Editorial

व्यवस्था बदलने वाले एकजुट हों

धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति ने राजनीतिक दलों के लिए चुनाव जीतना आसान कर दिया है, इसलिए वे आम लोगों के पक्ष में व्यवस्था परिवर्तन की ज़रूरत नहीं महसूस करते. जो लोग व्यवस्था परिवर्तन की बात करते हैं, वे बिखरे हुए हैं. सर्वोदयवादी, गांधीवादी, जेपीवादी, लोहियावादी, अम्बेडकरवादी, समाजवादी और मार्क्सवादी आदि – आदि. आज ज़रूरत है कि टेक्नोलॉजी, पूँजी और सत्ता के गँठजोड़ से चल रही अर्थव्यवस्था को बदलने की ज़ोरदार मुहिम चले.

हर इंसान को लाभदायक रोज़गार की आवश्यकता होती है, ताकि वह सम्मान की ज़िंदगी जी सके – अकेले नहीं, परिवार के साथ. यानि उसका रोज़गार ऐसा हो, जिससे वह अपने परिवार के लिए पौष्टिक भोजन, मौसम के अनुकूल अच्छे कपड़े और रहने के लिए घर का इंतज़ाम कर सके. बच्चों की पढ़ाई, मनोरंजन और आवश्यकता पड़ने पर इलाज का बंदोबस्त कर ले. शादी ब्याह और अन्य सामाजिक, सांस्कृतिक दायित्वों का निर्वाह कर सके – बिना क़र्ज़ लिये या बिना ज़ेवर बेचे.

यह लाभदायक रोज़गार बीस से पचीस साल के बीच मिल जाना चाहिए- न कि पैंतीस और चालीस की उम्र तक रोज़गार के लिए दर – दर भटकना पड़े और उसके बाद हताश होकर अभ्यर्थी घर बैठ जायें. जब लाभदायक रोज़गार नहीं मिलता तो ग़रीबी से आत्मसम्मान को ठेस लगती है और व्यक्ति असंतोष, कुंठा और निराशा का शिकार होता है.

कल्पना की गई थी कि सर्वे भवंतु सुखिन: अर्थात सभी लोग सुखी और निरोग हों। क्योंकि अकेले या कुछ लोगों के सुखी होने से समाज का भला नहीं होता। किसी समाज में जब ऐसे असंतुष्ट लोगों की संख्या अधिक हो जाती है तो सामाजिक असंतोष, बग़ावत और क्रांतियाँ होती हैं. भारत के अनेक प्रांतों में सशस्त्र नक्सलवादियों के रेड कोरिडोर हैं. पड़ोसी देश नेपाल में तो इसी कारण राजतंत्र और हिंदू राष्ट्र ख़त्म हो गया. फिर भी हमने सबक़ नहीं सीखा। भारत के नक्सलवादियों को नेपाल के माओवादियों से सबक़ सीखना चाहिए कि वे चंद बंदूकों और बम धमाकों के बल पर क्रांति या व्यवस्था परिवर्तन नहीं कर सकते. राज्य के पास मिलिटरी, पुलिस जैसी बड़ी सशस्त्र फ़ोर्स है, इसलिए हिंसा से कोई व्यवस्था परिवर्तन संभव नहीं है. उन्हें राजनीति की मुख्यधारा में आकर जन साधारण को संगठित और आंदोलित करना चाहिए.

आज भारत में युवाओं की बेरोज़गारी भयावह हो चुकी है. भारत में पंद्रह से चौबीस साल के युवाओं में बेरोज़गारी की दर लगभग एक तिहाई 28.3% हो गई है, जबकि पड़ोसी देश बांग्लादेश में 14.7% है. भारत में वर्ष 2016 के बाद से आर्थिक विकास में लगातार गिरावट चल रही है। उसके बाद नोट बंदी और लॉकडाउन ने आम लोगों और छोटे उद्यमियों की कमर तोड़ दी। नई अर्थव्यवस्था और टेक्नोलॉजी से सारा मुनाफा चंद कारपोरेट घरानों की तिजोरी में जा रहा है। सत्तारूढ़ दलों के साथ साँठगाँठ से यही कारपोरेट घराने देश की वित्तीय और आर्थिक नीतियाँ तय करते हैं।

असंतुष्ट बेरोज़गार और गरीब मिलकर चुनाव में सत्ता परिवर्तन न कर दें, इसलिए बड़ी संख्या में लोगों को मुफ़्त अनाज, रसोई गैस, मकान, शौचालय, किसान सम्मान राशि आदि वितरित की जाती है। लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं है। समस्या का समाधान तभी होगा जब छोटे उद्यमी, किसान, मज़दूर और दस्तकार को लाभदायक रोज़गार मिले। वर्तमान में लोग मजबूरी में शहरों में बहुत मामूली वेतन पर सफ़ाई कर्मचारी, ड्राइवर, चपरासी, सिक्योरिटी गार्ड और डिलीवरी मैन का काम कर रहे हैं या फुटपाथ पर सामान बेचते हैं। इस तरह समाज में विषमता का विष बढ़ता जा रहा है।

हमें यह समझने की ज़रूरत है कि लोगों को लाभदायक, सम्मानजनक और टिकाऊ रोज़गार चाहिए न कि छोटी-मोटी राहत। आज देश में बड़ी संख्या में शिक्षित बेरोज़गार हैं, क्योंकि उनके पास डिग्री है, पर हुनर नहीं। अगर वे अपने रोज़गार लगाना चाहें तो भूमि, भवन, बिजली और कार्यशील पूँजी का संकट है। सामान बना लें तो भी बाज़ार में प्रतियोगिता का संकट है. बड़ी संख्या में लोग खेती में लगे हैं, लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी बँटवारा होते जाने से जोत छोटी होती चली गई है, जो व्यावहारिक नहीं हैं। हरित क्रांति के बाद खेती में बीज, खाद, पानी की लागत बढ़ गई है। खेती के मशीनीकरण से भी बेरोज़गारी बढ़ी है। मनरेगा से मज़दूरी तो बढ़ गई लेकिन किसान की आमदनी नहीं बढ़ी।

किसी देश में लोगों को रोज़गार मिलेगा या नहीं, यह केवल उनकी व्यक्तिगत योग्यता या भाग्य पर निर्भर नहीं करता. यह उस देश की सामाजिक, शैक्षणिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था पर ज़्यादा निर्भर करता है. व्यवस्था या नीतियों में परिवर्तन का काम संसद और विधानसभा या सरकार चलाने वाले राजनीतिक दलों का है। लेकिन चुनावी राजनीति में शामिल सभी दल देश की मूलभूत शैक्षिक व आर्थिक नीतियों के मामले में एक जैसे हो गये हैं, क्योंकि वे चुनाव खर्च के लिए चंद कारपोरेट घरानों पर निर्भर हैं।

धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति ने राजनीतिक दलों के लिए चुनाव जीतना आसान कर दिया है, इसलिए वे आम लोगों के पक्ष में व्यवस्था परिवर्तन की ज़रूरत नहीं महसूस करते. जो लोग व्यवस्था परिवर्तन की बात करते हैं, वे बिखरे और जनता से कटे हुए हैं. सर्वोदयवादी, गांधीवादी, जेपीवादी, लोहियावादी, अम्बेडकरवादी, समाजवादी और मार्क्सवादी आदि-आदि. आज ज़रूरत है कि टेक्नोलॉजी, पूँजी और सत्ता के गँठजोड़ से चल रही अर्थव्यवस्था को बदलने की ज़ोरदार मुहिम चले. नयी व्यवस्था मानव केंद्रित और विकेंद्रित हो, जिसमें सबको लाभदायक, सम्मानजनक और टिकाऊ रोज़गार मिल सके और सभी लोग सुखी हों – कोई गरीब न हो. नहिं दरिद्र कोऊ दुखी न दीना… ग़रीबी सबसे बड़ा सामाजिक अभिशाप है. जिस देश के बहुतायत लोग गरीब हैं, दुनिया भी उनकी इज़्ज़त नहीं करती.

-राम दत्त त्रिपाठी

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