यदि भारत में इस्लाम के आने के बाद से शुरू करें तो भक्ति काल एक ऐसे रूप में सामने आता है, जब भारतीय संस्कृति एक कदम और आगे बढ़ गई. महत्व की दृष्टि से देखें तो यह एक कदम काफी बड़ा कदम है. इससे पहले भारत में जन्मे धर्मों को छोड़ कर किसी दूसरे धर्म का भारत में कोई खास प्रभाव नहीं था। ईसाई धर्म का प्रवेश जरूर इस्लाम के आने से सदियों पूर्व पहली सदी में (52 ई) हो चुका था, लेकिन वह भारत के एक छोटे से दक्षिणी भाग में सिमटा हुआ रहा।
ईसा पूर्व पाँचवी सदी में बौद्ध और जैन धर्म प्रचलित हो चुके थे। इनके पहले वैदिक धर्म का विकास हो चुका था। इन धर्मों में अंदरूनी संवाद जितना भी रहा हो, परंतु आपस का संवाद नहीं के बराबर था। बुद्ध और महावीर समकालीन थे। लंबे समय तक काम करते रहे, फिर भी इन्होंने आपस में कभी मुलाक़ात नहीं की। इससे यही पता चलता है कि उस समय अपनी-अपनी राह चलते रहो, यही व्यवहार प्रमुख था, आपसी संवाद का चलन नहीं था।
आपसी संवाद-
विवाद तब शुरू हुआ, जब बौद्ध धर्म ने वैदिक धर्म की दुर्नीतियों, कुरीतियों और अंधविश्वासों से लोहा लेना शुरू किया। बौद्ध धर्म की अहिंसा ने इस मुक़ाबले को विचार की ताकत से लड़ा। यही कारण था कि दुर्दम्य सम्राट अशोक ने ई०पूर्व तीसरी सदी में हिंसा से त्रस्त होकर वैदिक धर्म छोड़ दिया और बौद्ध धर्म को अपना लिया।
आदि गुरु शंकराचार्य के काल (आठवीं सदी) में जो वाद-संवाद की प्रक्रिया शुरू हुई, वह शास्त्रार्थ के रूप में विकसित हुई और परवान चढ़ी। शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ को हार–जीत की सीमा से बाहर निकाला। उसे समन्वय करने वाली प्रक्रिया के रूप में उजागर किया। उन्होंने स्वयं अपने दार्शनिक विचारों में बौद्ध धर्म के अनेक तर्कों और विचारों को शामिल कर लिया। वैदिक धर्म के कट्टरपंथी तत्वों को समन्वय की यह बात नागवार गुज़री। इन्होंने आदि शंकराचार्य को छिपा हुआ ‘प्रच्छन्न बौद्ध’ कहकर अपने मन का गुस्सा निकाला। लेकिन भक्ति काल में यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई कि विभिन्न धर्मों में आपसी लेन-देन संभव है और वे सभी कुल मिलाकर एक ही ईश्वर या सत्य के पूजक हैं। ऋग्वेद की बात ‘एकम् सत् विप्राः बहुधा वदन्ति’ अब ज़्यादा मान्य होने लगी।
जहां बुद्ध, महावीर और शंकर के दार्शनिक विचारों की धारा को रामानुज (11वीं सदी) से लेकर वल्लभाचार्य (16वीं सदी) तक ने आगे ले जाकर भारतीय समाज को तर्क बुद्धि और ज्ञान से समृद्ध बनाया, वहीं इस्लाम धर्म को मानने वाले निज़ामुद्दीन औलिया जैसे संतों और उनके शागिर्द अमीर खुसरो (13वीं सदी) जैसे कवियों ने भारतीय समाज में भक्ति काल की नींव रखी।
ये सूफी संत और कवि अपने आध्यात्मिक संदेशों को आम लोगों के बीच फैलाते थे। इसमें हिन्दू और मुसलमान का कोई फ़र्क नहीं करते थे। दोनों धर्मावलम्बियों के बीच वे समान रूप से आदरणीय थे। धार्मिक बंधनों से अलग इस सूफी धारा के प्रस्फुटन काल में ही संत ज्ञानेश्वर (13वीं सदी) सरीखे प्रखर बुद्धि और गहरी भक्ति वाले कवि भी पैदा हुए। इनकी ‘ओवियों’ ने भक्ति धारा को अत्यंत सशक्त बना दिया। इसी श्रेणी में कश्मीर की लल्लेश्वरी (14वीं सदी) का जिक्र महत्वपूर्ण होगा, जिन्होंने कश्मीर में एक ऐसी दोस्ताना संस्कृति को विकसित करने में योगदान दिया, जो आज भी सांप्रदायिक राजनीति के बावजूद ज़िंदा है।
भक्ति काल ने एक ऐसी भारतीय संस्कृति को पैदा किया, जिसमें विभिन्न धार्मिक विचारों और भावनाओं का समन्वय था। संत कबीर (15वीं सदी) से लेकर रहीम, रसखान, जायसी, सूरदास, रविदास, मीराबाई, बुल्ले शाह और संत तुलसीदास आदि कवियों और संतों को भुलाया नहीं जा सकता। इन्होंने बुद्धि, साहस और अनुभूति का जोड़ बैठाकर भक्ति काल को नूरानी बना दिया था।
भक्ति काल कबीर को विशेषकर इसलिए याद करेगा कि उन्होंने समाज की एकता को तोड़ने वाले धार्मिक अंधविश्वासों, कर्मकांडों और कुरीतियों पर बेबाक और जोरदार प्रहार किया। 16 वीं सदी में बंगाल के चैतन्य महाप्रभु की कृष्ण भक्ति ने तो एक जन आन्दोलन का रूप ले लिया था, जिसमें बड़ी संख्या में हिन्दू और मुसलमान शामिल थे। चैतन्य के ‘बाउल’ गीत और धुनें आज भी बंगाल के गाँव-गाँव में मशहूर हैं। बाउल गीतों की तरह ही महाराष्ट्र में तुकाराम के अभंग, हिन्दू हों या मुसलमान, गरीब हों या अमीर सभी के बीच बड़ी श्रद्धा के साथ गाए जाते हैं। संत तुकाराम चैतन्य महाप्रभु के ही शिष्य थे।
अमीर खुसरो तो हिंदी और उर्दू दोनों के जनक माने जाते हैं। भक्ति काल के मुसलमान कवियों का इस्लाम पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उनके बीच एक नई सूफी विचारधारा का विकास हुआ। कट्टर इस्लाम ने इस सूफी धारा का स्वागत भले न किया हो, लेकिन आम मुसलमानों और हिंदुओं के व्यापक क्षेत्र में यह सहज स्वीकृत हुआ। इसका सबूत देश भर में फैले हुए प्रसिद्ध मुसलमान संतों की मजारों से मिलता है। एक दूसरे के प्रति समादर का यह भाव भारत के अनेक पंथों पर भी पड़ा और ये सभी एक दूसरे के ज्यादा नजदीक आए, एक दूसरे से सीखा और भारतीय संस्कृति को शक्ति प्रदान की। तुलसीदास की रामायण इसका ज्वलंत उदाहरण है। इसकी पांडुलिपि को कट्टर हिंदुत्ववादियों ने सरयू नदी में फेंक दिया था, क्योंकि एक धार्मिक पुस्तक, संस्कृत में न लिखी जाकर, ब्रज भाषा में लिखी गई थी। कहानी है कि कुछ मल्लाहों ने इसे देख लिया और फेंकने वालों के जाते ही पांडुलिपि छानकर निकाल ली। तुलसी रामायण राम की कथा को प्रचारित करने में ही नहीं, आम भारतीयों के मानस में प्रवेश कराने में भी, वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में लिखी गई रामायण से कहीं ज्यादा सफल है। इससे हर धर्म, हर पंथ के लोग परिचित हैं और हिंदू धर्मावलंबियों पर इसका बहुत प्रभाव भी दीखता है।
सभी धर्मों और पंथों में यह जो सद्भावना की लहर फैली, वह एक आधुनिक संत रामकृष्ण परमहंस के जीवन में ज्वलंत रूप से प्रकट हुई। असल में यह जो सर्वधर्म समभाव की विचारधारा है, उसे सशक्त बनाने में रामकृष्ण परमहंस की अहम भूमिका है। परमहंस एक आश्चर्यजनक कोटि के साधक थे। वे उपासक तो थे काली मां के, लेकिन हर जीव और हर प्रकार की आस्था कहीं न कहीं जाकर एक ही स्वरूप को प्राप्त होती है, ऐसा उनका मानना था। इसके लिए उन्होंने अत्यंत साहसी प्रयोग भी किए। विभिन्न आस्थाओं की मूल साधना पद्धति को आधार बनाकर उन्होंने साधना की और यह जांचने की कोशिश की कि इस रास्ते से सत्य के दर्शन हो सकते हैं या नहीं। शायद सत्य उनके सामने काली माता के रूप में प्रगट होता रहा हो। ऐसा प्रयोग उन्होंने इस्लाम धर्म के साथ भी किया और कुछ मुल्लाओं के कहने पर गौमांस खाने तक की तैयारी बताई, लेकिन उसी जमात के कुछ सुलझे हुए मुल्लाओं ने कहा कि नहीं, इस्लामी कर्मकांड के अनुसार गौमांस खाना अनिवार्य नहीं है। परमहंस को इस्लामी साधना पद्धति के माध्यम से भी सत्य के दर्शन हुए। स्वयं के अनुभव से सिद्ध, सभी धर्म मूल रूप से एक ही हैं, इस तथ्य को रामकृष्ण परमहंस ने समाज में स्थापित किया।
रामकृष्ण परमहंस के शिष्यों, खासकर स्वामी विवेकानंद ने सभी धर्मों की समानता की इस विचारधारा को तार्किक आधार दिया और दुनिया भर में फैलाया। कर्म, ज्ञान और भक्ति, मनुष्य जीवन के ये विभिन्न आयाम सभी धर्मों में एक जैसे ही हैं, यह उनकी मान्यता थी। भारत वर्ष को हिन्दू धर्म के मस्तिष्क और इस्लाम धर्म के शरीर की आवश्यकता है, वे ऐसा भी कहा करते थे। विवेकानन्द धार्मिक भावनाओं से ऊपर उठकर कर्मकांड मुक्त जो आध्यात्मिक ज्ञान है, उसका समाज जीवन में प्रवेश करा रहे थे। लेकिन दुर्भाग्य से उनकी मृत्यु 1902 में 39 वर्ष की अल्पायु में ही हो गई।
इसी काल में महात्मा गांधी का प्रादुर्भाव हुआ। सभी धर्मों की समानता का ज्ञान उन्हें अपने व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों से प्राप्त हुआ था। इस अनुभव सिद्ध सत्य को गांधी मानवीय समाज जीवन के आधार स्तंभों में से एक मानते थे।
उनकी मान्यता थी कि विभिन्न धर्मों, पंथों, जातियों, नस्लों में बंटे लोग जब भेदभाव छोड़कर एक साथ जीना और मरना सीख लेंगे, तभी एक मानवीय समाज बन पाएगा और वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र और आज़ाद हो सकेगा। वे मानते थे कि आजादी जिसे वे स्वराज के रूप में देखते थे, चाहे समाज की हो या व्यक्ति की, उसके लिए सभी धर्मों और आस्थाओं के प्रति समभाव का होना आवश्यक है। व्यक्ति की अंतिम आज़ादी के बारे में भारतीय धर्मों में जो मोक्ष या निर्वाण की परिकल्पना है, गांधीजी का उस पर भी विश्वास था और इसके लिए भी वे सर्वधर्म समभाव को अनिवार्य मानते थे। यह उनके लिए मनुष्य की अनगिनत आस्थाओं का एकाकार हो जाना था। अपने जागरूक जीवन की शुरुआत से ही वे धर्मों की समानता के व्यावहारिक अनुभवों से गुजरे और सत्याग्रह के लिए किए गए अपने प्रयोगों में लोगों को संगठित करने के लिए उन्होंने इस सत्य का एक औज़ार के रूप में उपयोग किया। वास्तव में यही वह सत्य था, जिसके लिए वे शहीद भी हुए।
सर्वधर्म समभाव के पीछे जो सभी जीवों को अपना लेने का भाव है, उसे भी समझना पड़ेगा। यह समझ हमें सभी मनुष्यों की समानता से आगे ले जाकर सभी जीवों की एकता तक ले जाती है। वास्तव में प्रकृति की एकता का जो आध्यात्मिक मूल्य और वैज्ञानिक अनुसंधान है, उसी में से मनुष्य समाज के लिए सर्वधर्म समभाव की मान्यता छान कर निकाली गई है।
गांधीजी की विशेषता थी कि जिस सत्य को वे स्वीकार करते थे, उसे तुरंत अपने जीवन में उतार लेते थे और वह सत्य कैसे समाज के जीवन में उतर जाये, इसके लिए भी वे पूरी सजगता के साथ बेताब रहते थे। इसके लिए उन्होंने कर्मकांडों को छोड़, अलग-अलग प्रकार के सत्कर्मों पर आधारित सत्याग्रही अध्यात्म और सत्याग्रही राजनीति का ईज़ाद किया।
प्रयोगों के आधार पर जिस सत्याग्रही राजनीति का आविष्कार गांधीजी ने किया था, उसी के सहारे सर्वधर्म समभाव के मूल्य को भी वे समाज जीवन में उतारने के लिए प्रयोग करते रहे। वह सत्याग्रही राजनीति ही थी, जिसने खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन को साथ जोड़ने का प्रयोग किया था। नेतृत्व के स्तर पर यह सफल नहीं हुआ तो निराशा भी हुई। अब हिन्दू–मुसलमान का प्रश्न ईश्वर के हाथ में है, ऐसी गांधीजी की प्रतिक्रिया थी, लेकिन समाज में जमीनी नेतृत्व के स्तर पर इस प्रयोग के बहुत ही सकारात्मक परिणाम आए।
धार्मिक मुस्लिम नेताओं के नकारात्मक प्रयास से आम मुस्लिम समाज भारत की आज़ादी की लड़ाई से कट-सा गया था, लेकिन खिलाफत और असहयोग आंदोलन की सत्याग्रही राजनीति का संयुक्त प्रभाव ऐसा हुआ कि जमीनी स्तर पर अनेक ऐसे नेता उभरे, जो मुसलमान थे और पूरे समाज के द्वारा स्वीकृत थे। यदि हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक शक्तियों ने जिन्ना के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग का आपसी नफरत फैलाने में साथ नहीं दिया होता तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा भारत का बंटवारा कर देना कत्तई संभव नहीं था।
महात्मा गांधी ने सर्वधर्म समभाव की इस धारणा का आगे भी विकास किया। उन्होंने ईश्वर की सत्ता को पीछे छोड़, सत्य की सत्ता को आगे किया। उन्होंने कहा कि ईश्वर सत्य नहीं है, बल्कि सत्य ही ईश्वर है। यह कबीर की उलटबाँसी की तरह है, जिसने धर्म के आडम्बरी खोल को तोड़कर फेंक दिया। खोल वाले सारे संगठित धर्म वास्तव में नफरत और युद्ध के बीज हैं, समाज में ऐसी धारणा विकसित हुई। जिन आचार्य विनोबा भावे को गांधी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी कहा जाता है, उन्होंने स्पष्ट किया है कि धर्म का ज़माना लद गया। अब वह एक तोड़ने वाली ताकत बन गया है। अगर मनुष्य और मनुष्य को जोड़ना है तो धर्म और राजनीति को छोड़कर विज्ञान और उससे मेल खाने वाले अध्यात्म को पकड़ना होगा। गांधी के एक अन्य शिष्य, किशोरलाल मशरुवाला जिन्हें काफी ऊंचे दर्जे का विद्वान माना जाता था, ने तो एक कदम आगे जाकर कहा कि अब सर्वधर्म समभाव की जगह सर्वधर्म अभाव की बात कहनी होगी, तभी हमें व्यक्ति से लेकर दुनिया भर की हिंसा से छुटकारा मिल पाएगा।
स्पष्ट है कि जो राजनीति आध्यात्मिक मूल्यों को छोड़कर संगठित धर्म से जुड़ी होगी, वह देश और दुनिया के लिए विनाशकारी होगी और जो समाज सत्य के विज्ञान को छोड़कर कर्मकांडी धर्म से जुड़ा होगा, उसका स्वभाव ही आपसी नफरत से भरा होगा। ऐसे समाज में किसी भी प्रकार के उदात्त मानवीय मूल्यों की कोई जगह नहीं बच पाएगी ।
-कुमार शुभमूर्ति
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