कुमार प्रशांत
गाँधी तो स्वेच्छा से चुनी हुई गरीबी को स्वीकारने की बात करते हैं. लाचारी की गरीबी अपमान करती है, लेकिन चुनी हुई गरीबी व्यक्तित्व का उत्थान करती है. हमें खुद से अपनी मर्यादाएं तय करनी चाहिए. गाँधी, विनोबा, जयप्रकाश में से किसी एक को भी भूलने की भूल हमें नहीं करनी चाहिए. दुनिया के इतिहास में केवल यही तीन नाम हैं, जिन्होंने अहिंसक क्रांति के शोध में अपना पूरा जीवन बिता दिया. कोई चौथा आदमी हुआ ही नहीं. जेपी इस श्रृंखला की बेहद मजबूत कड़ी हैं, जिन्होंने पूरी भटकन को ही एक बार में उसकी दिशा दे दी थी. गांधी एक जगह कहते हैं कि कांग्रेस वाले मुझे इसलिए पसंद करते हैं, क्योंकि मैं एक लड़वैया आदमी हूँ. उन्हें मेरी अक्ल अपने काम की नहीं लगती. तो तबकी कांग्रेस ने भी और हम सबने भी अपनी अपनी सुविधा के मुताबिक अपने अपने गांधी बना रखे हैं. गांधी तो वह व्यक्ति है, जो दक्षिण अफ्रीका से लेकर 30 जनवरी को गोली मारे जाने के एक सेकंड पहले तक केवल लड़ ही रहा था. विचारों की लड़ाई, आचारों की लड़ाई, कार्यक्रमों की लड़ाई और आज़ादी की लड़ाई तक. हम जब गांधी की बात करते हैं, उस परम्परा की बात करते हैं, तो सीधी लड़ाई से बच ही नहीं सकते. क्योंकि बिना लड़े अहिंसक क्रांति के दरवाजे खुलते ही नहीं हैं.
अपनी हत्या से थोड़ी देर पहले वे जल्दी ही आज़ाद हुए देश के दो कर्णधारों नेहरू और पटेल के बीच के मतभेद सुलझा रहे थे और एक रात पहले अस्सी बरस की उम्र में वे अपने आगामी जीवन की क्रांति का ड्राफ्ट लिख रहे थे, जिसे अब हमलोग गाँधी का आखिरी वसीयतनामा करके समझते हैं. दोनों ही काम उनकी टॉप प्रायोरिटी में शामिल थे. न कोई छोटा था, न दूसरा बड़ा. आज जब हम अपनी आगे की कोई कार्ययोजना बनायेंगे, तो इस बात से प्रेरणा ग्रहण करेंगे या नहीं? हर क्रन्तिकारी को तीन धरातलों पर काम करना पड़ता है. काल का माप क्रन्तिकारी के लिए भी वही रहता है. इसलिए कल, आज और कल इन तीन धरातलों पर जो क्रन्तिकारी काम नहीं करता, वह कभी समाज परिवर्तन का काम नहीं कर सकता. इसलिए गांधी इतिहास में उतरते हैं. जरूरी चीज़ें वहां से उठाते हैं, हमारे वर्तमान के प्रश्नों के उत्तर देते हैं और भविष्य की रूपरेखा भी हिन्द स्वराज लिखकर खींचते हैं. और आखीर में यह भी लिख देते हैं कि हिन्द स्वराज तो आज़ादी मिल जाने के बाद का नक्शा है. फ़िलहाल की लड़ाई तो संसदीय लोकतंत्र के लिए है. आगत, व्यतीत और वर्तमान तीनों को जोड़कर जो क्रन्तिकारी जवाब नहीं देता, वह व्यक्तिगत साधना भले कर ले, उसकी क्रांति जनता का विषय नहीं बन पाती. हमारी रणनीति भी यही होनी चाहिए. यदि हम समाज परिवर्तन चाहते हैं तो हमें भी कल, आज और कल के चक्र को समझना होगा. आज के सवालों के जवाब हमारे पास होने चाहिए, उनसे लड़ने की रणनीति हमारे पास होनी चाहिए और भविष्य का नक्शा भी हमारे पास होना चाहिए, तब जाकर बात बनेगी.
गांधी की क्रांति का यह दर्शन हमसे छूटना नहीं चाहिए. लक्ष्य अगर ओझल हो गया, तो दिशा भटक ही जायेगी. लक्ष्य तक पहुंचने का रास्ता क्या हो, इसका प्रयोग करने की आपको पूरी आज़ादी है. सत्य और अहिंसा नाम के दो किनारों के बीच से होकर समाज परिवर्तन की नदी बहती है. इन किनारों को छोड़े बगैर इस नदी में जितने प्रयोग संभव हों, सब किये जाने चाहिए. यही गांधी का तरीका है. इन दोनों किनारों से बिना बाहर निकले हमें ग्राम स्वराज्य के लक्ष्य तक पहुंचना है, यह याद रहे. गाँधी की क्रांति इतनी लोकतांत्रिक है कि एक लक्ष्य पकड़कर जितने प्रयोग संभव हों, सब करने की छूट देते हैं गाँधी. आज की चुनौतियों से लड़ाई भी इसी तरीके से होनी है. 1977 में वोट की ताकत से तानाशाही को परस्त करने का प्रयोग दुनिया का बहुत बड़ा प्रयोग था. वह इसी तरीके से संभव हुआ. आज उसी चुनौती का रूप बदला हुआ है. आज हम फासिज्म के सामने खड़े हैं. वह एक व्यक्ति की तानाशाही थी. उससे खतरनाक यह एक दर्शन की तानाशाही है. ये लोग हमारी संसद में, हमारे तिरंगे में, हमारे राष्ट्रगान में, हमारे राष्ट्रपिता में, हमारे संविधान में विश्वास नहीं रखते. उनके पास विकल्प हैं. उनके पास अपना संविधान, अपना झंडा और अपनी संसद की परिकल्पना है. उनका सच हमारे सामने है. हमारी आज़ादी की लड़ाई से निकले भारत की कल्पना में भी इनका विश्वास नहीं है. इनके पास अपना ही एक भारत है. ये लोग अपने इन विकल्पों की आजमाइश के लिए आज के संवैधानिक तन्त्र का बस सहारा ले रहे हैं और अपनी सोची समझी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं.
आज़ादी के 75 साल बाद आज न्यायपालिका को चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का तरीका बताना पड़ रहा है. यद्यपि न्यायपालिका की अपनी सीमा होनी चाहिए. लेकिन आज उसे यह करना पड़ रहा है. यह अच्छा है या बुरा, आप तय कीजिये और देखिये कि और कहाँ कहाँ ऐसा हो रहा है. अभी उपराष्ट्रपति का बयान सुना कि संविधान का कोई बुनियादी ढांचा ही नहीं है. अब देखने की बात होगी कि न्यायपालिका इस पर कैसे रिएक्ट करती है. आशय यह कि अगर यही होता रहा तो यह संसदीय व्यवस्था का चेहरा बदल देने की जुगत है. 2024 के चुनाव में याद रखियेगा, 1977 रिपीट होने जा रहा है. अगर हम जनमत नहीं बना सकते तो हमारा काम ही क्या बचता है? यह हमारी अपनी प्रासंगिकता का सवाल है. मेरा मानना है कि 2024 में अगर तस्वीर नहीं बदली, तो फिर इस तरह का कोई सम्मेलन भी हम कर पाएंगे या नहीं, यह सोचने की बात होगी. क्योंकि हमारी ताकत को वे भी समझते हैं, सो तोड़ना चाहते हैं. किसी को लगता है कि बिना कुछ किये भी जिया जा सकता है, तो मैं इतना ही कहूँगा कि जो घर में बैठा होगा, वह घर में बैठे बैठे मारा जाएगा और जो लड़ेगा, वह मैदान में मारा जायेगा. हम लोग जो अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद गांधी को पकड़ के बैठे हैं, फासिस्ट तानाशाही हम सबका चेहरा पहचानती है, इसलिए किसी भ्रम में मत रहना, गाँधी का नाम ही खतरनाक है.
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