डॉ. महेश विक्रम
शिक्षा आदिम काल से मानव जाति द्वारा जीव जगत के बारे में अपने संचित और संशोधित या परिमार्जित होते रहे अनुभवों को अपनी नई पीढ़ियों में संप्रेषित करते रहने की प्रक्रिया का ही नाम है। इसमें किन्ही सुनिश्चित भौगोलिक और प्राकृतिक परिवेश में विकसित अपनी-अपनी सामाजिक संस्कृतियों के साथ ही अपनी पारलौकिक कल्पनाओं या अवधारणाओं का योग होना स्वाभाविक है। पुन: जीवन-यापन और आत्म-रक्षा के लिए विकसित होती रही विधाओं और प्रविधियों यथा शिल्प-कौशल तथा ज्ञान-विज्ञान का औपचारिक या अनौपचारिक शिक्षण-प्रशिक्षण इसी प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसमें कृषि, कारीगरी, उद्योग, व्यापार-व्यवहार और उसका प्रबंधन, आवास-निर्माण, प्रतिरक्षा और युद्ध-कौशल सभी कुछ सम्मिलित है। शिक्षा की उपरियुक्त जीवंत परिभाषा से इतर विभिन्न संस्कृतियों में सामान्यत: संगठनात्मक या औपचारिक स्तर पर शिक्षा को धार्मिक और सांस्कृतिक परम्पराओं के अनुगमन का माध्यम बनाए रखने की ही प्रवृत्ति परिलक्षित हुई। यही नहीं, उसकी पात्रता के विधान भी निर्मित कर दिए गए। कारण चाहे जो कहे जाएं, वर्गीय सांस्कृतिक आग्रह, यथास्थितिवादी प्रभुतावादी राजनीतिक, सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था आदि कुछ भी, यह विवेचना का विषय हो सकता है, लेकिन हमारे वर्ण-जाति विभेद पर आधारित सनातनी भारतीय संदर्भ में इसका पूरा व्यवहार होते पाया जा सकता है। बौद्ध या अब्राह्मण शिक्षा पद्धति में यद्यपि ऐसा कोई विभेद नहीं अपनाया गया, फिर भी उसका स्वरूप अधिकाधिक दार्शनिक, साहित्यिक और मठीय ही होता रहा और कालांतर में हमारे देश से उसका पूर्ण विस्थापन भी हो गया। इस्लामी सत्ताओं के आगमन के साथ ही समानान्तर रूप से स्थापित उनके मदरसों में इस्लामी सांस्कृतिक-धार्मिक शिक्षण का व्यवहार ही अमल में रहा, हालांकि उसमें जातीय विभेद जैसी कोई पद्धति नहीं अपनाई गई।
ज्योति बा फुले
आधुनिक काल में विभिन्न कारणों से पुनर्स्थापित मानवीय चेतना और आधारभूत तर्कों के साथ ही नई भौतिक राजनीतिक परिस्थितियों, अनिवार्यताओं और आकांक्षाओं ने समाज और हमारे राष्ट्र के नवनिर्माण के चिंतन-मंथन की स्थिति या विवशता पैदा की। अपेक्षित या अनपेक्षित रूप से ही औपनिवेशिक काल में पश्चिमी देशों के अनुभव से अनुप्रेरित नए प्रकार की संस्थागत शिक्षण-संस्थाओं की स्थापना उसका एक अनिवार्य अंग बन गई और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के विषयों का शिक्षण आधुनिक युग की जरूरत मानी गई। इसके दरवाजे सैद्धान्तिक रूप से तो सभी के लिए खोल दिए गए, परंतु जैसा कि महात्मा ज्योति बा फुले द्वारा अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत हंटर कमीशन को इस निमित्त दिये गए प्रतिवेदन से प्रकट है कि शिक्षा की इस नई संस्थागत व्यवस्था में भी आम लोगों के उद्यम से उपजे राजकीय कोष का लाभ कतिपय उच्च वर्गों या जातियों तक ही सीमित रहा। साथ ही, बहुधा मैकाले की शिक्षा पद्धति के नाम से चर्चित इस शिक्षण प्रणाली के लिए अपनाए गए तौर तरीकों से शिक्षा किताबी और सैद्धांतिक ज्ञान तक सीमित रही। आम जन के जीवन-व्यवहार और सरोकारों से सर्वथा पृथक औपनिवेशिक शासन-प्रशासन के संचालन के लिए उपयोगी क्लर्कों के रूप में हिंदुस्तानी सेवकों की एक फौज तैयार करने और शेष समाज से उन्हें काट देने का यह माध्यम बनी रही। शारीरिक श्रम और किताबी ज्ञान का यह विभेद भारतीय समाज में एक नए सामाजिक वर्गीकरण का कारण बना।
तथापि, जैसा कि इस शिक्षा पद्धति को भारत में लागू करते समय ब्रिटिश संसद में उठे सवालों में यह आशंका व्यक्त की गई थी कि आजादी और सामाजिक-राजनीतिक क्रांतियों के पश्चिमी जगत के आधुनिक अनुभवों और ज्ञान का सम्प्रेषण भारतीयों में उनकी औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध विद्रोह की मानसिकता पैदा कर सकता है, वैसा हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व के निर्माण में देखा भी जा सकता है। आज़ादी की लड़ाई के समय से ही शिक्षा के क्षेत्र में इस चेतना का परिचय महात्मा गांधी द्वारा प्रेरित विद्यापीठों और जामिया मिलिया जैसी शिक्षण संस्थाओं की स्थापना में मिलता है, जो अंग्रेजी हुकूमत से स्वतंत्र ऐसी स्वायत्त संस्थाएं थीं, जिनका उद्देश्य देशज दर्शनों और विचारों के अनुरूप एक समतावादी समाज के निर्माण की अभिप्रेरणा से युक्त आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और तर्क-पद्धति का शिक्षण-प्रशिक्षण देना था, जो किसी प्रकार की नई-पुरानी ग्रंथियों से मुक्त एक नए और स्वतंत्र राष्ट्र के स्वप्न के लिए उपयुक्त पथप्रदर्शकों और कार्यकर्ताओं का निर्माण कर रही होतीं। आजादी मिलने के दो वर्ष पहले (18 अगस्त, 1945) ही काशी विद्यापीठ में विद्यार्थी अध्ययन मण्डल पाठ्यक्रम के लक्ष्य को प्रतिपादित करते हुए आचार्य नरेंद्र देव ने लिखा था, ‘अध्ययन का लक्ष्य सामाजिक, राजनीतिक एवं अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं को समझने की वैज्ञानिक दृष्टि विकसित करना है। अध्ययन किसी प्रकार के पूर्वाग्रहों से मुक्त हो, किसी वैचारिक चौखटे में जकड़ा न हो। उसमें चिंतनात्मक प्रगतिशीलता हो, बौद्धिक तटस्थता नहीं। अध्ययन की सोद्देश्यता, मानवीय जीवन दृष्टि का विस्तार, सामाजिक परिवर्तन, स्वतन्त्रता और समानता के प्रति आस्थावान दृढ़ता के सृजन में निहित है’।
आज़ादी प्राप्त होने के साथ-साथ हमारे देश के नवनिर्मित संघीय ढांचे के अनुसार की गई संवैधानिक व्यवस्था में शिक्षा को केंद्र और राज्य की समवर्ती सूची में स्थान दिया गया। फलस्वरूप प्रदेश सरकारों द्वारा राजकीय स्रोतों और संरक्षण से स्कूली, माध्यमिक और उच्च शिक्षा के अनेक नए केन्द्रों और संस्थानों की स्थापना हुई। स्कूली स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक किसी भी प्रकार के धार्मिक और जातीय लक्षणों या प्रतिबंधों का निषेध करते हुए सबको शिक्षा के समान अवसर प्रदान करने के लिए बड़ी संख्या में नई पाठशालाएं, विद्यालय और महाविद्यालय खुले, जिनमें प्रारम्भ में धर्मार्थ संस्थाओं और निस्वार्थ समाज-सेवियों का भी पर्याप्त योगदान रहा। इसके साथ ही देश की नई भौतिक आवश्यकताओं के अनुरूप बौद्धिक क्षमताओं के विकास की आशा से शिक्षण-प्रशिक्षण के नए ढांचे के निर्माण का परामर्श देने हेतु तत्कालीन प्रमुख उद्योगपतियों टाटा-बिरला की एक समिति भी गठित की गई। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की वैज्ञानिक दृष्टि और अभिप्रेरणा से जहां एक तरफ देश में केंद्रीय स्तर पर आईआईटी, भाभा पारमाणविक परीक्षण केंद्र, अन्तरिक्ष अनुसंधान केंद्र, ओएनजीसी, बीज एवं कृषि उन्नयन शोध केन्द्रों जैसे अनेक लब्धप्रतिष्ठ उच्चस्तरीय तकनीकी संस्थानों और आईएमए जैसे चिकित्सा संस्थानों का निर्माण हुआ या उनकी आधारशिला रखी गई तथा उपस्तरीय तकनीकी और प्रौद्योगिकी के शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए आईटीआई जैसे केंद्र खोले गए, वहीं राज्य सरकारों द्वारा भी इसके लिए अनेक पॉलीटेकनिक संस्थानों की स्थापना की जाती रही। कुल मिलाकर इस सबका उद्देश्य आधारभूत ज्ञान-विज्ञान के शिक्षण और शोध के लिए स्थापित स्कूलों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के समानान्तर आधुनिक तकनीकी के प्रशिक्षण और रोजगार के नए नए क्षेत्रों एवं अवसरों का निर्माण ही था। लेकिन जहां इस प्रकार की समानान्तर व्यवस्थाओं के अंतर्गत एक ओर तत्कालीन आधुनिक शिक्षा प्रणाली की पारंपरिक संस्थाओं पर यह प्रश्न उठते रहे कि वह पूर्णतया सैद्धान्तिक और किताबी होने के साथ ही निष्कर्षहीन सेमीनारों या गोष्ठियों जैसे शैक्षणिक व्यायामों पर अपव्यय का विषय बनी हुई है, जिसका समाज की वास्तविक आवश्यकताओं और आम जन के हित में सामाजिक परिवर्तन के व्यवहारों से कोई सरोकार नहीं रहा है, वहीं इससे निर्मित होने वाले हमारे शिक्षित युवाओं के लिए यह उपार्जन या रोजगार का कोई व्यापक स्रोत उपलब्ध कराने में भी असफल रही है।
आचार्य नरेन्द्र देव
होना तो यह चाहिए था कि हमारी आबादी के 70% से अधिक स्वयंजीवी समुदायों (40 % से अधिक किसान, खेतिहर मजदूर, कृषि आश्रित व्यवसाय और सेवाएं, पशुपालक, 20% तक शिल्पकार व कारीगर, अन्य श्रमिक और आदिवासी, अन्य व्यवसाय, व्यापारी आदि) के सामाजिक सरोकारों की दृष्टि से शिक्षा की इस व्यवस्था में अपेक्षित तत्वों को जोड़ा जाए। उपयुक्त आर्थिक नीतियों और शिक्षा द्वारा ऐसे समुदायों की आय और सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि की जाए। साथ ही सरकारी और सहकारी क्षेत्र में नए नए उद्यमों के विकास द्वारा रोजगार के अतिरिक्त अवसर पैदा किए जाएं। इसमें संदेह नहीं है कि वर्तमान में किसी भी देश की आर्थिक समृद्धि का नया पैमाना वहां उपलब्ध होने वाला सेवा क्षेत्र ही होता है, जो वहां के उद्योगों और राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर निर्भर करता है। इस दृष्टि से हमारे देश में नए सेवा क्षेत्रों और नौकरियों का सृजन एक बड़ी जरूरत समझा गया, जिसका संबंध निश्चित रूप से नई शिक्षा प्रणाली से था। रोचक यह भी रहा कि इस बार इस क्षेत्र में सरकार को परामर्श देने के लिए टाटा-अंबानी समिति का गठन किया गया। परिणामत: पिछली शताब्दी के अंतिम दशकों से ही युवाओं के लिए रोजगार के अवसर बढ़ाने की जरूरतों और नव व्यापारिक या कारपोरेट पूंजीवाद के दबाव या प्रलोभन के फलस्वरूप शिक्षा की इस समानान्तर पद्धति में व्यापक घाल-मेल प्रारम्भ हुआ। रोजगारपरक शिक्षा के नाम पर आधारभूत विषयों के ज्ञान एवं शोध और नैतिक विकास के शिक्षा केन्द्रों को वर्तमान औद्योगिक और व्यापारिक जगत के सेवार्थ अनेक उपस्तरीय या उपाश्रयी शिल्प-कौशल या प्रबंधकीय प्रशिक्षण से संलग्न किया जाना प्रारम्भ हुआ। इससे मानवीय या सामाजिक विकास के लिए हमेशा से जरूरी माने गए आधारभूत ज्ञान-विज्ञान के विषयों की उपेक्षा होना स्वाभाविक था। ऊपर से सरकारों द्वारा इसके लिए शिक्षा के बजट में अपेक्षित वृद्धि के अभाव में ऐसे सभी नए रोजगारपरक पाठ्यक्रम स्ववित्तपोषित कार्यक्रम के रूप में चलाए जाने से शिक्षार्थियों पर आर्थिक बोझ बढ़ा और शिक्षकों या प्राध्यापकों की अस्थाई या संविदात्मक नियुक्ति की नई पश्चिमी पद्धति ने बल पकड़ा। हाल के वर्षों में बिना उपयुक्त बहस के आरोपित की गई नई शिक्षा नीति में घोषित प्रारम्भिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा में व्यक्ति, समाज, राष्ट्र के उत्थान और रोजगार की संभावनाओं पर की गई महान घोषणाओं के बावजूद व्यवस्था की दृष्टि से राज्य की भूमिका को शिक्षा पर केंद्रीय नियंत्रण तक सीमित करते हुए आधारभूत संरचनाओं और वित्तीय व्यवस्थाओं के विस्तार की कोई बात नहीं दिखाई देती है। इससे शिक्षा के मामले में हमारे देश का संघीय ढांचा तो प्रभावित होता ही है, शिल्प-कौशल की योग्यता या उसमें रुचि के आंकलन की स्थिति प्रारम्भिक स्कूली स्तर से ही निर्धारित कर दिए जाने की योजना, स्तरीय सरकारी या वित्तसंरक्षित स्कूलों के समाप्त होने या मिश्रित किए जाने के साथ ही स्कूलों को तेजी से महंगे निजी संगठनों को सौंपते जाने से कमजोर वर्गों और जातियों के बच्चों के लिए समान शिक्षा और सम्मानजनक उच्च प्रशिक्षण के दरवाजे बंद होना भी स्वाभाविक है। विडम्बना यह भी है घोषित रूप से पूंजीवादी कहे जाने वाले देश भी जहां अनिवार्य रूप से प्रारम्भिक से माध्यमिक स्तर तक अपने सभी बच्चों को समान एवं मुफ्त शिक्षा प्रदान करते हैं और पड़ोसी स्कूलों की व्यवस्था चलाते हैं, वहीं हमारे देश में शिक्षा ठीक उल्टी दिशा में जाती दिख रही है। इसमें समानता के अवसरों और नैतिकता और मानवीय मूल्यों पर आधारित ज्ञान-विज्ञान का दर्शन तो पहले ही लुप्त हो चुका है, सार्वजनिक क्षेत्र के बड़े उद्यमों और प्रतिष्ठानों के निजीकरण के साथ स्थायी सरकारी नौकरियों का दौर भी समाप्त हो चुका है। अत्याधुनिक तकनीकी से युक्त होते हुए निजी क्षेत्र अपने मुनाफे के ख्याल से ज्यादा नौकरियां देने के लिए उत्सुक नहीं दिखता। संविदात्मक प्रणाली में प्रतिष्ठापरक रोजगार और असीमित आय के क्षेत्र अत्यंत सीमित या वर्गीय हैं, जबकि निजी क्षेत्र में रोजगार और उपार्जन के सामान्य स्रोत असम्मानजनक और अत्यल्प आय वाले सेल्समैनों और घर घर सामग्री पंहुचने वाले हाॅकरों जैसे हैं, जो पूरी तरह बाजार की आवश्यकताओं और उसके उतार चढ़ाव पर निर्भर हैं। इसलिए शायद हम विचार कर सकें कि शिक्षा के किन मूल्यों की बलि देकर हम कितने और कैसे रोजगार हासिल करने में सफल हो सके हैं!
-डॉ. महेश विक्रम
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