पण्डित जवाहर लाल नेहरू, मौलाना आजाद, राजगोपालाचार्य, सरदार वल्लभ भाई पटेल सहित कोई भी विभाजन नहीं चाहता था और महात्मा गांधी इस प्रस्ताव के लिए किसी भी तरह से तैयार नहीं थे। वर्ष 1942 में गांधी जी ने अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा दिया और अंग्रेज सरकार को स्पष्ट रूप से सूचित किया कि अगर भारत की बात नहीं मानी गई तो गांधी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आन्दोलन होगा। 8 अगस्त को वर्धा की बैठक में कांग्रेस महासगिति ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, लेकिन चन्द घंटों के पश्चात ही कांग्रेस के सभी बड़े-बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और महात्मा गांधी को गिरफ्तार करके पूना के पास आगा खां महल में रखा गया। इनके साथ महादेव देसाई, प्यारेलाल नैयर और मीरा बहन को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
इस गिरफ्तारी के विरुद्ध भारत में भयंकर गुस्सा फूटा। जगह-जगह रेल पटरिया उखाड़ दी गयीं एवं स्टेशनों में आग लगा दी गई। सरकार ने कई लोगों को गिरफ्तार किया और वायसराय लिनलिथगो ने पत्र लिखा कि इसके लिए गांधी ही दोषी है। गांधी जी ने तत्काल उत्तर दिया कि मैंने जितने भी आन्दोलन किये हैं, हिंसा को कभी स्थान नहीं दिया है। मेरे ऊपर जो आरोप लगाये गये हैं, इसके प्रतिकार स्वरूप मैं 9 फरवरी से 21 दिन तक उपवास करूंगा। वायसराय ने एक लम्बा पत्र लिखा कि आप उपवास का विचार छोड़ दें। मैं राजनैतिक उद्देश्यों के लिए उपवास के प्रयोग को एक प्रकार से राजनैतिक धौंस मानता हूँ, जिसका कोई भी नैतिक औचित्य नहीं है।
10 फरवरी को गांधी जी ने 21 दिन का उपवास प्रारम्भ किया, जिसकी समाप्ति 2 मार्च को हुई। पूरे भारत में गांधी जी को जेल से रिहा करने का आन्दोलन छिड़ गया, लेकिन अंग्रेजों ने गांधी जी को रिहा नहीं किया। इसी बीच कस्तूरबा और महादेव देसाई की आगा खां जेल में मृत्यु हो गयी। कस्तूरबा की मृत्यु के छ: सप्ताह पश्चात गांधी को सख्त मलेरिया हो गया और बुखार 105 डिग्री तक पहुंच गया। उन्हें सन्निपात हो गया और लगा कि उनकी मृत्यु होने वाली है। पुनः गांधी जी को रिहा करने का आन्दोलन शुरू हुआ और 6 मई को गांधी जी को जेल से रिहा कर दिया गया।
1931 में पहली गोलमेज परिषद में मोहम्मद अली जिन्ना ने आपस की एकता की बात को नहीं माना और पत्रकार लुई फिशर को बताया कि 1931 की गोलमेज परिषद में मुझे दिखने लगा था कि एका की उम्मीद फिजूल है। गांधी जी यह नहीं चाहते हैं। मैं मायूस हो गया और इंग्लैण्ड में ही रहने का इरादा कर लिया। 1935 तक मैं वहीं रहा । हिन्दुस्तान लौटने का मेरा इरादा नहीं था, किन्तु हिन्दुस्तान से आने वाले मेरे दोस्त मुझे हमेशा यह कहते रहते थे कि आपका भारत में रहना बहुत आवश्यक है। उन्होंने लुई फिशर को यह भी कहा कि गांधी जी आजादी नहीं चाहते। वह नहीं चाहते कि अंग्रेज यहां से चले जायें। वे सब पहले हिन्दू हैं, नेहरू भी हिन्दू हैं। ये दोनों हिन्दू राज चाहते हैं। मोहम्मद अली जिन्ना अपने आपको गांधी जी के समकक्ष समझने लगे थे।
मुसलमानों का उच्च और मध्य वर्ग जिन्ना के पक्ष में तैयार था, लेकिन यह संख्या बहुत कम थी। बाकी के मुसलमान कोई निर्णय नहीं ले पाये थे, इसलिये यह निश्चय किया गया कि मजहबी जोश उभारकर मुसलमानों को मुसलिम लीग में मिलाया जाये। उनका मुख्य सुर था, मुसलमानों का अलग राज्य पाकिस्तान बनाया जाये और जिन्ना इस दाँव को खेलने के लिए तैयार हो गये। वह एक धार्मिक राज्य बनाना चाहते थे, जबकि गांधी जी एक धर्मनिरपेक्ष राज्य चाहते थे। गांधी जी आखिरी तक भारत को एक रखना चाहते थे, किन्तु मोहम्मद अली जिन्ना मुसलमानों के लिए पाकिस्तान चाहते थे।
ब्रिटिश सरकार इसका फायदा पूरी तरह से उठा रही थी। 1944 में गांधी जी ने दिल्ली में वायसराय बेवल को मुलाकात के लिए पत्र लिखा। उन्होंने उत्तर भेजा कि हम दोनों के दृष्टिकोणों के बीच मूलभूत मतभेद का विचार करते हुए फिलहाल हमारा मिलना किसी भी अर्थ में काम का नहीं होगा। गांधी जी ने अपना रूख जिन्ना की तरफ किया और वे जिन्ना को मनाने में लगे। 17 जुलाई 1944 को राजगोपालाचार्य की प्रेरणा से उन्होंने जिन्ना से पत्र व्यवहार शुरू किया, जो करीब 20 दिनों तक चला। गांधी जी किसी भी तरह से दो राष्ट्र के लिए तैयार नहीं थे। उन्होने पत्र में सुझाव दिया कि मुस्लिम बहुमत वाले बलूचिस्तान, सिंध, सीमान्त प्रांत, बंगाल, आसाम तथा पंजाब के हिस्सों में भारत से अलग होने के लिए लोगों से मत ले लिया जाये। अगर अलग होने के पक्ष में मत आये, तो भारत के आजाद होने के पश्चात इनका जल्द से जल्द अलग राज्य बना दिया जाये। जिन्ना इससे सहमत नहीं थे। उन्होंने तीन बार ‘नहीं’ कहा। वह अंग्रेजों के रहते ही विभाजन चाहते थे। वह चाहते थे कि विलग होने के प्रश्न का निपटारा केवल मुसलमानों के बहुमत से किया जाये, जिसके लिए गांधी जी तैयार नहीं थे।
इंग्लैण्ड भारत को आजादी देना चाहता था। वर्ष 1945 में वायसराय बावेल ने शिमला समझौते का प्रस्ताव रखा, जिसमें उन्होंने अपने स्तर पर लोगों को बैठक में बुलाया। गांधी ने इसमें भाग नहीं लिया, मगर वह शिमला गये। मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा कि कौंसिल के तमाम सदस्यों का नेता होने के कारण सदस्यों को वही नामजद करेंगे। इस बात के लिए न गांधी जी तैयार थे, न वायसराय तैयार हुआ। इस तरह से शिमला समझौता नहीं हुआ। अंग्रेज़ों ने स्पष्ट किया कि जब तक मोहम्म्मद अली जिन्ना तैयार नहीं होंगे, तबतक कोई समझौता नहीं होगा। कुछ समय पश्चात मोहम्मद अली जिन्ना ने मुम्बई में एक वक्तव्य दिया कि हम भारत की समस्या को 10 मिनट में हल कर सकते हैं, अगर मिस्टर गांधी यह कह दें कि पाकिस्तान बनना चाहिए। गांधी जी ने कहा कि भारत के अंग भंग को वह घोर पाप समझते हैं। भारत के वायसराय कोशिश कर रहे थे कि किसी भी तरह मिली जुली सरकार बन जाये। इस सम्बन्ध में लुई फिशर ने अपनी पुस्तक ‘गांधी की कहानी’ में इस प्रकार वर्णन किया है- फिशर ने गांधी जी से कहा कि हिन्दू छाप वाली कांग्रेस को मुसलमान कैसे अपना सकते हैं। गांधी जी ने उत्तर दिया- अछूतों को समानता का अधिकार देकर। फिशर ने कहा कि सुना है, हिन्दू और मुसलमानों का आपसी सम्पर्क कम हो रहा है। गांधी ने कहा कि ऊपर के स्तर पर राजनैतिक स्तर टूटता जा रहा है। जिन्ना कहते हैं कि आप एक हिन्दू राष्ट्र चाहते हैं। आप स्वाधीनता नहीं चाहते हैं। गांधी जी ने स्पष्ट किया कि जिन्ना साहब गलत बात करते हैं। इसमें जरा भी तथ्य नहीं है। मैं मुसलमान हूँ, हिन्दू हूं, ईसाई हूं, यहूदी हूं, पारसी हूं, बौद्ध हूं। अगर वह यह कहते हैं कि मैं हिन्दू राज्य चाहता हूँ, तो वे मुझे जानते नहीं है। मुझे विश्वास है कि एक दिन वह समझौता कर लेंगे। उनकी इस बात में सच्चाई नहीं है। ऐसा आरोप एक सनकी दिमाग वाला ही लगा सकता है। मेरा विश्वास है कि मुस्लिम लीग संविधान सभा में शामिल हो जायेगी।
वायसराय बावेल ने कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग से पुनः अपने-अपने उम्मीदवारों की सूचियां भेजने को कहा। कांग्रेस ने स्पष्ट कर दिया कि कोई भी पक्ष मनोनीत किये हुए व्यक्तियों को नहीं रोक सकता। इस पर जिन्ना ने अस्थाई सरकार में समझौते के निमंत्रण को अस्वीकार कर लिया। 12 अगस्त 1946 को वायसराय ने पण्डित नेहरू को सरकार बनाने का कार्य सौंपा। नेहरू ने जो सरकार बनायी, उसमें एक हरिजन, छ: हिन्दू, एक ईसाई, एक सिक्ख, एक पारसी और दो मुसलमानों के नामों की घोषाणा कर दी। नेहरू ने जिन्ना को आमंत्रित करते हुए कहा कि वह पांच सदस्यों का नाम दे सकते हैं, मगर जिन्ना ने इस पर ध्यान नहीं दिया। मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त को सीधी कार्यवाही का और जिन्ना ने 2 सितम्बर को मातम का दिन मनाया। इसके कारण भारत के विभिन्न स्थानों पर हिन्दू मुसलमानों के दंगे भड़क गये। बंगाल के नोआखाली में हिन्दुओं को निर्दयतापूर्वक मारने का सिलसिला चालू हो गया। अभी भी गांधी जी को सत्य और अहिंसा पर विश्वास था। वह दंगों को रोकने के लिए कलकत्ता जाना चहते थे। कुछ लोगों ने उनको नहीं जाने का सुझाव भी दिया। उन्होंने उत्तर दिया कि जब तक मैं नहीं जाऊंगा, मुझे शांति नहीं मिलेगी। जिस दिन गांधी जी दिल्ली से रवाना हुए, कलकत्ते में उसी दिन करीब 32 आदमी दंगे में मारे गये। गांधी जी ने कलकत्ते पहुंचकर उन सब गलियों का दौरा किया और शांति बनाने की लोगों से प्रार्थना करते रहे।
गांधी जी 6 नवम्बर को कलकत्ते से नोआखाली के लिए रवाना हुए। यह बंगाल का सबसे दुर्गम स्थान है। वहाँ 40 मील के भूभाग में 25 लाख लोग रहते थे, जिसमें से 20 प्रतिशत ही हिन्दू थे। यहां हिन्दुओं पर बहुत जुल्म किये गये। स्त्रियों के साथ बलात्कार किया गया। उनके हाथ की चूड़ियाँ तोड़ दी गयीं, उनके माथे का सिन्दूर पोंछ दिया गया। आदमियों को जबरदस्ती गाय का मांस खिलाने की कोशिश की गई। इन सब घटनाओं से व्यथित होकर गांधी जी ने पैदल गांव-गांव दौरा किया। वह सुबह चार बजे उठते और 6-7 किलोमीटर चलकर गांवों में पहुंचते थे। वह रात को किसी मुसलमान के घर में ठहरना पंसद करते थे। अगर वह नहीं ठहराता था तो आगे चल देते थे। पैदल चलने से उनके पैरों में बिवाइयां फट गई थीं। लोग उनके रास्ते में कांटे एवं मैला फेंक देते थे, जिससे उनको चलने में परेशानी हो। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपना मिशन पूरा करने में लगे रहे।
नवम्बर, 1946 में इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री एटली ने एक असाधारण सम्मेलन के लिए पण्डित नेहरू, बलदेव सिंह, जिन्ना और लियाकत अली को लन्दन बुलाया। लन्दन सम्मेलन का उद्देश्य मुस्लिम लीग को संविधान सभा में शामिल करना था, लेकिन जिन्ना ने सार्वजनिक रूप से घोषणा कर दी कि वह भारत का विभाजन करके मुस्लिम राज चाहते हैं। इस पर कोई बात नहीं बनी और नेहरू जी ने यह सारी बात गांधी जी को बताई। निरन्तर खून खराबे के कारण कांग्रेस के नेता विचलित हो गये और विभाजन के प्रस्ताव पर गहराई से विचार करने लगे। गांधी जी का कांग्रेस पर असर कम हो गया था। मार्च 1947 में जिन्ना के वक्तव्य के अनुसार विभाजन ही एकमात्र रास्ता था, जिस पर पण्डित नहेरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल और राजगोपालाचार्य सहमत हो गये, परन्तु गांधी जी ने विभाजन का अनुमोदन नहीं किया और अपनी मृत्यु तक अनुमोदन करने से इंकार करते रहे।
स्पष्ट है कि 1942 से 1947 तक गांधी जी गहरे अवसाद में थे। वह हर हालत में भारत की एकता चाहते थे। आपस में इतनी वैमनस्यता फैल गई थी कि 30 जनवरी, 1948 को गोली मारकर एक महान संत को हमेशा के लिए इस संसार से विदा कर दिया गया।
-डॉ डीएस भण्डारी
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