आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाने की घोषणा सुनकर मुझे लगा था कि गांधी के सपनों के अनुरूप अवश्य कुछ होगा. शान्ति, समृद्धि और सद्भाव रूपी अमृत की वर्षा होगी, सर्वोदय-स्वराज के दर्शन होंगे तथा भारत की एकता और सुदृढ़ होगी. किन्तु ऐसा दूर-दूर तक होता नजर नहीं आ रहा है. उलटे चारों और भयोत्पादक शोर और कोलाहल सुनने को मिल रहा है, धर्म संसदों से, तबलीगी जमातों से, सियासी चौपालों से तथा और भी कई ऐसी जगहों से, जिनका नाम लेना आम आदमी के लिए खतरे से खाली नहीं है.
शुरुआत धर्म से करते हैं. इस अमृत काल में हर धर्म में ‘कुछ लोग’ हैं, जो अपने-अपने धर्म को अतीत यात्रा पर ले जाने को कटिबद्ध हैं. उनको लगता है कि उनके धर्म के स्वरूप में ही सृष्टि का परम सत्य छिपा है और आज ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, गणित, अर्थशास्त्र आदि जो कुछ भी अच्छा दीख रहा है, उनके धर्म का ही बाई प्रोडक्ट है. पहले दुनिया जाहिल थी, उनका मजहब आया, तभी इस धरती पर तहजीब आयी. ऐसे लोग मध्य काल से आगे निकलना ही नहीं चाहते. 1960 के दशक में अज्ञेय ने इन ‘कुछ लोगों’ की इस सोच को देशज अन्धता कहा था. यह देशज अन्धता आज अमृत काल में भी अपनी झांकी दिखला रही है.
वासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा है कि सहिष्णुता भारत की जन्मघुट्टी में है. समवाय इस देश का गुरुमन्त्र है. यह पृथ्वी जिस जन की धात्री है, उनकी भाषाएँ अनेक और उनके धर्म अनेक हैं. इस अनेकता में तो जीवन का वरदान छुपा हुआ है, यदि हम उसको बुद्धिपूर्वक समझ सकें. दस हजार वर्षों से ‘दिने दिने नवल नवल’ रूप में जीवंत हिन्दू धर्म के ‘कुछ लोग’ इस वैदिक अवधारणा को बुद्धिपूर्वक समझने को तैयार नहीं हैं. वे सहिष्णुता और समन्वय को व्याधिपूर्वक देखने के आदी हो गए हैं. एक बानगी देखिए. हाल ही में बुकर पुरस्कार से पुरस्कृत लेखक गीतांजलि श्री के सम्मान में आगरे में समारोह होना था. अचानक इसे स्थगित कर दिया गया. कारण? आयोजकों से समारोह स्थगित करने की मांग करते हुए किसी व्यक्ति ने आरोप चस्पां कर दिया कि उनकी पुस्तक ‘रेत समाधि’ में शिव-पार्वती पर कुछ अवांछित लिखा हुआ है. आयोजक सहम गए और समारोह स्थगित हो गया. हमारे मिथिलांचल में हर विवाह पंचमी पर स्त्रियाँ भगवान राम को गाली सुनाती हैं, तो क्या हमें यह सांस्कृतिक आयोजन रद्द कर देना चाहिए? इस अमृत बेला में असहिष्णुता की इस बढ़ती प्रवृति पर हर प्रबुद्ध हिन्दू को सोचना होगा.
आज हिन्दू राष्ट्र की बड़ी चर्चा है. सोशल मिडिया पर सुर्खुरू लोग हिन्दू राष्ट्र का संविधान तक लिखने लगे हैं. भारतीय वांग्मय के विख्यात अध्येता पंडित विद्या निवास मिश्र लिखते हैं, ‘दो तरह के भारतीय होते हैं. एक कहता है, मैं भारत का हूँ. दूसरा कहता है, भारत मेरा है. एक अपने को भारत को सौंपता है, दूसरा भारत पर अपना दावा स्थापित करता है. दुर्भाग्य है कि अधिसंख्य भारतीय दूसरी कोटि के हैं.’ देश के प्रति समर्पण ही सच्ची राष्ट्रीयता है, दावेदारी कभी राष्ट्रीयता नहीं हो सकती. आज राष्ट्रवाद के दावेदार अमृत महोत्सव की अग्रिम पांत से ऐलान कर रहे हैं कि यह राष्ट्र उनका है. यहाँ वही होगा, जो वे तय करेंगे. इस देश का इतिहास गलत लिखा गया है, इसका वे पुनर्लेखन करेंगे. अमृत महोत्सव मनाते हुए हमें यह भी सोचना होगा कि राष्ट्रवाद के इस स्वामित्ववादी योजना से भारत का कल्याण नहीं होगा. याद रहे, भारत प्राकृतिक राष्ट्र है, लोक राष्ट्र है, सांस्कृतिक राष्ट्र है. जब भी इसे धर्म-राष्ट्र बनाने की कवायद हुई, इसे विपर्यय का मुख देखना पड़ा.
हमारी स्वतंत्रता 75 की हुई तो लोकतंत्र भी पचहत्तर का हुआ. दोनों जुड़वां भाई बहन हैं. लेकिन हम सिर्फ आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं. संभव है, संविधान लागू होने के पचहत्तरवें वर्ष में लोकतंत्र महोत्सव का भी आयोजन हो. आज हम सेहतमंद लोकतंत्र की कामना करें, यही बहुत है. मजबूत लोकतंत्र के लिए मजबूत विपक्ष भी चाहिए. यदि विपक्ष मजबूत नहीं है तो सबल सत्ता पक्ष का फर्ज है कि विपक्ष की असहमति को तवज्जो दे. इस अमृत महोत्सव में हमारी प्राथमिकता लोकतंत्र को अमृत छकाने की होनी चाहिए. बकौल न्यायमूर्ति धनञ्जय चन्द्रचूड़, ‘असहमति जनतंत्र का सेफ्टी वाल्व अथवा सुरक्षा उपकरण है. असहमति को दबाना और लोगों के मन में डर पैदा करना वैयक्तिक स्वतंत्रता और सांविधानिक मूल्यों का उल्लंघन है.’
आज असहमति गुनाह बन गयी है. विरोधियों के खिलाफ ईडी और सीबीआई का इतना इस्तेमाल इसके पहले कभी नहीं हुआ. आप नहीं जानते, कब आपकी किस बात से उनकी आस्था आहत हो जाए और देखते-देखते बारह राज्यों में आपके खिलाफ एफआईआर दर्ज हो जाए. आज के पहले हमने बुलडोजर न्याय होते देखा था क्या? आरोपी गिरफ्त में न आए तो उसके घर की कुर्की होती थी, किन्तु आज आरोपी गिरफ्तार है फिर भी उसके मकान को बुलडोज़र से जमींदोज कर दिया जाता है. और टीवी मीडिया इस कारवाई के समर्थन में कसीदे पढ़ती है.
मुल्क के मौजूदा हालात देखकर ऐसा नहीं लगता कि इस अमृत महोत्सव में जश्न और जलसे के सिवा आम-जन के लिए कुछ बेहतर होगा. बेहतरी के लिए हमें गांधी की वट-छाया में चलना होगा, जहां अमृत रूप में सब कुछ है.
-डॉ सुख चन्द्र झा
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