विलुप्त हो चुकी बालूचरी शिल्पकला के पुनर्जीवन की कहानी

नवाबों के शासन के बाद ब्रिटिश शासन में इन प्रसिद्ध शिल्पकारों को संरक्षण से वंचित कर दिया गया; जीविका पर आये संकट के कारण इनका जीवित रहना मुश्किल हो गया। किसी प्राकृतिक आपदा में उनका गांव बालूचर भागीरथी नदी में बह गया। उसके बाद ये बुनकर जियागंज और मुर्शिदाबाद जिलों के अन्य स्थानों पर चले गए। इस आपदा में उन्होंने नवाबों द्वारा उन्हें उपहार में मिली संपत्ति भी खो दी। संरक्षण की कमी और प्राकृतिक आपदाओं का शिकार होने के कारण काबिल बुनकरों के इस समूह को इस प्रसिद्ध शिल्प को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा।

14 वीं या 15 वीं शताब्दी में मुगल शासन के दौरान वाराणसी से निकला अनुभवी बुनकरों का एक समूह बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में जियागंज के पास एक गांव बालूचर में जाकर बस गया। गाँव का यह नाम सम्भवतः भागीरथी की बलुई गाद से बनी जमीन पर बसा होने के कारण पड़ा था. कुशल बुनकरों का यह समूह रेशम के धागे से साड़ियों पर सुंदर डिजाइनें बनाने के लिए प्रसिद्ध था। इन बुनकरों को नवाबों और कुलीनों द्वारा उनके और उनके परिवार के सदस्यों के लिए कपड़े बनाने के लिए ख़ास तौर पर संरक्षण दिया गया। आम तौर पर साड़ी की चौड़ाई 45 इंच होती है, पर नवाबों और कुलीनों के परिवारों की महिलाओं के लिए बुनी गई साड़ियां टखनों और ऊपर से पहने जाने वाले गहनों को प्रदर्शित करने के उद्देश्य से 38 इंच चौड़ाई की होती थीं।


इन कुशल बुनकरों को नवाबों द्वारा उनके श्रम के बदले खेती योग्य भूमि, तालाब आदि उपहार में दिए गए थे। ये बुनकर प्रति परिवार प्रति वर्ष केवल 2 से 3 साड़ियों का उत्पादन करने के लिए खुद को साल भर व्यस्त रखते थे। वे पारंपरिक थ्रो शटल लूम का इस्तेमाल करते थे, जिन्हें आमतौर पर पिट लूम के नाम से जाना जाता है। डिज़ाइन बनाने के लिए संख्या शटल का उपयोग व्यक्तियों की संख्या के आधार पर होता था। आवश्यक शटल की संख्या डिजाइन के प्रकार पर निर्भर करती थी। पारंपरिक बालूचरी के निर्माण के लिए शटल को संचालित करने और यार्न को समायोजित करने के लिए ज्यादा लोगों की जरूरत पडती थी। इतने सारे लोगों को रोजगार देने के बाद भी इस तरह के सुंदर कपड़े बनाने में कई दिन लग जाते थे। पारंपरिक बालूचरी डिजाइन की विशेषता उन पर बनने वाली आकृतियां होती हैं। साड़ी का बॉर्डर, आंचल या पल्लू के डिजाइन से मेल खाता है। कपड़े के प्रत्येक वर्ग मिलीमीटर में उचित प्रभाव लाने के लिए अलग डिज़ाइन होते हैं।

पश्चिम बंगाल की बालूचरी साड़ी


नवाबों के शासन के बाद ब्रिटिश शासन में इन प्रसिद्ध शिल्पकारों को संरक्षण से वंचित कर दिया गया। जीविका पर आये संकट के कारण इनके लिए जीवित रहना मुश्किल हो गया। किसी प्राकृतिक आपदा में उनका गांव बालूचर भागीरथी नदी में बह गया. उसके बाद ये बुनकर जियागंज और मुर्शिदाबाद जिलों के अन्य स्थानों पर चले गए. इस आपदा में उन्होंने नवाबों द्वारा उन्हें उपहार में मिली संपत्ति भी खो दी। संरक्षण की कमी और प्राकृतिक आपदाओं का शिकार होने के कारण काबिल बुनकरों के इस समूह को इस प्रसिद्ध शिल्प को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. चालीस के दशक के मध्य में इस कला के जानकार अकेले जीवित बुनकर की मृत्यु के साथ ही बालूचरी बुनाई कला लगभग विलुप्त हो गयी. स्वतंत्रता के बाद कपड़ा मंत्रालय, भारत सरकार ने देश के पारंपरिक वस्त्र को पुनर्जीवित करने की कोशिश की, लेकिन वे बालूचरी को पुनर्जीवित करने में सफल नहीं हो सके।


हनुमान दास शारदा, जो मूल रूप से एक व्यापारी थे और उनके पूर्वज विष्णुपुर में आकर बस गए थे, वे स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए और महात्मा गांधी के संपर्क में आकर उन्होंने खादी के उत्पादन का आयोजन शुरू किया। उन्होंने विष्णुपुर में रेशम खादी सेवा मंडल नामक एक संगठन की स्थापना की और मृत्यु तक इसके प्रमुख आयोजक बने रहे। उनको एक अभिलेखागार से बालूचरी साड़ी का एक पुराना टुकड़ा मिला. इसके बाद हनुमान बाबू बंगाल की इस प्रसिद्ध कपड़ा कला को पुनर्जीवित करने के लिए विचार करने लगे. वह एक ऐसे व्यक्ति की तलाश में थे, जो इस पुनरुद्धार प्रक्रिया में तकनीकी रूप से उनकी मदद करने की स्थिति में हो। अक्षय कुमार दास एक कपड़ा डिजाइनर थे. कालान्तर में वे भी विष्णुपुर आकर बस गए. वे हनुमान बाबू के संपर्क में आए और दोनों दिमाग आपस में जुड़ गए. इस प्रकार प्रसिद्ध बालूचरी कला के पुनरुद्धार की प्रक्रिया शुरू हुई। हनुमान बाबू के पुत्र भगवान दास शारदा ने भी उनकी सहायता की।


उनके बनाये रेशम खादी सेवा मंडल ने शुरू में मात्र 5000 रूपये से काम शुरू किया और आगे चलकर भारत सरकार से अनुसंधान सब्सिडी प्राप्त की। इस प्रकार कड़ी मेहनत और उचित योजना के साथ बालूचरी का पहला टुकड़ा कई दशकों के बाद 1957 ईस्वी में अपने जन्म स्थान के करीब जियागंज में नहीं, बल्कि विष्णुपुर में तैयार किया गया। इसके बाद संगठन ने न केवल विष्णुपुर में, बल्कि उसी जिले के सोनामुखी में भी व्यावसायिक रूप से विस्तार करते हुए बालूचरी का उत्पादन जारी रखा। रेशम खादी सेवा मंडल की सफलता के बाद, खादी क्षेत्र के तत्वावधान में एक अन्य स्वैच्छिक संगठन अभय आश्रम ने भी बालूचरी का व्यावसायिक उत्पादन शुरू किया। मोटे तौर पर अनुमान लगाया गया है कि विष्णुपुर और सोनामुखी में लगभग 40 से 50 बालूचरी बुनकर खादी, हथकरघा और अन्य क्षेत्रों में काम कर रहे हैं।


हालांकि मूल बालूचरी में ज्यादातर मुस्लिम और शाही चित्रांकन ही होते थे, किन्तु समय में परिवर्तन के साथ हिंदू पौराणिक कहानियों और अन्य सामाजिक चित्रांकन भी पेश किये जाने लगे. झारग्राम खादी और ग्रामोद्योग संघ नामक एक संगठन ने इस कला को मिदनापुर जिले के झारग्राम में आदिवासी चित्रांकनों के साथ संमृद्ध किया। रेशम खादी सेवा मंडल में इस कला को लम्बे समय तक चलाने और संवारने की क्षमता है. किसी संकट के समय में शुभचिंतकों की समय पर मदद से इसे संभाला भी जा सकता है। 70 के दशक में किसी समय विपणन का गंभीर संकट था, लेकिन उस समय भी प्रमुख बंगाली समाचार पत्र आनंद बाजार पत्रिका और खादी ग्रामोद्योग आयोग की मदद से संकट को टाला गया था।


दूसरा संकट डिजाइनिंग लागत का बढ़ना था. यद्यपि बाजार ने उत्पाद की अंतिम कीमत तय की थी, पर डिजाइन की लागत काफी बढ़ गई. प्रति टुकड़ा 75/- की दर पर उत्पाद बेचे जाते थे, यह मुश्किल हो गया. क्योंकि एक तो प्रति डिज़ाइन लागत मूल्य बढ़ गया, दूसरी ओर डिजाइन के लिए अतिरिक्त कार्यशील पूंजी प्रदान करने का कोई रास्ता नहीं था, इस प्रकार डिजाइन के लिए खर्च किया गया पूरा फंड अवरुद्ध हो गया। ऐसे में खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग और एसआईडीबी ने मिलकर विष्णुपुर में कंप्यूटर एडेड डिजाइन सिस्टम की स्थापना के लिए लगभग रु 4, 00,000 / – खर्च किये।


असली संकट भगवान दास शारदा की मृत्यु के बाद आया। शारदा कबीले के किसी भी निकाय की इस संगठन में दिलचस्पी नहीं थी, क्योंकि यह एक गैर-लाभकारी संगठन है। प्रशासनिक और वित्तीय अराजकता अलग से थी। दुर्भाग्य से अभय आश्रम में भी प्रशासनिक और वित्तीय संकट था। इसका सीधा असर बालूचरी कला पर पड़ा। इसने बुनकरों के सामने जीविका के लिए किसी भी संगठन में जाने की स्थिति पैदा कर दी। अपने अस्तित्व के लिए उन्होंने गुणवत्ता पर विचार किए बिना उत्पादों का विपणन करना शुरू कर दिया। इस प्रकार मांग के बावजूद उत्पाद का ब्रांड खराब होने लगा।


कला को पूरी तरह विलुप्त होने से बचाने के लिए अभी भी समय है। क्लस्टर को संपूर्ण गुणवत्ता प्रबंधन स्थापित करने वाले संगठन की छत्रछाया में लाया जाना चाहिए। रेशम खादी सेवा मंडल को प्रबंधन इनपुट और नर्सिंग फंड के साथ पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। सौभाग्य से स्थानीय जन नेता राजनीतिक मतभेदों को भूलकर इस विरासत, इस संगठन और इस कला को बचाने के लिए आगे आ रहे हैं। जो संगठन की मदद करने में सक्षम हैं, उन्हें भी संगठन को प्रभावी ढंग से मदद करने के लिए आगे आना चाहिए।

-जी के घोष

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