अगरबत्ती उद्योग पर ग्लोबलाइजेशन की मार

पहले जब यह उद्योग आयात और मशीन से बचा हुआ था, तो इसमें कॉटेज उद्योग के चरित्र थे, ह्यूमन इंटेंसिविटी ज्यादा थी, तब विकेंद्रीकरण था और अब बड़ी बड़ी पूंजी है, औटोमेशन है, मार्केटिंग के एक से एक इंतजामात हैं। पहले जब यह उद्योग अनऑर्गनाइज्ड था, तब सरकार की जीएसटी, वैट जैसे करों की वसूली इतनी व्यवस्थित नहीं थी, जितनी आज है। भारत की अर्थव्यवस्था में ग्लोबलाइजेशन के प्रवेश और आयात में मुनाफाखोरी ने बांस से सींक बनाने की इस वृहत्तर रोज़गार व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया.

किसी भी प्रजातांत्रिक देश की इकोनॉमी में रोजगार से बड़ी प्राथमिकता कुछ और नहीं होती। रोजगार की यह प्राथमिकता तब और प्रचंड होती है, जब आबादी स्वयं बाज़ार हो और इकोनॉमी को लाभ देने वाली आधारभूत घटक हो. दूसरी तरफ उसकी शर्त केवल इतनी भर होती है कि टेक्नोलॉजी बेपरवाह न हो और मुनाफाखोर व्यवस्था द्वारा गढ़ी गयी नीतियों के नियन्त्रण में न हो! अब ये एकदम साधारण-सी बात है कि पूंजी और टेक्नोलॉजी पर सवार विकास अगर रोजगार से बेपरवाह हो, तो कितना बड़ा आतंकी हो सकता है…! आज लगभग 15 से 18 हजार करोड़ रूपये का भारत का अगरबती उद्योग और उसका घरेलू बाजार इसी आतंकी विकास का मॉडल बना हुआ है, आखिर बेरोजगारी की प्रचंड आंधी ऐसी ही नहीं आई है।

भारत में अगरबत्ती उद्योग का घरेलू बाजार करीब 18 हजार करोड़ सालाना है। मतलब देश में एक वर्ष में 18 हजार करोड़ रूपये की अगरबत्ती बनती है और उपयोग में लायी जाती है। अभी 8-10 वर्ष पहले तक यह उद्योग अकेले 25 लाख ग्रामीण आबादी के लिए मुख्य रोजगार प्रदाता क्षेत्र रहा है. अगरबत्ती का मुख्य घटक बांस से बनी वह सींक होती है, जिस पर एक खास तरह का मसाला लपेट कर अगरबत्ती बनती है. अगरबत्ती उद्योग के लिए बांस से सींक बनाने का यह काम ग्रामीण आबादी में रोज़गार पैदा करने वाला काम रहा है।

हमारे गाँवों में रोजगार का बजाप्ता एक सिस्टम रहा है, जिसके तहत एक महिला गांव के किसी बांस बेचने वाले से महज 50 रुपये का एक बांस खरीद लेती थी। घर का सारा काम निपटाने के बाद यह महिला हफ्ते भर में बांस से सींक का एक बंडल बनाती और उसे गांव के ही सेठ को 5 सौ रुपये में बेच देती। मैंने स्वयं देखा है कि उत्तर पूर्वी राज्यों असम, मणिपुर, त्रिपुरा आदि के ग्रामीण इलाकों में बांस की प्रचुरता ने इस तरह के रोजगार की कैसी व्यापक श्रृंखला और कितनी बड़ी इकोनॉमी खड़ी कर रखी थी। इसकी सबसे खास बात यह थी कि सामाजिक और पारिवारिक परिवेश में बिना किसी अड़चन और परिवर्तन के यह सिस्टम एक महिला को दो हजार रुपये के सहज रोजगार से जो ताकत देता था, उसका कोई सानी नहीं था। किसी विशेष क्षेत्र में बांस की उपलब्धता और पूरे देश में अगरबत्ती के लिए बांस की सींक की मांग इस रोजगार की इकोनॉमी के मुख्य आधार थे।

किसी तथ्य को नम्बर और आंकड़ों के बरक्स समझने के ख्याल से हम ऐसा समझ सकते हैं कि दस रुपये की अगरबत्ती की 25 तीलियों की तयारी में दो रुपये के बांस की सींक के लिए ग्रामीण रोजगार, खासकर एक अशिक्षित और ग्रामीण महिला को मिलने वाला रोज़गार किसी इकोनॉमी के लिए कितना कारगर हो सकता है, इसका अंदाजा लगाइये तो आज सरकार द्वारा घोषित की जाने वाली हजार पांच सौ की कई योजनाएं एकदम बौनी नजर आयेंगी। सवाल ये है कि ऐसी योजनाएं भारी भ्रष्टाचार के बिना अपने गंतव्य तक आखिर पहुंचेंगी कैसे?


चूंकि मैंने इन सब चीजों को बहुत नजदीक से अपनी आँखों से देखा है, समझा है, इसलिए कह सकता हूं कि उत्तर पूर्व के राज्यों में बांस से सींक बनाने की इस व्यवस्था ने ग्रामीण क्षेत्र को जो विपुल आत्मनिर्भरता दी थी, उसके दो कारण थे। एक तो बांस की प्रचुरता का ग्रामीण रोजगार के माध्यम से सदुपयोग होता था, दूसरा इसने अनपढ़ व निरक्षर महिलाओं को रोजगार देने की जो रवायत कायम की, उसके सामाजिक, पारिवारिक महत्व का कोई सानी नहीं था, लेकिन कहते हैं न कि बकरे की माँ कबतक खैर मनायेगी…! भारत की अर्थव्यवस्था में ग्लोबलाइजेशन के प्रवेश और आयात में मुनाफाखोरी ने बांस से सींक बनाने की इस वृहत्तर रोज़गार व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया.

चीन और क्यूबा में मशीनों से बनी सींकें इतने भारी पैमाने पर आयात की जाने लगीं कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में तैयार होने वाली बांस की सींकें ट्रांसपोर्टेशन खर्च के चलते महंगी साबित होने लगीं। आखिर उत्तर पूर्व के राज्यों से दक्षिण के राज्यों, जहाँ अगरबत्तियां बनती थीं, तक उन्हें पहुँचाने की एक लागत तो थी ही। ऐसे में आयात की इस आंधी ने सींक बनाने के हमारे स्थानीय रोजगार को अगरबत्ती की मैनुफैक्चरिंग लागत बढ़ाने वाला बताकर ऐसी समझ दी कि पूरा उद्योग ही सींक के आयात पर निर्भर हो गया। देश के नीति निर्धारकों को हमने भारत की ट्रेड डेफिसिट और बैलेंस ऑफ पेमेंट पर कितना भी रुदन करते देखा हो, पर सींक के इस आयात पर रोक लगाने की बात किसी ने कभी नहीं सुनीं। चीन और क्यूबा से सींक का निर्बाध आयात चलता रहा।

अगर दस रुपए की अगरबत्ती में सींक का लागत मूल्य दो रुपया भी मानें, तो 18 हजार करोड़ रूपये के इस उद्योग का लगभग छत्तीस सौ करोड़ रुपया जो सीधे भारत के ग्रामीण इलाके में जाता था, वह विश्व-व्यापार और ग्लोबलाइजेशन की भेंट चढ़ गया। और सरकार की बेपरवाही देखिये कि अभी हाल में सरकार को यह बात समझ में आई है कि इस आयात व्यवस्था ने ग्रामीण रोजगार के क्षेत्र में कितना तांडव मचाया है. इसके बाद अब सिंक के आयात पर आयात शुल्क लगा दिया गया, फिर आयात शुल्क बढ़ा भी दिया गया। लेकिन सींक के आयात अब कहाँ रुकने वाले हैं? यह तो अब लागत की एक विवेकशील व्यवस्था बन गई है, एक ट्रेंड बन गया है।

अगरबत्ती की सींक के आयात पर प्रतिबंध लगाने की जगह आयात शुल्क लगाने या बढ़ाने से आयात रोकने की रस्म भर निभाई गई। ग्रामीण रोजगार का गला घोंटकर आयात के जरिये छत्तीस सौ करोड़ रुपये के ग्रामीण रोजगार की इकोनॉमी पर यह जो चपत लगायी गयी है, अगरबत्ती उद्योग से मिलने वाले रोजगार की व्यथा-कथा बस इतनी भर नहीं है..! अभी तो बात सिर्फ सींक बनाने की थी, दस रुपये की अगरबती में दो रुपये की सींक की औकात देखिये, जिसने छत्तीस सौ करोड़ रूपये की ग्रामीण आर्थिकी तैयार कर दी थी, जिसे ग्लोब्लाइजेशन की आवारा आयात-व्यवस्था ने छीन लिया..!

अब आगे देखिये कि टेक्नोलॉजी ने क्या कहर बरपाया..! अगरबत्ती की मैनुफैक्चरिंग में एक व्यवस्था, एक ट्रेंड था कि छोटे शहरों में एक व्यापारी अगरबत्ती का मसाला और सींक का बंडल अपने पास रखता था। मसाला सना हुआ होता था, जिसे वह अपने स्तर पर तैयार करता था. चारकोल का पाउडर, कुछ सस्ता एडहेसिव, पानी से सना हुआ गोंद का मिश्रण आदि मिलाकर यह मसाला तैयार होता था। यहां भी छोटे शहरों की कामकाजी महिलाएं, इन व्यापारियों से मसाला और सींक खरीदकर या ठेके पर ले जातीं, अपने घरों में अगरबत्ती बेलतीं, सुखातीं और फिर इसका बंडल उसी व्यापारी को बेच देतीं।

इस स्तर पर अगरबत्ती बेलने की मजदूरी का रोजगार अगरबत्ती की मैनुफैक्चरिंग का दूसरा चरण था, जिससे पुन: एक अशिक्षित महिला ही लाभान्वित होती थी। दस रुपये की पच्चीस तीलियों वाली अगरबत्ती बेलने की मजदूरी अगर दो रुपये भी मान ली जाये तो एक बार फिर छत्तीस सौ करोड़ रूपये की मजदूरी का यह कारोबार इस बार मशीन की भेंट चढ़ गया। ऐसी मशीनें आ गयी हैं कि एक तरफ से सींक डालिए, मसाला पहले से ही तरल रूप में मशीन में फीड किया हुआ है, घंटे भर में अगरबत्ती की लाखों तीलियाँ बन कर तैयार हैं।

अब जो टेक्नोलॉजी छत्तीस सौ करोड़ रूपये की मजदूरी छीनकर मशीन और पूंजी के हाथ में दे दे और हमारी सरकार व हमारी नीतियां चुप खड़ी तमाशा देखती रहें, तो उन नीतियों को आप विकास तो नहीं कह सकते। ये हमारे अर्थव्यवस्था की आर्थिक नाकामियां हैं, टेक्नोलॉजी के नाम पर ये हमारी हिपोक्रेसी है। क्योंकि हम राफेल मंगाएंगे फ्रांस से और छत्तीस सौ करोड़ रूपये का रोजगार छीनने वाली टुटपुंजिया मशीन का अविष्कार करके फूले नहीं समाएंगे।

अगरबत्ती मैनुफैक्चरिंग के तीसरे चरण में परिवर्तन से बस इतना हुआ है कि पहले जब यह उद्योग आयात और मशीन से बचा हुआ था, तो इसमें कॉटेज उद्योग के चरित्र थे, ह्यूमन इंटेंसिविटी ज्यादा थी, तब विकेंद्रीकरण था और अब बड़ी बड़ी पूंजी है, औटोमेशन है, मार्केटिंग के एक से एक इंतजामात हैं। पहले जब यह उद्योग अनऑर्गनाइज्ड था, तब सरकार की जीएसटी, वैट जैसे करों की वसूली इतनी व्यवस्थित नहीं थी, जितनी आज है।

लेकिन 3600+3600 = 7200 करोड़ रुपये की शुद्ध मजदूरी से बेपरवाही की कीमत अगर सरकार इस रूप में चुका रही है कि देश के अस्सी करोड़ लोग आज फूड सिक्योरिटी रेंज में हैं और गाँव के गरीब गुरबा को हजार रुपये की पेंशन जैसी सहूलियलत से अच्छे दिन के लिए आश्वस्त किया जा रहा है, तो यकीन मानिये कि रोजगार छीन लेने की भरपाई रोजगार देकर ही हो सकती है, जिसके आसार नहीं के बराबर हैं।

2014 से पहले स्वदेशी जागरण और एक करोड़, दो करोड़ सालाना रोजगार की जो आस बंधी थी, उसकी आग की कौन कहे, अब तो राख भी ठंढी पड़ चुकी है, लेकिन रोजगार के ऐसे-ऐसे अवसरों को खोते-खोते आज देश फूड सिक्योरिटी के बाबत वोट सिक्योरिटी के पेंच में फंसकर अपनी रोजगार सिक्योरिटी के मौलिक अधिकार से दूर, बहुत दूर निकल गया है।

-जितेश कांत शरण

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