान छोटा पड़ जायेगा और मंदी का खतरा हमेशा सर पर सवार रहेगा। हालांकि अमरीका आज ग्लोबल मीडियम ऑफ एक्सचेंज के निमित्त सीधे डॉलर का भी निर्यात करने में समर्थ है। एक उदाहरण देखें, कच्चे पेट्रोलियम का उत्पादन सऊदी अरब करता है, उसका खरीदार भारत है और यह खरीदारी हो रही है अमरीकी डॉलर में। अब अगर भारत के पास कमाये हुए डॉलर नहीं हैं तो भारत को पहले डॉलर खरीदने हैं। अभी हाल के दिनों में चाहे जिस भी देश की कर्रेंसी के भाव गिरे हैं, उसका मुख्य कारण यही रहा है। अमरीकी डॉलर के भाव पिछले साल के इसी महीने के बेस पर जो 22% बढ़े हैं, वह ऐसे ही नहीं हुए हैं।

हालांकि अमरीकी उद्योग धंधों को पेटेंट का डिविडेंट यानी बिना पेटेंट के उद्योग लगाने से होने वाली कमाई का एक जबरदस्त नुस्खा हाथ लगा है। इससे उसे ग्लोबल ट्रेडर की हैसियत मिल गयी है। हर्रे लगे न फिटकरी और रंग चोखा वाला हाल है, यद्यपि पेटेंट के इस धंधे से होने वाले मुनाफे का अनुपात डॉलर से बनी उसकी ग्लोबल लिक्विडिटी के अनुपात में बहुत कम है। बिल गेट्स का माइक्रो सॉफ्ट इसका जबरदस्त उदाहरण है, जिसकी कमाई उसे विश्व का पहला-दूसरा धनाढ्य बनाये रखती है। कुल मिलाकर अपने मीडियम ऑफ एक्सचेंज की अकूत क्षमता और ग्लोबल स्वीकार्यता के बल पर डॉलर अमरीकी उद्योग का एक ऐसा उत्पाद है, जिसे विश्व भर में घूम घूम कर केवल मुनाफ़ा कमाना है। इस डॉलर को किसी देश में कर्ज के रूप में प्रगट होना है, तो किसी देश में वस्तु या सेवा के रूप में, किसी देश में उसके घरेलू बॉन्ड के रूप में तो किसी देश में प्रतिभूति के रूप में। लेकिन ये डॉलर चाहे किसी भी रूप में प्रगट हो, इसकी प्राथमिकता मुनाफ़ा कमाना ही है।
अब चूंकि हमारे फॉरेन रिज़र्व का एक बड़ा हिस्सा पेट्रोलियम के आयात में खर्च होता है, इसलिए आयात के लायक फॉरेन रिज़र्व का नहीं होना या कम होना हमें बाध्य करता है कि जरूरत पड़ने पर हम डॉलर खरीदते रहें।

ऐसी परिस्थिति बराबर आती रहती है कि हमारे कमाये हुए डॉलर हमारे जरूरत के आयात के लिए कम पड़ जाते हैं और हमें बार-बार डॉलर खरीदना पड़ता है, इस तरह हम ही नहीं, दुनिया के ज्यादातर देश डॉलर की मांग को हमेशा बनाये रखने के लिए बाध्य रहते हैं।

एक तरफ डॉलर की खरीदारी और दूसरी तरफ रूपये के लिए डॉलर की आपूर्ति में अभी हाल ही में आरबीआई द्वारा एक सौ मिलियन डॉलर खर्च कर देने के बावजूद एक डॉलर 83 रुपया के पार पहुंच गया। अभी हाल ही में जापान, जो जी-7 की संधि से अभी तक बंधा हुआ था, उसने 1.7 बिलियन डॉलर का अपना फॉरेन रिज़र्व, बाजार में छोड़कर भारत के तरह ही अपनी मुद्रा येन को बचाने का प्रयास किया तो आमरीका को झटका लगा, डॉलर से बनी ग्लोबल लिक्विडिटी ग्लोबल उत्पादन से पहले की स्थिति के समानुपाती रहने से संदेह के घेरे में आ गई। अब अगर यही काम चीन कर दे तो डॉलर की ग्लोबल साख एकदम खतरे में पड़ जायेगी। चीन के पास भी डॉलर का अकूत भंडार है। ये मामला डॉलर की मांग और पूर्ति का ही है, लेकिन इसके पीछे पूरी अमरीकी राजनीति और उसके उद्योगों की व्यापक तैयारी रही है।

इसमें बहुत कारगुजारी होती है, जिसमें वियतनाम से होते हुए इराक पर रासायनिक हथियारों के आरोप में कहर बरपाने से लेकर अभी रशिया यूक्रेन युद्ध तक की ताजा घटनाएं, सबकुछ शामिल है। प्रथम विश्व युद्ध से भी बढ़कर द्वितीय विश्व युद्ध में अमरीकी उद्योग की बंपर कमाई, सोने के आठ हजार मैट्रिक टन के अपार भंडार पर डॉलर के भरोसे की अकूत कमाई और डॉलर की ग्लोबल स्वीकार्यता स्थापित हो जाने के बाद बिना स्वर्ण भंडार के डॉलर की ग्लोबल स्वीकार्यता को बनाये रखने की गहरी चालबाजी, सब कुछ शामिल है इसमें। यह भी याद करना लाजमी होगा कि 1985 में प्लाजा समझौते के तहत अमरीका ने जापान, यूके, फ्रांस के साथ मिलकर अपने ही डॉलर को 50% डीवैलूएट कर ग्लोबल इकॉनॉमी में अपनी धाक जमाई।

इस तरह अमरीका की सुपीरियोरिटी का हथियार वास्तव में डॉलर ही है, जिसका पूरे वर्ल्ड ट्रेड में 85% का हिस्सा है, अगर डॉलर पर कोई खतरा होगा तो इससे पूरा ग्लोबल ट्रेड, ग्लोबल इकॉनॉमी ही खतरे में आ जाएगी। 2023 के लिए ग्लोबल जीडीपी की ग्रोथ, पूर्व के लगभग 4% के अनुमान को आईएमएफ अब 3% पर यूं ही लेकर नहीं आया है! आखिर किसी देश को अपने फॉरेन रिज़र्व में अमरीकी डॉलर को 60- 66% क्यों रखना पड़ता है? आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक का कर्ज अकेले डॉलर के रूप में 39% क्यों होता है? अमरीका और अमरीकी डॉलर असल में चाहते क्या हैं, इन बैटन का जवाब एकदम खुली किताब की तरह है। विकासशील देश कर्ज लें। विकासशील देश टेक्नोलॉजी खरीदें।

विकासशील देश अपने घरेलू बाजार को जिसमें सबसे अहम पूंजी बाजार है, उसे खुला छोड़ दें, जिससे पोर्टफोलियो इनवेस्टमेंट के जरिये, बिना किसी उद्योग धंधे के इनका डॉलर इनवेस्ट होता रहे और मुनाफ़ा लेकर चंपत होता रहे।

पोर्टफोलियो इनवेस्टमेंट एक तरह का FDI है, जो विदेशी संस्थाओं द्वारा भारत के शेयर बाजार में करोड़ों करोड़ इनवेस्ट होता है और जब शेयरों के दाम बढ़ जाते हैं तो इनवेस्टर मुनाफ़ा लेकर चंपत हो जाता है। इससे सरकार के खाते में भारी भरकम FDI जरूर हासिल हो जाता है, लेकिन देश को जिस अहम चीज की दरकार होती है, वह रोजगार है जिससे इस तरह के मौसमी इनवेस्टमेंट का कोई लेना देना नहीं होता है। आईएमएफ अभी खुद स्वीकार कर रहा है कि विकासशील देशों के पूंजी बाजार से करोड़ों डॉलर का आउट फ्लो हुआ है, जो कल तक इनवेस्टमेंट था, आज वो मुनाफ़ा बनकर गायब हो गया।

भारत जैसे विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था के अपने अलग चैलेंज हैं।

ग्लोबलाइजेशन ने चाहे हमें कितनी भी पूंजी दी हो, वह पूंजी इस मामले में आवारा रही कि उसने हमारी इकॉनॉमी को उत्पादन का आधार तक नहीं दिया, जबकि यहां मजदूरी अपेक्षाकृत सस्ती और बाजार व्यापक था, रुपया डॉलर के मामले में हमेशा से कमजोर मतलब निर्यात के लिए उपयुक्त था! नतीजतन निर्यात से दुगना तीनगुना आयात हुआ, जिसके चलते भारी ट्रेड डेफिसिट दर्ज हुई। हमारे अपने कुल बजट का 25% तो लिये हुए कर्ज का सूद चुकाने में ही चला जाता है, बजट घाटा और ट्रेड डेफिसिट मतलब निर्यात से ज्यादा आयात।

एक दूसरी विपदा अपने यहाँ यह रही है कि हम 2016 से अपनी इकॉनॉमी को बिना सूझ-बूझ के निर्णयों से लगातार चोट देते आ रहे हैं। नोटबंदी, दूसरा कोविड और अब परिणाम स्वरूप 45 साल की रिकॉर्डतोड़ बेरोजगारी! आलम यह है कि सरकार को देश के अस्सी करोड़ लोगों को खाद्य सुरक्षा देने का दावा करना पड़ रहा है। ऐसे में एक वाजिब सवाल यह है कि हमारे अनुमानों में वैश्विक मंदी की जो दस्तक है, वह भारत में क्या कहर बरपायेगी?

अव्वल तो भारत में मंदी है कहाँ, पहले ये जान लिया जाये, मंदी हमारे भारत के निचले और मध्यम वर्ग पर सीधे उतनी असरदार नहीं है, जितनी अमरीकी पूंजी पर, जिसे यहां के शेयर बाजार में इनवेस्ट करने और मुनाफ़ा लेकर चंपत हो जाने का चस्का लगा है। भारत में अभी रेपो रेट घटाने का क्रम एकदम तर्कसंगत है, रेपो रेट और घटेंगे जिससे कर्ज महंगे होंगे, जीडीपी गिरेगी, विनिमय गिरेगा, बाजार संकुचित होगा और रोजगार भी जायेंगे ही।

सेवा सेक्टर की नौकरियां इस मंदी की सबसे सॉफ्ट टार्गेट होगीं, जबकि बड़े पैमाने पर फॉरेन करेंसी इसी सेक्टर से आती है। अनुमानित मंदी में पूर्व की तरह अगर पेट्रोलियम के दाम 90 डॉलर प्रति बैरल से कम भी हुए, तो भी भारी बजट घाटा झेलती हमारी सरकार पेट्रोल, डीजल और सीएनजी के दाम कम नहीं करेगी, और इस तरह पूंजी और नये उद्योगों की सम्भावना पर सीधा ग्रहण लगेगा।

जब हमारे घरेलू बाजार में ही मांग और रोजगार के लाले पड़े हुए हैं, तो हम विदेशी पूंजी की खपत की गुंजाइश कहां से करें। हमारे हालात जैसे हैं, वैसे हैं! हम चूंकी विदेशी पूंजी, खासकर अमरीकी डॉलर के इंवेस्टमेंट और मुनाफे की गुंजाइश नहीं रखते, इसलिए ये विश्वव्यापी आर्थिक मंदी की स्थिति है, ऐसा हमें मानना पड़ेगा। वैसे हमारे देश में मंहगाई और बेरोजगारी के जो भी कारण हैं, उनका समाधान विदेशी पूंजी से होने वाला होता तो विश्वव्यापी मंदी की नौबत आती ही नहीं। बहुत सीधी-सी बात है कि रोजगार का संकट अगर इस रूप में सामने हो कि 80 करोड़ जनता को खाद्य सुरक्षा देनी पड़ रही हो, तो वहां जीवन का स्तर कैसा होगा!

हम तो इस हाल में हैं कि-
मैं तो चाह कर भी उसे कुछ न दे सका हारिस,
वो भाव पूछकर मेरी दूंका से लौट गया ‘।

-जितेश कांत शरण

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