अभी बीती 6 जुलाई को खाद्य एवं आपूर्ति मंत्रालय की जल्दी-जल्दी में एक बैठक हुई, जिसके परिणाम बस इतने भर दिखे कि मंत्रालय ने एडिबल आयल एसोसिएशन को लिखा कि उसे खाद्य तेलों के दाम कम से कम 15 रुपए प्रति लीटर कम करने होंगे, ताकि इंटरनेशनल मार्केट में तेल के दाम में आई कमी का लाभ भारतीय उपभोक्ता तक पंहुच सके। अब सवाल यह है कि क्या खाद्य तेल का बाजार इतना भोला-भाला है, जो सरकार के इस वक्तव्य के पीछे चल पड़ेगा और तेल के दाम 15-20 रुपए प्रति लीटर कम हो जाएंगे? जी नहीं, यह सिर्फ एक जुमला है, जो सरकार द्वारा उस समय उछाला गया है, जब खाद्य तेल के भाव स्वयं नीचे आ रहे हैं। सरकार को तो बस यह दिखाने का एक भ्रम पैदा करना है कि बाजार उसके हाथ में है और बढ़ती मंहगाई की उसे परवाह है। हकीकत तो यह है कि खाद्य तेल के मामले में पिछले आठ सालों में सरकारी नीतियां बमुश्किल दो तीन भारतीय कॉर्पोरेट्स के हाथों खरीद ली गईं हैं। इसी बदौलत बाज़ार आज ड्राइविंग सीट पर आ बैठा है, वरना आखिर खाद्य तेलों के दाम पिछले दो सालों में दोगुने कैसे हो गये?
असल में होता यह है कि जब ग्लोबल स्तर पर कमोडिटी या क्रॉप के उत्पादन में कमी नहीं आती है, तो कुछ ग्लोबल रैकेट्स, कुछ बड़े ट्रेडर्स और कुछ देशों की सरकारों के सहयोग से सप्लाई लाइन की योजना में आर्टिफिशियल शॉर्टेज को जन्म दिया जाता है। इस शॉर्टेज का खूब ढिंढोरा पीटा जाता है, जिससे वस्तुओं के दाम बढ़ते जाते हैं और यह सब होता है स्टॉक प्रोक्यौरमेंट के बल पर; जितने ज्यादा स्टॉक की होल्डिंग होगी, उतना ज्यादा बाजार पर कब्जा होगा। होता यह है कि बड़े-बड़े व्यापारी स्टॉक तो खड़ा कर लेते हैं, लेकिन बाजार में मांग की मूलभूत कमी होने पर उस स्टॉक को थामे रखना मुश्किल बन जाता है। एक अनुमानित समय में माल बिक जाने की उम्मीद पर पानी फिर जाता है, स्टॉक को दाम कम करके बेचने का विकल्प हावी हो जाता है और बाजार में भाव गिरना शुरू हो जाता है। पिछले दो महीने से यही हो रहा है, जिसके चलते तेल के भाव गिर रहे हैं।
इसे एक उदाहरण से समझिये और यह भी देखिये कि ये जो छद्म राष्ट्रवाद है, वह पब्लिक के लिए एक तरफ भावनात्मक नशा बनकर, तो दूसरी ओर अंतहीन मंहगाई की शक्ल में और अंततः कॉर्पोरेट्स की मुनाफाखोरी के रूप में किस तरह कामयाब होता है! जम्मू कश्मीर में आर्टिकल-370 समाप्त करके सरकार ने एक तरह से नव राष्ट्रवाद की व्यंजना की। यह राष्ट्रवाद असल में तो अपनी हिंदू बहुलता के ठीहे पर ही टिकता है। उधर एक मुस्लिम बहुल देश मलेशिया को भी इसे काउंटर करना था, सो वहां के प्रधानमंत्री ने कह दिया कि भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं। उनका इतना कहना भर था कि भारत सरकार ने मलेशिया से आयात होने वाले पाम आॅयल पर प्रतिबन्ध लगा दिया, जबकि सरकार ये जानती थी कि पाम आॅयल भारत के तमाम खाद्य तेलों के बाजार का मुख्य आधार है और मलेशिया से कम से कम भाड़े पर यह भारत के हल्दिया, मुंदरा, काकिनाडा आदि पोर्ट्स तक पहुंचता है, लेकिन राष्ट्रवाद की सनक भी तो कोई चीज होती है, जो वोटों की फसल तक लेकर जाती है, सो पाम आॅयल का आयात मलेशिया से बंद कर दिया गया।
देश भर में सरकारी और सनकी भोपू मीडिया ने खूब शोर मचाया कि इसे कहते हैं 56 इंच की छाती!
मलेशिया को जबरदस्त ढंग से सिखाया कि किसी दूसरे देश के आंतरिक मामलों में टांग अड़ाने का नतीजा क्या होता है? जबकि सच तो यह था कि मलेशिया से तेल आयात पर प्रतिबंध लगाने की कीमत, हमें खाद्य तेल के दोगुने मूल्य के रूप में चुकानी थी। अब जरा भारत के खाद्य तेल के दो एक कॉर्पोरेट्स की कारगुजारी देखिये। भारतीय कॉर्पोरेट्स की कई आयल रिफाइनरीज़ बांग्लादेश में हैं। इन लोगों ने इस पाम आॅयल का आयात इन्हीं बंगलादेशी रिफ़ाइनरीज़ के नाम करा लिया। खेल तो बस कागज पर ही होना था! मलेशिया ने इन्वाइस किया बंगलादेशी रिफ़ाइनरी को, अब मलेशिया ने माल की डिलीवरी सीधे भारत की उस कंपनी को दी, जिसके नाम बांग्लादेशी रिफ़ाइनरी ने इन्वाइस बनाया था। इस तरह मलेशिया का पाम आॅयल आया तो भारत की कंपनी को, लेकिन इसे भेजा बांग्लादेश से गया, न कि मलेशिया से। व्यापार अगर एक युद्ध है तो ये बांग्लादेशी रिफ़ाइनरीज वह स्टेशन हैं, जहां से सुरक्षित गोले दागे गये।
अब क्या हुआ? इन बांग्लादेशी रिफ़ाइनरीज़ ने भारत के एक पोर्ट पर जब पाम आयल की स्टॉक डेलिवर कराई तो ऑयल के दाम पांच रुपये प्रति लीटर से जो बढ़ने शुरू हुए तो बढ़ते-बढ़ते पचास रुपये प्रति लीटर और फिर दोगुने तक बढ़े। यह सब कुछ बिल्कुल योजनाबद्ध था, जिसके स्टेक होल्डर थे कॉर्पोरेट्स, सरकार और आपूर्तिकर्ता था मलेशिया। भारत के पूरे खाद्य तेल के बाजार में पाम आयल की जरूरत 35-40% की होती है। मतलब ये कि पाम ऑयल की आवक पर अगर कोई अवरोधात्मक गड़बड़ी हुई तो खाद्य तेल की पूरी इंडस्ट्री ही लडखड़ा जायेगी। इसीलिए पाम आयल का आयात खाद्य तेल के बाजार का नियामक माना जाता है। भारत में हर महीने औसतन 6 लाख मीट्रिक टन पाम आॅयल का आयात होता है, अकेला मलेशिया से ही एक से डेढ़ लाख मीट्रिक टन पाम ऑयल का हर महीने आयात होता है। और चूंकी मलेशिया का पाम आयल सबसे सस्ता होता है, इसलिए इसका आना और नहीं आना बाजार को बुरी तरह प्रभावित करता है। दरअसल सरकार ने मलेशिया से पाम आयल का आयात रोका नहीं, बल्कि वही तेल वाया बांग्लादेश मंगवाया और इस तरह भारत की सरकार ने भारत के चंद कॉर्पोरेट्स को बाजार का एकाधिकार ही थमा दिया। खेल यह है कि कॉरपोरेट्स की यह मनचाही मुराद पूरी करके सरकार ने उन्हें मालामाल भी कर दिया और भारत मलेशिया दोनो सरकारों ने अपने-अपने देश में राष्ट्रवादी होने का तगमा भी ले लिया, अपनी-अपनी पीठ भी थपथपा ली।
अब एक नजर इस बात पर डालिए कि भारतीय कॉर्पोरेट्स की बंगलादेशी रिफ़ाइनरीज से गोले किन पर दागे गये? ये गोले भारत के बाजार पर विकराल महंगाई के रूप में दागे गये! ये बात लगभग डेढ़ साल पहले की है। याद कीजिए, ठीक इसी समय से भारत में खाद्य तेलों के दाम जो बढ़ने शुरू हुए, तो दोगुने होकर ही रुके हैं । अब आज जब तेलों के भाव कम भी हुए हैं, तो कितने कम हुए? सरकार खुद पंद्रह रुपये कम होने की बात कह रही है, जबकि बढ़े तो 75-100 रुपये हैं। सवाल यह है कि जब पिछले दो तीन वर्षों में भारत में सरसों के उत्पादन में कोई कमी नहीं देखी गई है और बाजार में मांग का कोई दबाव भी नहीं है, तो आखिर किन कारणों से पिछले एक से डेढ़ साल में सरसो तेल के दाम सौ रुपये से चढ़ते-चढ़ते दो सौ के पार हो गये? वैसे भी जब सरसो तेल की भारत में ही राष्ट्रीय खपत नहीं है, तो इस पर ग्लोबल मंदी और तेजी का क्या असर होना है? उत्तर भारत, पूर्वी भारत और मध्य भारत ही सरसो तेल की मांग वाले मुख्य राज्य हैं, दक्षिण भारत तो सरसो तेल की मांग से एकदम अछूता है और पश्चमी भारत भी सरसो तेल की मांग से कोई मतलब नहीं रखता। इसलिए, सरसों तेल के दाम दोगुने होने के कारण तो निश्चय ही बनावटी और योजनाबद्ध हैं।
इस क्रोनोलोजी को समझिये कि आर्टिकल 370 की समाप्ति पर मलेशिया के प्रधान ने कहा कि भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं। इस वक्तव्य से भारत सरकार को पलीता लगा, सरकार ने मलेशिया से आने वाले उस पाम आयल पर बैन लगाया, जो भारत के पूरे खाद्य तेल के ट्रेड का मुख्य घटक था।
उधर खाद्य तेल बाजार के भारतीय हीरो ने अपनी बंगलादेश की रिफ़ाइनरी से लाखों टन पाम आयल आयात किया और भारत की कंपनीयों को निर्यात किया, जिससे भारत आने वाले पाम आयल पर उस इक्के दुक्के आयल टैकून का एकाधिकार स्थापित हुआ और देखते ही देखते भारत में तमाम खाद्य तेलों के दाम साल भर के अंदर दोगुने हो गये। आपको क्या लगता है, भारत सरकार इस पूरे खेल से अनभिज्ञ रही होगी? उसे यह पता नहीं था कि मलेशिया से पाम आयल का आयात बैन करने से भारत के बाजार में खाद्य तेल के उद्योग में क्या होगा? क्या ये बात सरकार नहीं जानती होगी कि भारत में औसतन जो पांच लाख मीट्रिक टन पाम ऑयल आयात होता है, उसमें अकेले मलेशिया की हिस्सेदारी 25% है? मलेशिया पाम ऑयल आयात का सबसे सस्ता विकल्प है, उसे बाधित करने पर या आयात मार्ग बदलने पर बाजार में कैसी तेजी आयेगी? क्या सरकार को यह अनुमान नहीं था कि भारत के कुल आयात का लगभग 25% हिस्सा जब किसी एक के हाथ चला जाएगा, तो बाकी के 75% असंगठित अपने आयातित पाम के दाम बढ़ाने पर मजबूर होंगे? कहीं ऐसा तो नहीं कि असल में सरकार अपने पसंदीदा उद्योगपति को ही तेल के पूरे कारोबार का एकाधिकारी बनाना चाहती थी?
भारत के खाद्य तेलों में इतनी वेराइटी है और इसका वितरण इतना विकेंद्रित रहा है कि बिना एकाधिकार स्थापित किये न तेल के दाम दोगुने होते, न ही कंपनियों की कमाई इतनी परवान चढ़ती। यह सब निस्संदेह सरकार और कॉर्पोरेट की मिलीभगत से हुआ है। याद है न, कोविड के गाढ़े दिनों में भी अडानी अंबानी के मुनाफ़े में हजारों प्रतिशत का इजाफा हुआ था! कुल मिलाकर यह सबकुछ सरकार और उसके प्रिय एक दो चुनिंदा कॉर्पोरेट्स की मिलीभगत का नतीजा था। पिछले 6-8 महीनों में देश-विदेश के तिजोड़ियों ने तेल का जो इतना बड़ा स्टॉक प्रोक्योर किया, मांग के अभाव में अब उसे थामे रखना मुश्किल हो गया है, इसलिए भाव कम करके बेचना अब उनकी मजबूरी है, जनता को मिलने वाली कोई रियायत नहीं। खाद्य तेलों के भाव अभी जितना टूटे हैं, उससे कहीं और ज्यादा टूटने वाले हैं। यह मंहगाई आई नहीं है, खासकर खाद्य तेलों की, इसे योजनाबद्ध तरीके से लाया गया है। और अब तेल के भाव कहीं 15 रुपये से ज्यादा न गिर जाएं, इसकी व्यवस्था की जा रही है।
-जितेश कांत शरण
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