शिक्षा केवल पुस्तकों से सीखना या किन्हीं तथ्यों को कंठस्थ करना मात्र नहीं है, यह सीखना भी शिक्षा है कि अवलोकन कैसे किया जाय। पुस्तकें जो कह रही हैं, उसे कैसे सुना जाय कि जो वे कह रही हैं, वह सच है अथवा झूठ! यह सब श्क्षिा का ही अंग है। परीक्षाएं पास करना, कोई डिग्री एवं पद प्राप्त करना, विवाह करना तथा सुस्थिर हो जाना ही शिक्षा नहीं है, उसका यह भी अर्थ है कि हम इस योग्य बनें कि पक्षियों के कलरव को सुन सकें, अकाश को देख सकें, वृक्षों तथा पहाड़ियों के स्वरूप के अनुपम सौन्दर्य का अवलोकन कर सकें, उनका अनुभव कर सकें, उनका वास्तव में परोक्ष रूप से साक्षात्कार कर सकें। जैसे-जैसे आप बड़े होते हैं, दुर्भाग्य से सुनने और देखने का यह बोध समाप्त होता जाता है; क्योंकि आपकी अपनी चिंताएं बढ़ती जाती हैं, आप और अधिक धन, एक बढ़िया कार, अधिक अथवा कम संतान चाहने लगते हैं। आप ईर्ष्यालु, महत्त्वाकांक्षी, लालची तथा द्वेषपूर्ण होते जाते हैं। इस प्रकार आप पृथ्वी के सौन्दर्य का बोध खो देते हैं। आप जानते है कि विश्व में क्या हो रहा है? आप सामयिक घटनाओं का अध्ययन कर रहे होंगे। युद्ध हो रहे हैं, विद्रोह हो रहे हैं, राष्ट्रों के बीच फूट पड़ रही है। इस देश में भी फूट है, विभाजन है, लोगों की संख्या बढ़ रही है, निर्धनता है, गन्दगी है और उसके साथ है बड़ी क्रूरता। मनुष्य जब तक स्वयं पूर्णतया सुरक्षित है, तब तक इसकी परवाह नहीं करता कि दूसरे पर क्या बीत रही है। आपको इसी सब के अनुकूल बनने की शिक्षा दी जा रही है। आप जानते है कि संसार विक्षिप्त है। यह लड़ाई, यह झगड़ा, धमकाना, एक-दूसरे को चीरना-फाड़ना यह सब विक्षिप्तता ही तो है। और आप इसी के लिए हैं कि आप स्वेच्छा से या बिना स्वेच्छा के भी इस विक्षिप्त संरचना, जिसे समाज कहा जाता है, के अनुरूप बनें? क्या आप जानते हैं कि विश्व के तमाम धर्मो में क्या हो रहा है? यहां भी मनुष्य विघटित हो रहा है, अब कोई किसी पर विश्वास नहीं करता और धर्म केवल व्यापक प्रचार का परिणाम मात्र बनकर रह गया है।
जब कि आप अभी तरुण हैं, निर्मल हैं, अबोध हैं, तब क्या आप पृथ्वी के सौन्दर्य को देख सकते हैं, स्नेह के गुण को प्राप्त कर सकते हैं, और क्या उसे सुरक्षित भी बनाये रख सकते है? क्योंकि यदि आप ऐसा नहीं करते तो जैसे-जैसे आप बड़े होंगे, आप समाज के अनरूप बनेंगे, क्योंकि जीने की वही सर्वाधिक सरल विधि है। जब आप बड़े होंगे, तो आप में से कुछ विद्रोह भी करेंगे, परन्तु वह विद्रोह भी समस्या का उत्तर नहीं होगा। आप में से कुछ समाज से दूर भागेंगे, परन्तु उस भागने का भी कोई अर्थ न होगा। आपको समाज को बदलना है, परन्तु लोगों की हत्या करके नहीं। समाज हम और आप हैं। जिस समाज में हम रहते हैं, उसे आपने और मैंने बनाया है। इसलिए आपको खुद को बदलना है। आप इस भयानक समाज के अनुरूप नहीं बन सकते, इसलिए सोचिये कि आप क्या करने जा रहे है? आप इस अनुपम घाटी में रह रहे हैं, क्या आपको भी कलह, भ्रान्ति, युद्ध, घृणा से भरे इस विश्व के बीच फेंका जाने वाला है? क्या आप भी इन तमाम प्राचीन मूल्यों को स्वीकार करने, उनके अनुरूप बनने जा रहे है? आप जानते हैं कि ये मूल्य अर्थात धन, पद, सम्मान, शक्ति, क्या है। यही सब है, जो मनुष्य चाहता है और समाज चाहता है कि मूल्यों के इसी प्रारूप के अनुरूप आप बनें। परन्तु यदि आप विचार करना, निरीक्षण करना और सीखना आरम्भ करें- सीखना पुस्तकों से नहीं, वरन् स्वयं विश्व में जो चारों ओर हो रहा है, उसे देखकर, सुनकर- तो आप एक ऐसे भिन्न प्रकार के मनुष्य के रूप में विकसित हो सकते हैं, जो सतर्क है, जिसमें स्रेह है, जो लोगों से प्रेम करता है। यदि आप इस प्रकार रहें तो संभवत: आपको एक सच्चा धार्मिक जीवन प्राप्त हो सकता है।
अत: प्रकृति को, इस अम्लिका वृक्ष को, बौर फूटते आम कुंजों को, आप देखें और सबेरे तड़के तथा ढलती संध्या में पक्षियों का कलरव सुनें। स्वच्छ आकाश को, उसके तारों को देखें, कितने अनुपम सौंदर्य के साथ सूर्य उन पहाड़ियों के पीछे अस्त होता है। उन तमाम रंगों को, पत्तियों की आभा को, भूमि के सौन्दर्य को, पृथ्वी की संमृद्धि को देखें। यह सब देखकर और यह भी देखकर कि अपनी तमाम कुरूपता, हिंसा एवं पाशविकता के साथ विश्व क्या है, फिर आप तय करें कि आप क्या करने जा रहे है? क्या कभी आपने सोचा है कि वस्तुओं को ध्यान से कैसे देखते हैं? जब आप किसी वृक्ष को ध्यान से देखते हैं, तो उसके समग्र सौन्दर्य को देखते हैं. आप उसके पत्तों और टहनियों को देखते हुए यह भी देखते हैं कि हवा कैसे उनके साथ खेल रही है. जब आप ध्यान से सुनते हैं, तो पक्षियों के संगीत की विभिन्न ध्वनियों के बीच का अंतर भी सुन लेते हैं. जब आप ध्यान से देखते या सुनते हैं तो अधिक स्पष्टता से देखते, सुनते हैं. ध्यान एकाग्रता से भिन्न वस्तु है. जब आप एकाग्र होते हैं, तो आप प्रत्येक वस्तु को नहीं देखते किन्तु जब ध्यान में होते हैं, तो आप प्रकाश का वह स्वरूप भी देखते हैं, जो पत्तियों से छन छनकर टहनियों और तने पर पड़ रहा होता है. ध्यान एक अद्भुत क्रिया है.
-जे कृष्णमूर्ति
कृष्णमूर्ति फाउन्डेशन इंडिया की पुस्तक ‘शिक्षा संवाद’ से
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