जब दिमाग और दुनिया दोनों का पारा चढ़ रहा हो, खुशियों की हरियाली घट रही हो और मन का रेगिस्तान बढ़ रहा हो, तो ऐसे वैश्विक माहौल में एक ऐसी भारतीय किताब का आना बेहद अहम है, जिसे लिखने वाले वे हैं, जिन्होंने जंगली जीवों की संवेदनाओं व उनसे इंसानी रिश्तों को खुद जिया है; किताब के संपादक मनोज कुमार मिश्र, खुद एक वरिष्ठ वन अधिकारी रहे हैं। यह 50 सालों के अनुभवों से सीखकर, 50 साल बाद तक की सजीव भविष्य रेखा गढ़ने की चाहत में लिखी गई किताब है। रूपा पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित यह किताब भले ही अंग्रेजी में लिखी गई है, किन्तु इसका मन हिंदुस्तानी है। भाषा सरल और अंदाज़ किस्सागोई का है।
इसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह खुद भारत के जंगल, जंगली जीव, जंगलात, इंसानी आबादी, वर्तमान क़ानून और हमारे व्यवहार पर खुली बहस का मंच बनने को तैयार है। इस किताब के कुल 35 लेखकों में शामिल वैज्ञानिकों, पत्रकारों और अधिकारियों की तारीफ की जानी चाहिए।
पर्यावरणविदों की यह धारणा जगजाहिर है कि जंगली जीवों के शिकार से जंगल को नुक़सान होता है। जंगलात का एक रिटायर्ड अफसर ऐसा भी है, जो इस धारणा को बेझिझक खारिज करता है। जंगलों को राजमार्ग नहीं, पगडंडियां पसन्द होती हैं। जंगलों को पर्यटन के लिए खोलने से भी जंगल की शांति और समृद्धि से छेड़छाड़ के अवसर बढ़ जाते हैं। एक अन्य अफसर के अनुभव, जंगली जीवों के साथ इंसानी साहचर्य को नुक़सानदेह मानने से इंकार करते हैं। अगर कानून को ज़मीन पर उतारना है तो क़ानून और जंगल के बीच में इंसानी मन का पुल बने रहना ज़रूरी है। जंगल को व्यापारिक निगाहों से बचाने के लिए सूचना प्रौद्यागिकी का बेहतर इस्तेमाल करने की ज़रूरत है या सम्बंधित क़ानूनों में किस तरह का बदलाव करना चाहिए? व्यापार से जुड़े जंगल की चुनौतियों से पार पाने में प्रवर्तन निदेशालय की भूमिका क्या है? क्या वह उसे पूरी ईमानदारी और क्षमता के साथ वाकई निभा रहा है? जंगल के प्रति हमारा नज़रिया कैसे बदले? जंगल के भविष्य की संभावनायें और ज़रूरतें क्या हैं? यह किताब इस विमर्श का मौका देती है।
सवाल है कि यदि क़ानून है और उसे लागू करने के लिए जंगलात का अमला है तो फिर भारतीय जंगलों की समृद्धि घटती क्यों जा रही है? क्या बदलते मौसम के वर्तमान दौर और फिर अगले 50 साल बाद के आइने को सामने रखकर वन्यजीव संरक्षण क़ानूनों में बदलाव व उन्हें लागू करने की कैसी सोच व व्यवस्था की ज़रूरत है? निवेदिता खांडेकर और नेहा सिन्हा इसे लेकर ’क्रिस्टल क्लियर’ हैं। संभव है कि किताब के आखिरी पन्नों पर छपे दो लेख, पाठकों को चिंतन के प्रथम पायदान पर ले जायें। पुस्तक का मुख्य विचार बिन्दु भी यही है- सेविंग द वाइल्ड, सेक्यूरिंग द फ्यूचर।
चिड़ियाघरों को कोई मनोरंजक और पोषक मान सकता है तो कोई शोषक। किताब में जंगल व जंगली जीवों के प्रति जहां इंदिरा गांधी और मेनका गांधी की शासकीय प्रतिबद्धता के दर्शन होते हैं; तो बतौर प्रधानमंत्री देवेगौड़ा और आईके गुजराल के सुप्त भाव भी। ऐसे अनेक तथ्य, विश्लेषण, और लीक को चुनौती देते सवालों व सुझावों को समेटे वाइल्डलाइफ इंडिया@ 50 नामक यह किताब हमारी लोक प्रतिनिधि सभाओं, सरकार, अफसरशाही व नागरिकों को हमारे जंगलों और उनकी परिस्थितिकी को लेकर कुछ बेहतर सोचने व संजीदा होने के लिए चेताने का सामर्थ्य रखती है।
भाग-दो: दिलचस्प एहसासों की दुनिया
यह किताब दो भागों में बंटी हुई है। सालिम अली जैसे अप्रतिम बर्डमैन गुरु की दास्तान, एआर रहमानी जैसे उत्कृष्ट पक्षी विज्ञानी शिष्य की कलम से पढ़ना बेहद दिलचस्प है। मैट्रिक ड्रॉपआउट सालिम अली के वर्ल्ड फेम बर्डमैन बनने की कहानी से शुरू होता है किताब का वह दूसरा हिस्सा, जिसमें दस्तावेज़ से ज्यादा अंदाजे़-किस्सागोई और एहसासों की एक भरी-पूरी दुनिया है।
यहां वन संरक्षण के नाम पर लोगों के साथ धोखे की कहानी है, तो साझे की कहानी भी। जंगल हेतु उपयोगी बूमा व ट्रैकिंग आदि तकनीकों की बातें हैं, तो जंगल क़ानूनों व संस्थानों के परिचय भी और चैसिंघा, बारहसिंघा, टाइगर, कठफोड़वा की दास्तानें भी। डब्लयू डब्लयू एफ-इंडिया और देहरादून के वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट की दास्तानें गवाह हैं कि कोई इंस्टीट्यूट सिर्फ ईंट-गारा नहीं होता। जंगल के चुम्बक और उसके सम्पर्क में आने वालों पर जंगल की आभा कितनी प्राकृतिक और निर्मल रूप में चस्पां होती है, कुछ लेख ये आभास कराने में सक्षम हैं। अरुणोदय प्रदेश के जंगलों और लोगों के बीच टहलती-खोजती अपराजिता दत्ता के एहसास आपको सीखना सिखा सकते हैं। स्टेला जेम्स, नयना जयशंकर और भुवन बालाजी की मन्नार नेशनल पार्क डायरी के पन्ने पलटे बगैर तो पढ़ना अधूरा ही रहने वाला है।
ईशान कुकरेती के किस्से में ऐसा क्या है, जो जंगल के हमारे प्रबंधन में ‘बूमरेंग’ साबित हो रहा है? सोचिए कि यदि घनी शहरी आबादी में जंगली हाथी घुस आये, तो आप क्या करेंगे? ग्रेट इंडियन बास्टर्ड पर संकट मंड़राया तो हमने जो किया, क्या वह पर्याप्त है? राजस्थान की वन्यजीव संपदा को कौन बचा रहा है? जंगल-जीव संरक्षक चैंपियनों को आप जानना चाहेंगे ही। जंगलों की दुनिया के गै़र सरकारी प्रयासों और प्रतिष्ठानों से परिचय कराने की कोशिश को आप एक पुस्तक के ज़रिए जंगल का समग्र पेश करने की कोशिश कह सकते हैं।
किताब को पढ़कर आप खुद तय करें कि वाइल्डलाइफ इंडिया@ 50 आपके लिए कितनी उपयोगी है, कितनी अनुपयोगी. बतौर पाठक, मैं इतना ज़रूर कह सकता हूं कि वन संबंधी नीतियों, प्रबंधन, अध्ययन व लेखन से जुड़े लोगों को यह किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए।
-अरुण तिवारी
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