प्रारब्ध
18 मार्च 1974 को पटना में विधान सभा के घेराव, घेराव में शामिल बिहार भर से आये हजारों-हजार छात्रों (उस समय झारखंड और बिहार एक ही था) पर गोलीबारी, दमन से शुरू हुआ आन्दोलन सम्पूर्ण क्रांति का आन्दोलन नहीं था। बिहार के छात्रों ने पटना विश्वविद्यालय के आह्वान पर आहूत प्रदेश स्तरीय छात्र नेता सम्मेलन में ‘छात्र संघर्ष समिति’ नामक एक छात्र-युवा मंच का गठन 11 फरवरी 1974 को किया था। इस सम्मेलन में दस सूत्री मांग-पत्र का प्रस्ताव तैयार हुआ था। प्रमुख मांगें थीं- भ्रष्टाचार खत्म हो, महंगाई पर रोक लगे, शिक्षा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन हो, बेरोजगारी समाप्त हो, पठन-पाठन सामग्री सस्ते में उपलब्ध कराई जाय, छात्रावासों का किराया कम किया जाय आदि। 18 मार्च 1974 से लेकर बाद के कुछ महीनों तक ‘गुजरात की जीत हमारी है, अब बिहार की बारी है’ का नारा बिहार आन्दोलन का प्राथमिक नारा हुआ करता था। गुजरात के छात्र आन्दोलन के परिणामस्वरूप वहां की विधान सभा भंग हुई थी। बिहार के छात्रों को इससे प्रेरणा मिली। इस कारण 18 मार्च की गोलीबारी और दमन के कारण छात्र संघर्ष समिति ने विधान सभा भंग करो की मांग शुरू कर दी। 18 मार्च के बाद पूरे बिहार में सरकारी तंत्र, पुलिस, केन्द्रीय पुलिस बल के द्वारा जबर्दस्त दमन चक्र चला। बेतिया, गया आदि कई जिलों में गोलियां चलीं थीं, जिनमें कई छात्र मारे गये थे। इस दमन का सामना कर पाना और आन्दोलन को आगे बढ़ा पाना छात्र संघर्ष समिति के नेतृत्व के लिए असंभव हो चला था। संघर्ष समिति के नेता जेपी के पास मार्ग दर्शन के लिए पहुंचे और उनसे अपने आन्दोलन का नेतृत्व संभालने का आग्रह किया। उल्लेखनीय है कि गुजरात आन्दोलन के क्रम में ही जेपी ‘यूथ फॉर डेमोक्रेसी’ का आह्वान कर चुके थे। काफी विचार विमर्श के बाद जेपी ने अपनी शर्त पर नेतृत्व संभालना स्वीकार किया। उनकी पहली शर्त थी कि यह आन्दोलन पूरी तरह शांतिपूर्ण होगा और दूसरी शर्त थी कि आन्दोलन संबंधी कार्यकमों का निर्धारण आप सभी करेंगे, पर अंतिम निर्णय मेरा होगा। छात्र संघर्ष समिति के नेताओं ने उनकी शर्तें मान लीं और जेपी ने छात्र आन्दोलन का नेतृत्व स्वीकार कर लिया।
आन्दोलन में जेपी का पदार्पण
पुलिसिया दमन के विरोध में मुंह पर काली पट्टी बाँधकर अपने सहयोगी सर्वोदय के पुराने साथियों के साथ पहली बार जेपी सड़क पर उतरे। आतंक और भय के माहौल में कोई छात्र नेता उसमें शामिल नहीं हुआ। दमन से वीरान पड़ी पटना की सड़कों पर जन सैलाब उमड़ पड़ा। इस जुलूस के पहले संघर्ष समिति के आह्वान पर प्रत्येक जिला मुख्यालय पर क्रमिक अनशन का कार्यक्रम चल रहा था, जिसकी मांगों में महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी आदि के अलावा ‘बिहार विधान सभा भंग करो’ की मांग प्रमुख रूप से शामिल थी। 8 अप्रैल 74 के बाद जिले और प्रखंड स्तरीय सरकारी दफ्तरों के प्रभावकारी घेराव का कार्यक्रम पूरे बिहार में सफल रहा। सरकार की बौखलाहट बढ़ती जा रही थी। इसी बौखलाहट में मई माह के प्रथम सप्ताह में गया में पुलिस द्वारा जबर्दस्त गोलीबारी की गई, जिसमें कई लोग मारे गये। गया गोलीकांड ने जेपी को विचलित कर दिया। उन्होंने ट्रेन से गया जाना तय किया। उनकी यह ऐतिहासिक यात्रा थी। गया जाने वाली पैसेंजर ट्रेन, जो लगभग तीन घंटे में पहुंचती थी, उस दिन सात घंटे में पहुंची। ट्रेन अंदर, बाहर, यहाँ तक कि छतों से लेकर इंजन तक लोगों से भरी हुई थी। गया गोलीकांड की क्रूरतम वास्तविकता जानकर जेपी द्रवित हो उठे। इस भयंकर रक्तपात के बाद उन्होंने भी विधानसभा भंग करने की मांग को अपना समर्थन घोषित कर दिया।
जेपी को अपने हृदय रोग के इलाज के लिए वेल्लोर जाना था। उन्होंने छात्र संघर्ष संचालन समिति के साथ बैठक कर पांच सप्ताह का कार्यक्रम तय किया और उसे पूरा करने के लिए बिहार भर के छात्रों का आह्वान किया। इसमें सबसे प्रमुख कार्यक्रम था- विधानसभा भंग करने के समर्थन में जनता के बीच हस्ताक्षर अभियान चलाना और उसे संग्रहित कर राज्य स्तर पर जमा करना। विधान सभा भंग करने की मांग के समर्थन में प्रत्येक जिले और गांवों तक से हस्ताक्षर आने शुरू हो गये। हस्ताक्षर ट्रकों में भर-भर कर छात्र संघर्ष समिति के राज्य कार्यालय पटना पहुंचे।
सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान
5 जून 1974 वह ऐतिहासिक दिन था, जब जेपी के नेतृत्व में इन हस्ताक्षरों के बंडल बिहार के राज्यपाल को सौंपे गये। इस रैली में बिहार भर से लाखों की संख्या में छात्र शामिल थे। गांधी मैदान से राजभवन की दूरी लगभग 5 किलोमीटर है। जेपी जब पंक्तिबद्ध जुलूस के पहले सिरे पर नेतृत्व करते हुए राजभवन पहुंचे, उस समय तक दो जिलों के जत्थे अभी गांधी मैदान से निकल भी नहीं पाये थे। प्रदर्शनकारियों पर लौटते समय ‘इन्दिरा ब्रिगेड’ नामक संगठन के लोगों ने गोली भी चलायी, पर कोई खास क्षति नहीं हुई और न ही छात्र उत्तेजित हुए। यह जेपी के नेतृत्व और उनको दिये गये वचन का ही प्रभाव था।
लगभग तीन बजे अपराह्न में गांधी मैदान में वह विशाल सभा हुई। भयंकर गर्मी के बाद अचानक आंधी पानी की शुरुआत हो गई। उस तूफानी संध्या में लाखों की सभा को संबोधित करते हुए जेपी ने पहली बार ‘सम्पूर्ण क्रांति’ की उद्घोषणा की। महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और शिक्षा में सुधार की मांगों का समर्थन करते हुए जेपी ने कहा कि ये मांगे तब तक पूरी नहीं हो सकतीं, जब तक सम्पूर्ण व्यवस्था में परिवर्तन नहीं हो जाता और व्यवस्था परिवर्तन के लिए सम्पूर्ण क्रांति करनी पड़ेगी। ‘दूर जाना है मित्रों, बहुत लंबी लड़ाई लड़नी होगी’- यह उनका आह्वान था। उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति के विभिन्न आयामों को सविस्तार समझाया था। लगभग ढाई घंटे का उनका यह पहला अभ्यास वर्ग था, जिसमें उन्होंने यह भी कहा कि इस क्रांति का अगुआ दस्ता युवाओं से बनेगा। 5 जून 1974 के बाद ही छात्रों का यह आन्दोलन सम्पूर्ण क्रांति के जनांदोलन में बदला, जिसके अगुआ सचमुच युवा ही थे।
आन्दोलन और राजनीति के अंर्विरोध
विधानसभा भंग करने की छात्रों की मांग के समर्थन में विपक्ष के कई विधायकों ने इस्तीफा दे दिया था। आन्दोलन का शुरुआती रुझान यह था कि इस आन्दोलन से राजनीतिक दलों को अलग रखा जाय या कम से कम उन्हें मंच पर जगह न दी जाय। जेपी ने भी कह दिया था कि राजनीतिक दलों के लोग इस आन्दोलन से दूर रहें। जबकि वास्तविकता ये थी कि कई विपक्षी दलों के छात्र- युवा संगठन, जैसे समाजवादी युवजन सभा, विद्यार्थी परिषद, युवा कांग्रेस (ओ) आदि छात्र संघर्ष समिति के घटक थे। एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि फरवरी के छात्र नेता सम्मेलन का एआईएसएफ और बीएसए जैसे वामपंथी छात्र संगठनों ने बहिष्कार कर दिया था। विद्यार्थी परिषद को शामिल करने के विरोध में इन संगठनों ने बहिष्कार कर छात्र-युवा संघर्ष मोर्चा नाम से अलग मंच बनाया था। ज्ञातव्य हो कि एआईएसएफ के मातृ संगठन सीपीआई का उस समय कांग्रेस (आई) के साथ गठबंधन था।
राजनीतिक दलों को शामिल न करने के मुद्दे पर सोशलिस्ट नेता कर्पूरी ठाकुर, जो उस समय लोक दल में थे, ने बयान दिया कि ‘जनांदोलन किसी की बपौती नहीं है। हमें इसमें शामिल होने से कोई रोक नहीं सकता’। जेपी अब ‘लोकनायक’ बन चुके थे। उनसे कर्पूरी ठाकुर ने मुलाकात की और लंबे विमर्श के बाद तय हुआ कि आन्दोलन को बाहर से समर्थन देने वाले विपक्षी दलों का एक अलग मंच ‘जनांदोलन समन्वय समिति’ के नाम से बनाया जायेगा, जो आन्दोलन का समर्थन करते हुए इसी बैनर से भाग ले सकेंगे।
महत्वपूर्ण पड़ाव
जून के बाद आन्दोलन के कई बड़े कार्यक्रम हुए, जिनमें विधानसभा भंग करने की मांग प्रमुख थी। 2 अक्टूबर 1974 को गांधी जयंती मनाने के बाद 3, 4 और 5 अक्टूबर को ऐतिहासिक तीन दिवसीय बिहार बंद का कार्यक्रम हुआ, फिर 4 नवंबर को मंत्रियों और सचिवालय का घेराव किया गया। 4 नवंबर वह ऐतिहासिक दिवस है, जब जेपी पुलिस की लाठी से घायल हो गये। 1942 के ‘युवा हृदय सम्राट’ के वृद्ध कांधे पर जबर्दस्त लाठी प्रहार हुआ था और वे वहीं बेहोश हो गये। बेहोशी खत्म होने के बाद लोकनायक सिर पर पगड़ी बांधकर फिर उठे और एक मंत्री के आवास का घेराव कर कार्यक्रम को उसकी नैतिक ऊंचाई तक पहुंचा दिया।
विचलन के महत्वपूर्ण बिंदु
इन घटनाक्रमों के बीच राजनीतिक घटनाक्रमों का उल्लेख जरूरी है, जिनसे संम्पूर्ण क्रांति का आन्दोलन दो चार होता रहा और व्यवस्था परिवर्तन का मुद्दा दोयम दर्जे पर रहा। प्रतिरोध और संघर्ष, दमन, जेल यात्राएं, मीसा का दुरुपयोग आदि ऐसे घटनाक्रम थे कि आन्दोलन के बाह्य स्वरूप को गहराई में ले जा पाना मुश्किल था। इन्दिरा गाँधी ने कहा था कि हिम्मत हो तो जेपी चुनाव आजमा लें। 4 नवंबर के लाठी प्रहार के बाद 14 नवंबर को गांधी मैदान में हुई विशाल सभा में जेपी ने ऐलान किया कि उन्हें चुनाव की चुनौती स्वीकार है। यह चुनाव सत्ता और जनता के बीच लोकतंत्र की स्थापना के लिए होगा। यह एक महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम रहा, जिससे आन्दोलन का मानस लोकतंत्र की स्थापना के लिए चुनावी राजनीति की ओर परिस्थितिवश उन्मुख होता चला गया।
प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने इस आन्दोलन को अपनी सत्ता के लिए चुनौती के रूप में लिया। उन्हें लगा कि गुजरात की विधानसभा भंग कराने के बाद अगर बिहार विधानसभा भंग करने की मांग भी मान ली गयी तो फिर उनकी केन्द्रीय सरकार को भी खतरा उत्पन्न हो जायेगा। दमन के साथ-साथ आन्दोलन और जेपी को बदनाम करने के उद्देश्य से इन्दिरा गांधी के कई बयान आते रहे। अक्टूबर-74 के मध्य में दिया गया उनका एक बयान अत्यंत महत्वपूर्ण है, जिसका जवाब जेपी ने दिया था, जिसे गलत ढंग से कोट करके आज भी जेपी को दोषी करार दिया जाता है। इन्दिरा गांधी ने कहा था कि ‘जेपी फासिस्टों के हाथ में खेल रहे हैं’। जेपी ने जवाब में कहा था कि ‘इस जनांदोलन में सभी शामिल हैं और हो सकते हैं। किसी को कोई रोक नहीं सकता। सभी विपक्षी दलों के लोग शामिल हैं। उसमें जनसंघ भी है। अगर जनसंघ फासिस्ट है, तो क्या मैं भी फासिस्ट हूँ?’ उस समय के अखबार, बुद्धिजीवी और आज की मीडिया, विशेषकर वामपंथी संगठन उस बयान को गलत ढंग से पेश करके बताते हैं कि जेपी ने कहा था कि ‘अगर संघ फासिस्ट है, तो मैं भी फासिस्ट हूँ’। यह सरासर गलत है और पूर्वाग्रह से ग्रसित मानसिकता का परिचायक है।
एक और महत्वपूर्ण बात है, जिसकी तरफ ध्यान देना आवश्यक है। बिहार आन्दोलन में शामिल 90% छात्र और युवा गैरदलीय तथा स्वतंत्र थे। राजनीतिक दलों के छात्र- युवा संगठन इन युवाओं को अपने पाले में लेने का प्रयास करते रहते थे। इन संगठनों में सबसे अग्रणी संगठन था अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद। इस संगठन को लेकर पूरे बिहार के आन्दोलनकारी युवाओं में आक्रोश था। जिलों से मांग उठ रही थी कि छात्र संघर्ष समिति की संचालन समिति यह निर्णय ले कि छात्र संघर्ष समिति के अलावा आन्दोलन के दरम्यान दूसरे संगठनों की भिन्न गतिविधियों पर रोक लगाई जाय। ये बात जेपी तक भी पहुंची थी। जेपी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि ‘जिस दिन मोरारजी भाई प्रधानमंत्री बन जायेंगे, उस दिन कांग्रेस की सम्पूर्ण क्रांति पूरी हो जायेगी। उसी तरह जिस दिन अटल प्रधानमंत्री बन जायेंगे, उस दिन जनसंघ की सम्पूर्ण क्रांति पूरी हो जायेगी। चरण सिंह के प्रधानमंत्री बनते ही लोक दल की सम्पूर्ण क्रांति भी पूरी हो जायेगी’। जेपी का यह कटाक्ष राजनीतिक दलों के युवा संगठनों की गतिविधियों को लेकर था। संचालन समिति का इस संबंध में कोई निर्णय नहीं हो सका, फिर भी मुजफ्फरपुर और कई अन्य जिलों में छात्र संघर्ष समितियों ने सम्मेलन करके अपने-अपने पुराने संगठनों से संबंध समाप्त करने का निर्णय लिया भी था। वह व्यवहार में कितना उतर पाया, यह शोध का विषय हो सकता है। मेरी अपनी जानकारी में बेतिया के दो साथियों ने अपना संबंध समाजवादी युवजन सभा से तोड़ लिया था।
सामाजिक परिवर्तन की दिशा में जेपी ने एक महत्वपूर्ण आह्वान किया था, ‘जनेऊ तोड़ो, जाति छोड़ो’। हजारों हजार की संख्या में छात्रों और युवाओं ने जेपी के इस आह्वान पर अपने जनेऊ तोड़ डाले थे, पर विद्यार्थी परिषद ने खुलेआम जेपी के इस आह्वान का विरोध किया। उस दौर में पूरे बिहार के आन्दोलनकारी छात्रों के बीच विद्यर्थी परिषद की स्थिति अछूतों जैसी हो गयी थी, जो अंत तक बनी रही। जिलों की छात्र संघर्ष समितियों की बैठकों में इन्होंने आना भी बंद कर दिया था। इन्हीं कारणों से जेपी ने निर्दलीय छात्र-युवाओं के अलग गैरदलीय संगठन ‘छात्र- युवा संघर्ष वाहिनी’ की घोषणा 1 जनवरी 1975 को की, जो सिर्फ सम्पूर्ण क्रांति के लिए समर्पित एक अनुशासित और प्रतिबद्ध संगठन था।
सन पचहत्तर की ललकार! गांव- गांव जनता सरकार!
सारे राजनीतिक प्रतिरोधों और संघर्षों के साथ-साथ नये साल में आन्दोलन ने अपने को और गहराई में ले जाने का निर्णय लिया। संचालन समिति ने जेपी के निर्देशानुसार गाँव-गाँव में जनता सरकार के गठन का निर्णय दिया। नारा था, ‘सन 75 की ललकार गाँव- गाँव जनता सरकार’। इस निर्णय के तहत आन्दोलन सुदूर गाँवों तक पहुँचने लगा। दर्जनों प्रखंडों में मार्च आते-आते जनता सरकारों का गठन हो गया था। जनता सरकार के मुख्य उद्देश्य थे- सरकार को हर प्रकार के टैक्स देना बंद करना, गांवों के झगड़ों को थाने और न्यायालय तक नहीं जाने देना, जाति और सम्प्रदाय के भेद को समाप्त कर समरस समाज का निर्माण, स्त्री- पुरुष समानता, गाँव के विकास की योजनाएं ग्राम सभा में बनाना और मूर्त रूप देना, भू-दान की जमीन का पता लगाकर उस पर कब्जे दिलवाना आदि। इस प्रयोग को देखने विदेशी पत्रकार भी आने लगे। उनमें से एक नयन तारा सहगल भी थीं, जो उस समय बीबीसी की संवाददाता थीं।
6 मार्च 1975 को बिहार आंदोलन के समर्थन में देश की राजधानी दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर का प्रदर्शन हुआ, जिसके मुख्य बैनर पर लिखा था, ‘तुम प्रतिनिधि नहीं रहे हमारे, कुर्सी-गद्दी छोड़ दो’। इस प्रदर्शन के माध्यम से बिहार विधानसभा भंग करने का मांग-पत्र राष्ट्रपति को सौंपा गया। इधर गांवों में जनता सरकारों के गठन के साथ ही साथ विधानसभा पर सत्याग्रह और गिरफ्तारियों का सिलसिला भी चलता रहा।
12 जून 1975, सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन के विचलन के लिए ऐतिहासिक दिन साबित हुआ। इसी दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा इन्दिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया गया। उस दिन जेपी बिहार में पीरो और सहार प्रखंडों में भूमिगत आन्दोलन चलाने वाले नक्सलवादी संगठनों के लोगों से मिलने और उन इलाकों में जनता सरकारों के गठन के उद्देश्य से भोजपुर जिले के दौरे पर थे। 13 जून को आरा में एक आम सभा को संबोधित करने के बाद वे रेल मार्ग से जबलपुर चले गये और वहां से दिल्ली। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद पूरे देश में प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग किसी तूफान की तरह उठने लगी। बिहार के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन और जनता सरकारों के गठन में भी अचानक अल्प-विराम की स्थिति आ गयी।
आपातकाल और सम्पूर्ण क्रांति
अंतत: 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी के नेतृत्व में विशाल जन सभा हुई, जिसमें देश भर से आये हुए प्रतिनिधियों की उपस्थिति में इंदिरा गांधी से इस्तीफा देने की मांग की गयी और इसके लिए देश भर में सत्याग्रह का ऐलान किया गया। उसी रात केन्द्र सरकार द्वारा देश में आपातकाल की घोषणा की गयी। रातोंरात जेपी सहित सभी विपक्षी नेता गिरफ्तार कर लिये गये। सुबह होते-होते देश भर में गिरफ्तारियां शुरू हो गयीं। बिहार में सर्वाधिक गिरफ्तारियां हुईं, जो स्वभाविक ही था। आपातकाल और उस दौरान घटी घटनाओं पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, उसे दुहराने का यहाँ कोई औचित्य नहीं है, लेकिन इतना जरूर कहना है कि आपातकाल में दमन हुआ, जेपी की किडनी खराब हुई, वे मृत्यु शैया से वापस आये। यह सब कुछ इतिहास में दर्ज है, पर तानाशाही से देश को मुक्त कराकर लोकतंत्र की वापसी के संघर्ष में व्यवस्था परिवर्तन और सम्पूर्ण क्रांति का उद्देश्य पृष्ठभूमि में चला गया। देश के सामने लोकतंत्र की रक्षा सबसे जरूरी मुद्दा बन गया। कहा जाय तो एक तरह से इन्दिरा गांधी ने सम्पूर्ण क्रांति और व्यवस्था परिवर्तन के सैलाब को अपने ऊपर झेलकर आन्दोलन को ही विचलित कर दिया।
सम्पूर्ण क्रांति के लिए प्रतिबद्ध छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी ने पूरे देश में सम्पूर्ण क्रांति को जमीन पर उतारने का सशक्त प्रयास किया, लेकिन जनता पार्टी की कारगुजारियों और 8 अक्टूबर 1979 को जेपी के निधन के कारण क्रांति की लौ धीमी पड़ गयी। वैसे क्रातियां किसी दौर या नेतृत्व की मोहताज नहीं होतीं। परिस्थितियां ही अवसर और नेतृत्व पैदा कर देती हैं। इसलिए ऐसा नहीं कह सकते कि सम्पूर्ण क्रांति की लौ पूरी तरह से बुझ गयी है। सत्ता की राजनीति के आइने में देखते रहने भर से आन्दलनों, उनके प्रभाव क्षेत्रों और उनकी तासीर को महसूस कर पाना मुश्किल होता है।
-सुशील कुमार
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