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वारिस की खोज में एक वसीयत

प्रश्नों के उत्तर इस विश्लेषण में भी हैं कि इस नये साल में कुछ पुरानी आफतें बढ़ने वाली हैं: अधिक मंहगाई, अधिक बेरोज़गारी, अमीरी-गरीबी के बीच अधिक बड़ी खाई के साथ-साथ वैश्विक तापमान व मौसम में ज्यादा उठापटक। सबसे बुरी बात यह कि इन सभी का सबसे बुरा असर सबसे गरीबों, कमज़ोरों के साथ-साथ मार्ग तलाशते हमारे युवाओं पर पड़ने वाला है। वर्ष-2023 में वर्तमान के इस परिदृश्य को सामने रखिए और गांधी द्वारा तैयार कांग्रेस संविधान के मसौदे के एक-एक प्रावधान को पूरी सावधानी से पढ़िए। समझना आसान हो जाएगा कि गांधी बार-बार क्यों जिंदा हो उठते हैं। वसीयत क्यों चाहती है वारिस?

हम वर्ष 2023 में हैं जो गांधी का 155 वां ‘जयंती वर्ष’ भी है और 75 वां ‘पुण्यतिथि वर्ष’ भी। हालांकि, गांधी का वसीयतनामा लंदन से सटे शहर लडलो के रेसकोर्स में कभी का नीलाम किया जा चुका है; फिर भी एक बार फिर उस पर चर्चा करें। हम सोचें कि गांधी द्वारा गुजराती में लिखे दो-पेज के मसौदे को उनके सहयोगियों ने ‘हरिजन’ में ‘गांधी जी की अंतिम इच्छा व वसीयत’ शीर्षक से प्रकाशित क्यों कराया? गांधी, कांग्रेस संविधान का नया मसौदा क्यों लिख रहे थे? वे क्यों चाहते थे कि कांग्रेस लोगों की सेवा करने वालों के संघ के रूप में तब्दील हो जाए?

वे क्यों चाहते थे कि ‘लोक सेवक संघ’ के रूप में तब्दील होने पर कांग्रेस अपने मिशन की पूर्ति के लिए ग्रामीणों व अन्य लोगों के बीच से धन जुटाये तथा ग़रीब आदमी के पैसे की वसूली पर विशेष ज़ोर हो। गांधी सैन्य-शक्ति पर नागरिकों की प्रधानता के लिए संघर्ष में लोकतांत्रिक लक्ष्य की दिशा और भारत की प्रगति क्यों देखते थे? उन्होंने इस सबको राजनीतिक दलों और सांप्रदायिक निकायों के साथ अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा से दूर रखने के लिए क्यों कहा था? सबसे बड़ा प्रश्न यह कि गांधी ने सात लाख गांवों के संदर्भ में ही क्यों कहा कि उनकी सामाजिक, नैतिक व आर्थिक आज़ादी हासिल करना अभी बाकी है; नगरों और कस्बों के बारे में क्यों नहीं?

इन प्रश्नों का उत्तर तलाशने के लिए 2023 के वातावरण में ही देखना होगा। क्या विरोधाभासी स्थिति है! मानसिक तौर पर बीमार कर देने वाली दलगत व सांप्रदायिक प्रतिस्पर्धाओं और खेमेबंदियों ने मीडिया, फिल्म, खेल व बौद्धिक जगत की हस्तियों से लेकर आमजन तक को अपना औजार व शिकार दोनों बनाया हुआ है। यह वैश्विक तापमान से धधकते, सूचना-प्रौद्योगिकी के पीछे भागते तथा दरकते रिश्तों का समय है और हम हैं कि ‘गांधी-गोडसे : एक युद्ध’ जैसी फिल्म लेकर आ रहे हैं। गलाकाट बाज़ारू प्रतियोगिता और बेईमानी ने छोटी काश्तकारी को जिस मुकाम पर पटक दिया है; वह किसी से छिपा नहीं है। पढ़ाई व नौकरियों में ‘नंबर दौड़’ तथा दवाई व इलाज़ में सीधे डकैती की मार सब पर है।

प्रश्नों के उत्तर इस विश्लेषण में भी हैं कि इस नये साल में कुछ पुरानी आफतें बढ़ने वाली हैं: अधिक मंहगाई, अधिक बेरोज़गारी, अमीरी-गरीबी के बीच अधिक बड़ी खाई के साथ-साथ वैश्विक तापमान व मौसम में ज्यादा उठापटक। सबसे बुरी बात यह कि इन सभी का सबसे बुरा असर सबसे गरीबों, कमज़ोरों के साथ-साथ मार्ग तलाशते हमारे युवाओं पर पड़ने वाला है। वर्ष-2023 में वर्तमान के इस परिदृश्य को सामने रखिए और गांधी द्वारा तैयार कांग्रेस संविधान के मसौदे के एक-एक प्रावधान को पूरी सावधानी से पढ़िए। समझना आसान हो जाएगा कि गांधी बार-बार क्यों जिंदा हो उठते हैं। वसीयत क्यों चाहती है वारिस?

वसीयतनामे में एक-एक शब्द के रूप में गांधी खुद मौजूद हैं, यह बताने के लिए कि वे अपने समय से बहुत आगे का विचार थे। गांधी जानते थे कि नगर सुविधाओं की बौछार कर सकते हैं, किन्तु बगैर गांवों के टिक नहीं सकते। साफ हवा, पानी, भोजन, प्राकृतिक आवास, स्वास्थ्य, संस्कार और सामुदायिकता जैसी बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति गांव ही कर सकते हैं। वे यह भी जानते थे कि हवा-पानी-मिट्टी ही वे फैक्टरी हैं, जिनमें डाला एक बीज कई गुना होकर वापस लौटता है। किसानों व कारीगरों की उंगलियां ही ऐसा सामुदायिक औज़ार हैं, जो बगैर किसी प्रतिस्पर्धा में फंसे व्यापक रोज़गार व सभी के लिए समृद्धि को टिकाये रख सकती हैं।


गांधी की ‘नई तालीम’ इसे ही मज़बूत करना चाहती थी। वे जानते थे कि ‘ग्राम-स्वराज’ के उनके मंत्र में गांवों को बाज़ार, सरकार, परावलम्बन व वैमनस्य से आज़ाद बनाये रखने की शक्ति है। आर्थिक लोकतंत्र के बिना सामुदायिक व राजनीतिक लोकतंत्र अधूरा रहने वाला है। उन्हें यह भी पता था कि गांवों को अपनी इस शक्ति को बरकार रखने के लिए नैतिक क्षमताओं को बराबर बढ़ाते रहना होगा। इसीलिए गांधी ने अंग्रेजी साम्राज्य से आज़ादी के बाद के केन्द्र में गांवों को रखा।

गांधी जी साम्राज्यवाद और सामंतवाद दोनों के घोर विरोधी थे। वे जानते थे कि साम्राज्यवाद व सामंतवाद कमज़ोर के शोषण पर पनपने वाली अमरबेलें हैं। ये ऐसी हिंसक प्रवृतियां हैं जो मरती नहीं; सिर्फ कमज़ोर पड़ सकती हैं। भारत आज़ाद हो गया तो क्या; अनुकूल परिस्थितियां पाते ही ये किसी-न-किसी शक्ल में फिर बलवती होंगी। वे जानते थे कि ऐसा हुआ तो सबसे पहले दुष्प्रभावित़ गांव, गरीब और कमज़ोर ही होगा।

आज ऐसा ही हो रहा है। पानी, किसानी, जवानी को अपने उत्थान के लिए आंदोलन करने पड़ रहे हैं। अमीरी-गरीबी की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। आर्थिक व लोकतांत्रिक परिसरों में सामंतवाद व साम्राज्यवाद दोनों की नई हनक पूरी बेशर्मी के साथ सुनाई दे रही है। गांधी ने इसीलिए कांग्रेस संविधान का नया मसौदा लिखा कि वे कांग्रेसी कार्यकताओं को स्वायत्त निकायों से जोड़कर सेवा संस्कार के ऐसे अग्निकुण्ड में उतार देना चाहते थे, जिसमें जलने के बाद या तो सूरज बनकर संसार को प्रकाशित किया जा सकता है अथवा भस्म होकर खाद बनकर।

गांधी की यह जिद्द कदापि नहीं होगी कि कांग्रेस उनके मसौदे को जस-का-तस अपना ले, किन्तु उस वक्त यदि कांग्रेस अपने संविधान के गांधी-मसौदे पर गंभीर हुई होती तो ‘कांग्रेस सेवा दल’ और ‘राजीव गांधी पंचायती-राज संगठन’ के रचनात्मक कार्यक्रम गांव-गांव में सराहे जा रहे होते। कांग्रेस – कोई एक दल न होकर, ज़मीनी रचनात्मक कार्यकर्ताओं का एक ऐसा समुदाय बन गया होता, जो भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में से सत्ता और प्रजा के भाव को कम ही करता; अधिक नहीं। कांग्रेस को देश जोड़ने और पार्टी को मज़बूत करने के लिए आज यात्रा करने की ज़रूरत न पड़ती। तोड़क चिंगारियां कभी उठती भीं तो भारत का समाज ही उसे बुझा देता।

यदि कांग्रेस ने अपने आंतरिक चुनाव के लिए गांधी-मसौदे की पालना तय कर ली होती तो आज किसी भी दल द्वारा टिकटों के बंटवारे के तौर-तरीके व चुनावों को जीतने की कवायद इतनी बुरी न होती। दुखद है कि चुनावों को जीतने के लिए अपनाये जा रहे हथकण्डों ने आज हमारे गांवों, समुदायों, यहां तक कि परिवारों में भी मनभेद पैदा कर दिए हैं। चुनाव आयोग तक पर उंगलियां उठ रही हैं।

सेवा, सहकार और सह-अस्तित्व की बुनियाद पर खड़ा गांधी विचार यह करा सकता है। कांग्रेस चाहे तो अभी भी गांधी के सपनों का हिंदोस्तान बनाने की राह अपना सकती है। कठिन है, लेकिन नामुमकिन नहीं। यदि कांग्रेस संविधान के गांधी मसौदे मात्र को ही अपना संविधान बना लें; उसे पूरी ईमानदारी, सातत्य, सादगी व सेवाभाव के साथ अमल में उतारने की सामुदायिक कोशिश करें तो मौजूदा चुनौतियों के समाधान संभव हैं।

स्वयंसेवी जगत को एक बार फिर नए सिरे से पहल करनी होगी। बाहरी पहल से पहले अपनी सफाई करनी होगी। सर्वप्रथम वही कार्य, उसी समुदाय के बीच करना होगा, जिसे उसकी ज़रूरत है। उसी तरीके से करना होगा, जिससे वह समुदाय लम्बे समय तक उस कार्य के लिए किसी बाहरी संगठन पर आश्रित न रहे; सामुदायिक तौर पर परस्परावलंबी बन जायें। वसीयतनामे का एक संकेत स्पष्ट है कि आंदोलन को प्रचार आवश्यक है; रचनात्मक कार्य को प्रचार से दूर रहना चाहिए। रचना के लिए राजमार्ग नहीं, पगडण्डी ही अच्छी होती है। सीख साफ है कि रचनात्मक कार्य में लगे संगठनों को अपने बैनर को पीछे, कार्य व समुदाय को आगे रखना चाहिए।

स्वयंसेवी संगठनों को संसाधनों की शुचिता का ख्याल रखना होगा। अन्य स्त्रोतों से सशर्त मिल रहे संसाधनों को लेना बंद करना होगा। स्वयंसेवी संगठनों को अपने मिशन की ज़रूरत के संसाधनों को उन्हीं समुदायों के बीच से जुटाना चाहिए, जिनके बीच वे कार्य कर रहे हैं। ये सब करते हुए संगठनों को सेवाग्राम की नींव रखने आये गांधी के उस संबोधन तथा ‘बापू कुटी’ की सादगी व उपयोग करने वाले अनुशासन को नहीं भूलना चाहिए, जो सामाजिक कार्यकर्ताओं को गांवों में एक शिक्षक अथवा अपनी मंशा थोपने वाले की तरह नहीं, एक सेवक की तरह जाने का आह्वान करता है; उन्हें अपनी वसीयत का गांधी बनते देखना चाहता है। (सप्रेस)

-अरुण तिवारी

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