गांधीजी का मानव से महामानव तक का जीवन मानवीय मूल्यों पर आधारित एक अद्भुत प्रयास है. उसी जीवन व विचार को विनोबा ने हमारे समक्ष सर्वोदय विचार दर्शन के माध्यम से परिभाषित किया है. उत्तम साध्य की प्राप्ति शुद्ध साधनों के बगैर नहीं हो सकती, इस पर गांधी जी का पूरा विश्वास था. इसलिए अहिंसक समाज निर्माण के लिए जीवन जीने के तरीके भी अहिंसक होने चाहिए, यह उनकी मान्यता थी.
गांधीजी कहते हैं कि उनके जीवन में आमूलचूल परिवर्तन लाने वाली रस्किन की लिखी किताब ‘अन टू दिस लास्ट’ से मैंने सर्वोदय के जिन मूल सिद्धांतों को समझा, वे ये कि सबकी भलाई में ही मेरी भलाई है. एक वकील और एक नाई की कमाई अमूमन एक समान होनी चाहिए. सादगीपूर्ण, शरीरश्रम आधारित किसानी का जीवन ही सच्चा जीवन है. गांधीजी आगे लिखते हैं कि इस किताब ने मेरे भीतर सर्वोदय का जीवन दर्शन स्पष्ट किया.
1909 में गांधी जी ने आदर्श सामाज के निर्माण के लिए आवश्यक सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास को परिभाषित करने वाली किताब हिंद स्वराज लिखी. आगे चलकर इसी किताब को गांधी विचार का घोषणापत्र माना गया. इस किताब में वे वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था व केंद्रित विकास के मॉडल को नकारते हैं. विकेंद्रीकृत गांवों में स्वायत्त, स्वावलंबी और परस्पर सहयोग पर आधारित मानव विकास को केंद्र में रखकर ही हम अहिंसक समाज का निर्माण कर सकते हैं, यह बात वे अंत तक कहते रहे. गांधीजी की हत्या के बाद 11 से 15 मार्च 1948 को देश भर के प्रमुख साथियों और अनुयायियों का सेवाग्राम में मिलन हुआ. गांधीजी के विचार को देश के गांव-गांव तक कैसे पहुंचाया जाए, इस बैठक में इसी विषय पर गंभीर मंथन हुआ.
इसी मंथन में विनोबा ने सर्वोदय समाज की आचार संहिता रखी. उन्होंने सबको समझाते हुए कहा कि हमको सोचना है कि अहिंसा पर आज हमारी श्रद्धा कितनी गहरी है. अहिंसा एक तरीका है. जनता और सरकार उसके लिए अनुकूल नहीं होती, ऐसी स्थिति में हमारी अपनी श्रद्धा क्या कहती है? क्या हम भी उस आदर्श से नीचे उतरकर समाज के हिंसक तरीके अपना लें? या अपनी श्रद्धा और विश्वास पर टिके रहकर मर मिटें? शायद किसी को ऐसा भी लगे कि दो चार आदमियों के मर मिटने की अपेक्षा बेहतर होगा कि कुछ लोग नीचे ही उतर जाएं और अपनी श्रद्धा में थोडा़ सा पानी मिला दें, लेकिन मेरी श्रद्धा कहती है हम मर मिटें, यही श्रेयस्कर है. उसमें हमारा कर्तव्य पूरा हो जाता है.
इसी मिलन सभा में सर्वोदय संगठन पर बात रखते हुए विनोबा कहते हैं कि मै बंधुत्व संघ या भाई-चारा संघ की बात कर रहा हूं. इस संस्था के नियम कम से कम हों, लेकिन साफ हों. हम संख्या में भले कम हों, लेकिन संस्था के मानी के विषय में क़ोई संदेह न रहे. हमें किसी फतवा देने वाली संस्था की जरूरत नहीं है. समय- समय पर जो लोग कुछ कहना या सुझाना चाहते हैं, वे पत्रिकाओं और अखबारों में अपने विचार लिखें. नियमों का मनमाना अर्थ करने का अधिकार किसी को न दिया जाए. हर एक अपनी बुद्धि और विवेक के मुताबिक नियमों का अर्थ करे.
विनोबा कहते हैं कि सिद्धांत और विचार देना एक काम है और प्रत्यक्ष व्यावहारिक शिक्षण देना दूसरा काम है. ग्रामोद्योग खादी आदि के विषय में प्रत्यक्ष शिक्षण देकर काम कराने के लिए चरखा संघ आदि संस्थाएं हैं. वे नये नये कार्यकर्ता तैयार करें, अपना एक मिलापी संघ बनाकर अपने कामों में एकता पैदा करें. विनोबा ने जो नया संघ बनाया है, उसकी भूमिका दूसरी तरह की है. वह सैद्धांतिक या व्यावहारिक पहलुओं के बारे में पूछने पर या अपने आप भी सलाह देगी. जरूरत पड़ने पर नुक्ताचीनी भी कर सकती है, लेकिन फतवा निकालना उसका काम नहीं होगा. विनोबा हमें आगाह करते हुए बताते हैं कि महत्व की बात साधन शुद्धि की है. बापू ने जिंदगी भर हमें यही सिखाया कि जैसे हमारे साधन होंगे, वैसे ही हमारे मकसद होंगे. साधनों का रंग मकसद पर चढ़ता है, इसलिए जरूरी होता है कि अच्छे मकसद के लिए साधन भी अच्छे ही होने चाहिए.
आखीर में जब संस्था के नाम पर चर्चा शुरू हुई, तो विनोबा ने कहा कि संघ की जगह पर समाज शब्द रखा जाये. संघ शब्द एक विशिष्ट मर्यादा को दर्शाता है. उसमें व्यापकता की कमी है. समाज व्यापक है और सर्वोदय शब्द के साथ मिलकर उसकी व्यापकता पूर्ण हो जाती है. नाम का परिवर्तन महत्व की चीज होती है. बहुत सारा काम नाम से ही हो जाता है. जीवन में परिवर्तन करने की शक्ति अच्छे नामों में भी समाहित होती है.
विनोबा के आशीर्वाद से 15 मार्च 1948 को सेवाग्राम में सर्वोदय समाज बना. पहला सर्वोदय समाज सम्मेलन 7 से 11 मार्च 1949 को राऊ, इंदौर (मध्यप्रदेश) में हुआ. इस सर्वोदय समाज सम्मेलन में आगे की प्रक्रिया पर विस्तृत योजना बनी. शोषणरहित, समतामूलक, अहिंसक समाज निर्माण को समर्पित उद्देश्यों के लिए कार्यरत सर्वोदय समाज को अब 74 वर्ष होने जा रहे हैं.
-अविनाश काकड़े
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