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विनोबा के साथ इतिहासकारों का अन्याय

पराग चोलकर का कहना है कि विनोबा ने गांधी के विचार और लक्ष्य को आगे बढ़ाया पर इतिहासकारों ने उनके योगदान को पर्याप्त महत्व नहीं दिया. साथ ही विनोबा पर सत्याग्रह को छोड़ने का आरोप भी लगता है- विशेषकर इमरजेंसी और जेपी के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के संदर्भ में. लेकिन वे इसे सही नहीं मानते, क्योंकि सत्याग्रह को खुद गांधी जी ने भी केवल संघर्ष का हथियार नहीं, जीवन व्यवहार का हिस्सा माना है. भाषा के प्रश्न पर देश के तत्कालीन गृहमंत्री विनोबा के पास आये और विनोबा के हस्तक्षेप ने देश को एक बड़े संकट से उबारा, यह बात हमारे नामी इतिहासकारों को गौरतलब नहीं लगती। स्वतंत्र भारत के इतिहास पर लिखी मोटी-मोटी किताबों में इसका कहीं जिक्र नहीं मिलता।

विनोबा बीसवीं सदी की अद्भुत शख्सियतों और महानतम क्रांतिकारियों में से एक थे। और इस क्रांतिकारी का अनूठापन इसमें था कि परिवर्तन के लिए उसका विश्वास बन्दूक की नली पर नहीं, बल्कि विचार की शक्ति पर था। सत्ता को निर्मूल करने के लिए उसका विश्वास बन्दूक के बल सत्ता हथियाने में नहीं, विचार की शक्ति में था। हम अक्सर मूर्च्छा में जीते हैं। अपने संस्कार और पूर्वाग्रहों के साये में यांत्रिक क्रियाएं करते जाते है। हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव डालने वाले निर्णय भी हम नहीं लेते, दूसरे कोई लेते हैं और हम उन्हें लेने देते हैं। कुछ करने की बात तो दूर, उनके बारे में हम सोचते तक नहीं। लेकिन जब तक हम कुछ सोचते नहीं और करते नहीं, तब तक हमारे जीवन की डोर हमारे हाथ में नहीं रहेगी; हम गुलाम ही बने रहेंगे। ऐसे में विनोबा हमें हमारी मूर्च्छा से जगाने वाली आवाज है।

विनोबा सही मायने में विचार-पुरुष थे। अक्सर माना जाता है कि विचार और कर्म दो अलग-अलग चीजें हैं। लेकिन विनोबा के लिए ये दोनों अभिन्न थे। वे मानते थे कि मनुष्य को कोई विचार जंच गया, तो उसके अनुसार उसके द्वारा क्रिया होगी ही। अगर नहीं होती है, तो इसका मतलब यह है कि विचार ठीक से जंचा नहीं है। अगर वह जंचा हो, तो उसके अनुसार क्रिया कैसे नहीं होगी? दिमाग और हाथ जुड़े हुए हैं और हाथ वही करते हैं, जो दिमाग बताता है। यह हो सकता है कि विचार जंचने के बावजूद तुरंत उसके अनुसार क्रिया न हो, जो मोह या आसक्ति के कारण हो सकता है। लेकिन इस मोह का निराकरण भी विचारनिष्ठा से ही हो सकता है।
इसलिए विनोबा का विचार की शक्ति पर अटूट विश्वास था। उनका विश्वास था कि अगर विचार जंच गया तो उसके अनुसार जीवन में परिवर्तन होगा ही। इसीलिए वे विचार समझाना जरूरी मानते थे। अक्सर इस संदर्भ में वे शंकराचार्य को याद करते थे। शंकराचार्य से पूछा गया कि आपने एक बार किसी को समझाया, लेकिन वह समझा नहीं, तो आप क्या करेंगे? उन्होंने कहा, दुबारा समझाऊंगा। और फिर भी नहीं समझा तो? तो कहा, तीसरी बार समझाऊंगा। यानी, समझाते ही जाना है। सामने वाला एक तरीके से नहीं समझा, तो दूसरे तरीके से समझाना है। एक तर्क से नहीं माना, तो दूसरा तर्क देना है। लेकिन समझाने का कोई विकल्प नहीं है। कोई भी विचार जबरदस्ती से किसी से ग्रहण नहीं करवाया जा सकता।

मंच पर बैठे संत विनोबा भावे और लोगों को संबोधित करते लोकनायक

तो विचार करना, उसके अनुसार कर्म करना और वह लोगों को समझाना, यही विनोबा के अनुसार मनुष्य का कर्तव्य है। वे शंकराचार्य का एक वाक्य दोहराया करते थे – शास्त्रं ज्ञापकं न तु कारकम्। शास्त्र बताता है कि क्या सही है, क्या करना चाहिए। वह आपसे जबरदस्ती से कुछ करवाता नहीं। विनोबा साइनबोर्ड का भी उदाहरण दिया करते थे। साइनबोर्ड बताता है कि रास्ता किधर जाता है। कहां जाना है, यह आपको तय करना है। यह आपके लिए और कोई तय नहीं कर सकता – न कोई धर्म, न कोई गुरु, न कोई आइडियलॉजी, न कोई दल, न कोई नेता, न कोई सरकार। इसी में मनुष्यता का विकास है और इसी में मनुष्य की आजादी है।
विनोबा मानते थे कि सत्याग्रह में भी मुख्य शक्ति विचार की ही है। सामने वाले को अपने विचार में जो सत्यांश है, वह जंचाना है। वह ग्रहण करने के लिए सामने वाले के दिमाग के दरवाजे अगर न खुलते हों, तो इसके लिए तपस्या की, आत्मक्लेश की जरूरत पड़ सकती है। लेकिन एक बार वह ग्रहणशील हुआ, तो फिर विचार ही काम करेगा। हमें भी सामने वाले के विचार का सत्यांश ही ग्रहण करना है। इस तरह सत्याग्रह में आगे, पीछे, बीच में – सब तरह से विचार का ही काम है। आत्मक्लेश आपद्धर्म हो सकता है। लेकिन वह कभी-कभी जरूरी हो सकता है, हमेशा नहीं।

इसलिए विनोबा सत्याग्रह के संदर्भ में ईसा के वचन (Resist not evil) से आगे जाते हैं। वे कहते हैं कि Resist not evil पर्याप्त नहीं है और Resist evil with non-violence भी पर्याप्त नहीं है। तो फिर evil का, अन्याय का, अशुभ का प्रतिकार कैसे करना? विनोबा कहते हैं, Assist the opposite man in right thinking – विरोधी को सही चिन्तन करने में मदद करो। यानी यहां विचारनिष्ठा की, विचार समझाने की ही बात आती है।

इसलिए, विनोबा को सही मायने में विचार पुरुष कहना ठीक होगा। उन्होंने गांधी से बहुत कुछ पाया। गांधी के चरणों में बैठकर ही उन्होंने सबकुछ सीखा। उन्हें गांधी का उत्तराधिकारी कहा जाता है, यह गलत नहीं है, सही ही है। गांधी हत्या के बाद गांधीमार्गी कार्यकर्ताओं ने उनसे ही नेतृत्व की आशा की। उन्होंने ही गांधी-कार्य की कमान संभाली। गांधी के अहिंसक क्रांति के युगकार्य को वे ही आगे ले गये। विनोबा ने गांधी-विचार से बहुत कुछ लिया, वैसे बहुत कुछ दिया भी। उन्होंने गांधी-विचार के परंपरागत शब्दों में नया अर्थ डाला। जरूरी लगा, तो नये शब्द गढ़े। गांधी की रणनीति का नवसंस्करण किया। गांधी के युगकार्य को अंजाम देने के लिए नये कार्यक्रम दिये। यह सब होने के बावजूद विनोबा को सिर्फ गांधीवादी विचारक नहीं कहा जा सकता। उन्होंने जैसे गांधी से लिया, वैसे ही औरों से भी लिया। विनोबा गांधी की अंगुली पकड़ कर नहीं चलते, बल्कि गांधी के कंधों पर बैठकर और आगे का देखते हैं। वे गांधी से जुदा नहीं है, लेकिन गांधी से अभिन्न भी नहीं है। न द्वैत है, न अद्वैत। शंकराचार्य के शब्दों में गांधी-विनोबा का संबंध द्वैताद्वैत विवर्जित है। यह समझकर ही विनोबा की तरफ देखना होगा।

विनोबा को गांधी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी कहा गया है। गांधी की अध्यात्म-दृष्टि और अध्यात्म-साधना एक अलग ढंग की थी। विनोबा को उसी का आकर्षण हुआ और इसी कारण वे गांधी के पास स्थिर हुए। लेकिन विनोबा को सिर्फ गांधी की ही नहीं, सदियों से विकसित होती आयी भारत की विभिन्न आध्यात्मिक परंपराओं का उत्तराधिकारी भी मानना होगा। उन सभी परंपराओं का उन्होंने गहरा अध्ययन किया, उनका सार ग्रहण किया और वह लोगों को बांटा भी। उन्होंने ऋग्वेद का सार निकाला, उपनिषदों का सार निकाला, भागवत, मनुस्मृति और शंकराचार्य से चयन किया। कुरान और बाइबिल का सार पेश किया। धम्मपद की नवरचना की। नानक, तुलसीदास और असम के श्रीमाधवदेव का सार प्रस्तुत किया, महाराष्ट्र के पांच संतों – ज्ञानदेव, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम और रामदास के अभंगों से चयन किया। ये सब सार-ग्रंथ हमारी अमूल्य धरोहर हैं।

विनोबा मानते थे कि जैसा विज्ञान का विकास होता आया है और होता रहेगा, वैसा अध्यात्म के क्षेत्र में भी होना चाहिए। अध्यात्म ज्ञान पूर्णता को पहुंच चुका है, अब उसके आगे बढ़ने की गुंजाइश नहीं, यह मानना एक भूल है। वे मानते थे कि अध्यात्म में भी नयी खोजें होनी चाहिए।

उनमें पहली बात है, सामूहिक साधना और सामूहिक समाधि की। विनोबा का कहना था कि आध्यात्मिक साधना ‘मैं’ को मिटाने के लिए होती है और ‘मैं’ को ‘हम’ द्वारा, अर्थात् सामूहिक साधना द्वारा ही मिटाया जा सकता है। ‘मेरी मुक्ति’ चाहने में स्वार्थ है। समाज को बाजू में रखकर अपनी मुक्ति की कामना नहीं कर सकते। सारे समाज के लिए मुक्ति की, समाधि की चाह होनी चाहिए। स्त्रियों की सामूहिक साधना के लिए पवनार के ब्रह्मविद्या मंदिर आश्रम की स्थापना को विनोबा खुद अपना एक बड़ा काम मानते थे।

दूसरी बात उन्होंने की, मजदूरी के क्षेत्र में ब्रह्मविद्या की। उत्पादक शरीर श्रम द्वारा कर्मयोग की साधना का प्रयोग गांधी ने किया। विनोबा ने कहा कि अध्यात्म को गरीबों और मजदूरों से एकरूप होकर उनकी समस्याएं सुलझानी होंगी। और यह भी कि उत्पादक श्रम द्वारा जीविका चलाने की हिम्मत अध्यात्म-साधकों को भी करनी होगी।

विनोबा की तीसरी महत्त्व की बात है, अध्यात्म और विज्ञान के संयोग की। उन्होंने कहा कि धर्म और राजनीति कालबाह्य हुए हैं और उनकी जगह अध्यात्म और विज्ञान लेंगे। राजनीति के साथ विज्ञान जुड़ा रहा तो दुनिया का सर्वनाश होगा और अध्यात्म के साथ विज्ञान जुड़ गया तो सबका भला होगा। अध्यात्म और विज्ञान परस्पर पूरक हैं, सत्य की खोज के ही ये दोनों मार्ग हैं। अत: उनका संयोग होना चाहिए, यह विनोबा की अंतर्दृष्टि कहती है।

गांधी ने कहा था, नई तालीम मेरी देश को आखिरी और सर्वोत्तम देन है। विनोबा ने नई तालीम के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वे खुद को एक शिक्षक ही मानते थे। उन्होंने जिन्दगी भर जो काम किया वह एक तरह से शिक्षा का ही काम था। वे बार-बार कहते थे कि नई तालीम केवल शिक्षा का एक वैकल्पिक ढांचा नहीं है। वह दरअसल किसी ढांचे में बैठ नहीं सकती। अलग-अलग गांवों में स्थानीय परिस्थिति और स्थानीय परिवेश के अनुसार शिक्षा के अलग-अलग प्रयोग होने चाहिए। और स्थानीय लोगों के अभिक्रम तथा सहभागिता से होने चाहिए, ऐसा विनोबा का कहना था। इस संदर्भ में उन्होंने ‘नित्य नई तालीम’ शब्द-प्रयोग किया था। नई तालीम केवल बच्चों को शिक्षा देने के लिए नहीं है, बल्कि समाज में मूल्य परिवर्तन के लिए है। शिक्षा को रक्षा की – यानी दंडशक्ति की – आवश्यकता समाप्त करनी है, अर्थात अहिंसक समाज बनाना है, इसकी स्पष्टता भी विनोबा करते रहे। सरकारमुक्त शिक्षा की उन्होंने वकालत की। विनोबा के शिक्षा-विचार आज भी मननीय हैं, आज भी प्रासंगिक हैं।

राजनैतिक क्षेत्र में विनोबा ने गांधी के पदचिन्हों पर चलते हुए शासनमुक्ति का समर्थन किया और उसके लिए जनशक्ति के विकास पर जोर दिया। जनशक्ति जैसे-जैसे विकसित होती जायेगी, वैसे-वैसे शासनशक्ति क्षीण होती जायेगी। विनोबा ने फूलमाला का उदाहरण दिया है। माला में फूल दीखते हैं, धागा नहीं दीखता। उसी तरह समाज में सरकार हो, लेकिन वह दीखे नहीं। दीखे सिर्फ स्वायत्त और स्वयंपूर्ण गांव। सब लोग मिलकर समान जिम्मेवारी से अपनी व्यवस्था करें। वर्तमान लोकतंत्र इस तरह की व्यवस्था नहीं है। इस तरह की व्यवस्था को विनोबा ने ‘सर्वायतन’ कहा। उनकी ‘स्वराज्यशास्त्र’ पुस्तक में ऐसी व्यवस्था का खाका खींचा गया है। यह पुस्तक राजनीतिशास्त्र को उनकी अमूल्य देन है। यह गांधी के ‘हिन्द-स्वराज्य’ के आगे का कदम है।

सर्वायतन सब तरह से अलग रचना है; लोकतांत्रिक रचना का एक प्रकार नहीं है। जाहिर है, उसका निर्माण लोकतंत्र के उपकरणों से नहीं हो सकता। उसके निर्माण और संचालन के लिए दलीय राजनीति की जरूरत नहीं। स्वाभाविक था कि विनोबा ने उसे अस्वीकार किया और लोकनीति की अवधारणा के रूप में उसका विकल्प पेश किया। लोकनीति यानी सेवा के जरिये लोकशक्ति का विकास और सत्ता का ह्रास। इस प्रक्रिया में सत्ताधारी वर्ग का भी सहयोग चाहना और एक हद तक हासिल भी करना, विनोबा का यह कौशल ध्यान खींचता है।

सत्याग्रह गांधी की अद्भुत खोज है, यह लोकनीति की रणनीति का भी एक महत्त्वपूर्ण अंग है। विनोबा पर यह आक्षेप रहा है कि उन्होंने गांधी के सत्याग्रह को छोड़ दिया। लेकिन यह एक गलतफहमी है। दरअसल, गांधी के लिए भी सत्याग्रह सिर्फ अन्याय के प्रतिकार का हथियार नहीं था, बल्कि एक जीवन-विचार था। विनोबा ने उसी रूप में उसे देखा। यह गौरतलब है कि 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह के आंदोलन के समय पहले सत्याग्रही के तौर पर गांधी ने विनोबा को चुना था, और एक तरह से प्रमाणपत्र दिया था कि सत्याग्रह का विचार विनोबा जैसा और कोई समझा नहीं है, न वह और किसी के जीवन में विनोबा जितना गहरा उतरा है। विनोबा का कहना था कि कोई सिद्धांत सर्वमान्य हो और फिर भी उसका अनादर होता हो, तो सत्याग्रह किया जा सकता है; लेकिन जो सिद्धांत सर्वमान्य नहीं है, उसके लिए तो प्रचार और शिक्षा ही एकमात्र विकल्प है। व्यक्तिगत मालिकी का विसर्जन समाज में मान्य नहीं था, इसलिए विनोबा भूदान-ग्रामदान के जरिये उसका प्रचार करते रहे। लेकिन बेदखली, शराबबंदी, गोहत्याबंदी जैसे कई मुद्दों पर उन्होंने सत्याग्रह का समर्थन ही किया। सत्याग्रह अधिकाधिक सौम्य होते जाना चाहिए, सौम्य-सौम्यतर-सौम्यतम उसकी प्रक्रिया होनी चाहिए, विनोबा का यह विचार अहिंसक कार्यपद्धति को और विशद करता है।

जैसे राजनैतिक क्षेत्र में शासनमुक्ति की विनोबा की कल्पना कीमती है, वैसे ही आर्थिक क्षेत्र में बाजार मुक्ति और कांचन-मुक्ति की उनकी कल्पनाएं भी कीमती हैं। समुदाय कम से कम अपनी बुनियादी जरूरतों के मामले में आत्मनिर्भर हो, तभी वह आजाद रह सकता है। जिन चीजों के बारे में ग्राम-स्वावलंबन संभव नहीं, उन चीजों के बारे में क्षेत्र- स्वावलंबन हो। आज बाजार हमारे सारे जीवन पर हावी हुआ है। हम क्या खरीदें, केवल यही नहीं, बल्कि हम क्या करें, हम कैसे जीयें, यह भी बाजार तय कर रहा है। उसके चंगुल से छूटना ही होगा।

इसी संदर्भ में विनोबा ने कांचनमुक्ति की अवधारणा प्रस्तुत की, और उस दिशा में साहसी प्रयोग भी किये। कांचनमुक्ति यानी पैसे से मुक्ति। पैसे को विनोबा कई बुराइयों की जड़ मानते थे। उस पर उन्होंने कठोर प्रहार किये। पैसे की कीमत बदलती रहती है, इसलिए वह झूठ और बेईमानी को प्रोत्साहन देता है, यह उनका आक्षेप था। वे कहते थे, पैसा राक्षस है, लेकिन लक्ष्मी देवता है। लक्ष्मी यानी असली संपत्ति, जो श्रम से निर्माण होती है। इसलिए विनोबा ने भूदान, ग्रामदान, संपत्तिदान, श्रमदान, साधनदान, बुद्धिदान जैसे अनेक दानों की मांग की, लेकिन पैसे के दान को नापसंद किया। भूदान आंदोलन के लिए गांधी स्मारक निधि खुद मदद देता था। लेकिन विनोबा ने निधिमुक्ति की घोषणा कर 1956 में वह मदद लेना बंद कर दिया, इसलिए कि संचित निधि के आधार पर चल रहा आंदोलन सही मायने में लोगों का आंदोलन नहीं हो सकता।

कांचनमुक्ति के लिए विनोबा ने ऋषि-खेती का भी प्रयोग किया। ऋषि-खेती यानी केवल मानवीय श्रम से खेती करना – न मशीन की मदद लेना, न बैल की और इस तरह स्वावलंबन साधना।

गांधीजी ने ब्रेडलेबर की वकालत की थी। यानी खुद के पसीने से रोटी कमाना। विनोबा इसके एक कदम आगे जाते हैं। वे कहते हैं कि हर व्यक्ति उत्पादक परिश्रम अवश्य करें, लेकिन उससे रोटी कमाने की न सोचे। उसमें अहंकार है। बेहतर यह है कि हम हमारा श्रम और जो कुछ भी हमारे पास है, वह सब समाज को समर्पण करें और समाज से जो मिलता है, उसे प्रसाद मानकर संतुष्ट रहें।

सामाजिक समता के क्षेत्र में भी विनोबा का योगदान लक्षणीय है। वैचारिक योगदान भी और व्यावहारिक योगदान भी। भूदान द्वारा लाखों दलितों को जमीन मिली। भूदान-जमीन के वितरण में यह नियम ही बनाया था कि कम से कम एक-तिहाई जमीन दलितों को मिले। वास्तव में उन्हें इससे भी ज्यादा जमीन कई जगह मिली। आदिवासियों को भी काफी जमीन मिली। दलित और आदिवासियों को ही नहीं, ऐसी कई जातियों के लोगों को जमीन मिली, जिनके पास पहले कभी जमीन नहीं रही थी। पहले पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष काकासाहब कालेलकर ने कहा था कि देश की करीब तीन हजार जातियों में से सिर्फ 15-20 के पास जमीन रहती आयी थी। भूदान ने पहली बार कई वंचित जातियों के लोगों को जमीन दी। जमीन दी, यानी जीविका का स्थायी और प्रतिष्ठित साधन दिया। न सिर्फ आर्थिक स्थिरता दी, बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा भी दी।

ग्रामदान में दलितों को सही मायने में राजनैतिक अधिकार मिलते हैं, क्योंकि उसमें गांव का कारोबार सबको मिलकर सहमति से चलाना है। प्रातिनिधिक रचना में दलित-पिछड़ों की आवाज सुनी जाय, इसके लिए ज्यादा-से-ज्यादा आरक्षण का प्रावधान किया जा सकता है और किया गया है। लेकिन बहुमत पर आधारित निर्णय-प्रक्रिया में उनकी भागीदारी सीमित ही हो सकती है। सहमति की प्रक्रिया में उनकी भूमिका अवश्य निर्णायक हो सकती है। इस तरह ग्रामदान पिछड़ों को और स्त्रियों को भी राजनैतिक शक्ति प्रदान करता है।

गांधी ने स्त्रियों की शक्ति को जगाया। उन्हें शराब की दुकानों के सामने पिकेटिंग के लिए खड़ा किया। भूदान-ग्रामदान आंदोलन में अनेक महिलाएं पदयात्रा करते हुए घूमीं। कभी केवल महिला टोलियों में तो कभी अकेली भी घूमीं। उत्तर भारत की यात्रा में विनोबा पर्दा जैसी कुरीतियों पर तीखे प्रहार करते थे। स्त्री-शक्ति-जागरण के लिए स्त्रियों को आध्यात्मिक अधिकार मिलना आवश्यक है और उन्हें अध्यात्म के क्षेत्र में आगे बढ़ना होगा, यह कहने वाले विनोबा शायद पहले विचारक थे। इस दृष्टि से पवनार में ब्रह्मविद्या मंदिर की स्थापना उनका विशिष्ट योगदान है। गांधीवादी स्त्रीवाद को विनोबा ने नये आयाम दिये।

यहां विनोबा के योगदान की बात निकली है, तो देश की एकता और एकात्मता के लिए उनके योगदान का जिक्र करना भी जरूरी है। पदयात्रा के दौरान विनोबा सिर्फ महाराष्ट्र में मराठी में और गुजरात में गुजराती में बोले। बाकी पूरे देश में हिन्दी में बोले। वे भारत की सभी प्रमुख भाषाएं जानते थे। उन सभी भाषाओं के आध्यात्मिक साहित्य का उन्होंने गहरा अध्ययन किया था। व्याख्यानों में वे उससे उद्धरण देते रहते थे। फिर भी, इन सब भाषाओं में भाषण देना उनके लिए संभव नहीं था। उनके भाषणों के हिन्दी से प्रादेशिक भाषाओं में अनुवाद होते थे। विनोबा भाषाएं इतनी जानते थे कि अनुवादक की कहीं गलती हो तो उसे पकड़ लेते थे। उस समय दक्षिण भारत में हिन्दी का तीव्र विरोध था। फिर भी, विनोबा न केवल हिन्दी में बोलते रहे, बल्कि दक्षिणवासियों को हिन्दी सीखने की हिदायत देते रहे। 1965 में हिन्दी को राजभाषा बनाने का समय आया, तो खासकर तमिलनाडु में हिन्दी-विरोध प्रखर हुआ। हिंसा फूट निकली। देश से अलग होने की बात तक उठने लगी। तब विनोबा ने अनशन किया। उन्होंने समस्या के समाधान के लिए त्रिसूत्री पेश की – न किसी पर हिन्दी लादी जाय, न अंग्रेजी और ण हिंसा का आश्रय लिया जाय। देश के गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा पवनार आये, जहां विनोबा का अनशन चल रहा था। वहीं से उन्होंने संबंधित पक्षों से बातचीत की। आखिर विनोबा की त्रिसूत्री पर सहमति हुई और विनोबा ने अनशन छोड़ा। लेकिन मजा देखिये, स्वतंत्र भारत के इतिहास पर लिखी मोटी-मोटी किताबों में भी आपको इसका जिक्र नहीं मिलेगा। देश का गृहमंत्री विनोबा के पास दौड़कर आता है और उनका हस्तक्षेप देश को एक बड़े संकट से उबारता है, यह बात हमारे नामी इतिहासकारों को गौरतलब नहीं लगती। इसे क्या कहा जाये? भूदान-ग्रामदान के बारे में भी यही दीखेगा। विनोबा ने 25 लाख एकड़ जमीन भूमिहीनों को दी, इसका हमारे अर्थशास्त्रियों को पता ही नहीं है। हमारे एक मित्र ने एक बार टिप्पणी की थी कि विनोबा को इतिहास से खदेड़ने की कोशिश हुई है। जान-बूझकर न भी हुई हो; तो यह तो स्पष्ट है कि हमारे बुद्धिजीवियों, खासकर अकादमिक विद्वानों के अवचेतन में विनोबा के लिए परहेज जरूर रहा है। विनोबा ने इस तरह कई क्षेत्रों में मौलिक वैचारिक तथा व्यावहारिक योगदान दिया है। उसमें सबसे प्रमुख तो बेशक भूदान-ग्रामदान है, जिसके कारण विनोबा जाने जाते हैं। विनोबा के योगदान का ठीक आकलन करने के लिए उस पर तो एक नजर अवश्य डालनी होगी।

जैसा कि पहले बताया गया है, 25 लाख एकड़ जमीन भूदान द्वारा भूमिहीनों को मिली। ग्रामदान ने व्यक्तिगत मालिकी के स्वेच्छया-विसर्जन जैसी बात व्यापक परिमाण में संभव की। आज भी देश में 3972 गांव कानूनी रूप से ग्रामदानी गांव हैं। यानी वहां जमीन पर व्यक्तिगत मालिकी का स्वेच्छापूर्वक 75% से ज्यादा विसर्जन हुआ है। यह मामूली बात नहीं है। इसलिए भूदान-ग्रामदान आंदोलन का परिशीलन न केवल विनोबा का योगदान समझने के लिए जरूरी है, बल्कि हमारे आगे का मार्ग खोजने के लिए भी अनिवार्य है।

-पराग चोलकर

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