भारत की एकता और एकता से समृद्धि सम्बन्धी दृष्टिकोण व्यापक है. सिद्धान्त और व्यवहार दोनों में, यह दृष्टिकोण वैश्विक महत्त्व का है. इसके मूल में बसे सत्य का सरोकार सम्पूर्ण मानवता से है. जब भारत की राष्ट्रीय एकता और समृद्धि की बात की जाए, तो उसे वसुधैव कुटुम्बकम के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए.
देश की राष्ट्रीय एकता ही हिन्दुस्तान की समृद्धि का आधार है. हिन्दुस्तान में संसाधन हैं, स्रोत हैं, देश में लगभग तेरह लाख वर्ग किलोमीटर खेती योग्य भूमि है और विश्व स्तर पर गम्भीर रूप से उभरती पानी की समस्या के बाद भी भारत में अच्छे भूजल-स्रोत हैं. ऊर्जा के क्षेत्र में पर्याप्त सम्पन्नता भारत की क्षमता की परिचायक है. इन स्रोतों के बल पर हिन्दुस्तान में विकास की अपार सम्भावनाएं मौजूद हैं.
भारत में असीमित श्रम शक्ति भी मौजूद है. इस क्षेत्र में भारत की गणना विश्व के अग्रणी देशों में होती है. श्रम शक्ति के मामले में हिन्दुस्तान संसार का नेतृत्वकर्त्ता देश है. जनसंख्या के एक गम्भीर राष्ट्रीय समस्या बन जाने पर भी भारत के लगभग एक अरब पैंतीस करोड़ परिश्रमी लोग हर समस्या का समाधान करने की क्षमता रखते हैं.
भारतीय बुद्धिमान होते हैं, शताब्दियों से हिन्दुस्तान अध्यात्म, दर्शन और विज्ञान सहित जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में स्थापित रहा है. काशी, नालन्दा, विक्रमशिला, ओदन्तपुरी, सोमपुरा, जगदल, वल्लभी, तक्षशिला, उदयगिरि, ललितगिरि आदि प्राचीनकालीन उच्च शिक्षा केन्द्र, जो कभी जापान, कोरिया व चीन सहित सम्पूर्ण दक्षिण-पूर्व एशिया के लोगों के अध्ययन एवं शोध-अन्वेषण के केन्द्र रहे, भारत की ज्ञान व खोज के क्षेत्र में श्रेष्ठता की वास्तविकता को प्रकट करते हैं.
वर्तमान में विभिन्न विषयों में लगभग पचास लाख से भी अधिक स्नातक तथा लगभग दस लाख से अधिक परास्नातक भारत में हैं. डेढ़ लाख से भी अधिक मेडिकल स्नातक, परास्नातक एवं अध्ययन/शोधकर्त्ता छात्र/छात्राएं हैं. शिक्षा के क्षेत्र में हिन्दुस्तान की स्थिति को अनेक त्रुटियों/कठिनाइयों के बावजूद, प्रकट करने के लिए ये आंकड़ें पर्याप्त हैं. यही नहीं, अनुमानतः पाँच लाख प्राध्यापक आदि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत हैं.
भारत की सभ्यता और संस्कृति हजारों वर्षों से आदर्शमयी और प्रेरणामयी रही हैं. जियो और जीने दो के आह्वान के साथ ही सर्व धर्म-समन्वय का सन्देश देती रही है. बिना किसी पूर्वाग्रह के सहिष्णु तथा सहनशील भाव से सबको, समान रूप से स्वीकार करती रही है. भारतीय संस्कृति से जिस किसी ने भी एकाकार होने का निश्चय किया, उसे इसने सदा-सदा के लिए अपना लिया.
इसके बावजूद, हिन्दुस्तान की राष्ट्रीय एकता समय-समय पर गम्भीर खतरे में भी पड़ी है. आक्रान्ताओं और आतताइयों का एकजुट होकर सामना करने की क्षमता के अभाव में, राष्ट्रीय एकता पर प्रश्नचिह्न ही नहीं लगे, अपितु वह खण्डित भी हुई. हिन्दुस्तानियों ने अपनी एकता को खोया, परिणामस्वरूप उन्हें पराधीनता झेलनी पड़ी. यह भारत के समक्ष एक बड़ी चुनौती रही है. राष्ट्रीय एकता का दुर्बल होना, देश की वांछित प्रगति और समृद्धि का बुरी तरह प्रभावित होना, भारत की विडम्बना ही रही है.
भारत की एकता, भारतीयों के सुनहरे वर्तमान एवं भविष्य, दोनों के लिए आवश्यक है. एक सत्य यह भी है कि भारत की एकता, अखण्डता और समृद्धि अंततः विश्व-कल्याण को समर्पित है. भारत का विकास, मानवता की प्रगति का द्योतक है. हजारों वर्षों का ज्ञात भारतीय इतिहास हिन्दुस्तान की अद्वितीय उन्नति का खुलासा करता है. इतिहास के पृष्ठ जीवन के समस्त क्षेत्रों में हिन्दुस्तान के कीर्तिमानों को स्पष्ट रूप से प्रकट करते हैं. ये पृष्ठ भारत की उपलब्धियों, सांस्कृतिक मूल्यों, प्रगति तथा समृद्धि को समर्पित रहे हैं तथा सबको एकता के सूत्र में पिरोकर साथ-साथ आगे बढ़ने का आह्वान करते हैं.
महर्षि सुश्रुत, चरक, पतञ्जलि से लेकर पाणिनि, आर्यभट्ट, भास्कराचार्य आदि महान भारतीयों के ज्ञान, अन्वेषण और कार्यों से विश्व भर को अभूतपूर्व लाभ हुए हैं, इन अद्वितीय उपलब्धियों को भी इतिहास के पृष्ठ स्पष्ट दर्शाते हैं.
भारत की एकता, सुदृढ़ता एवं समृद्धि मात्र भारतीयों के उत्थान, प्रगति या सम्पन्नता तक ही सीमित नहीं है. इसका सरोकार सम्पूर्ण धरावासियों से है; यह सार्वभौमिकता को समर्पित है. इसकी परिधि में सम्पूर्ण मानवता है. इसीलिए भारत की राष्ट्रीय एकता आवश्यक है; एकता द्वारा समृद्धि आवश्यक है. जब भारत की राष्ट्रीय एकता और इसके माध्यम से देश की समृद्धि की बात की जाए, तो उसे भारत के प्रचीन और सत्यमय सन्देश वसुधैव कुटुम्बकम के परिप्रेक्ष्य में ही देखना और समझना चाहिए.
भारत की राष्ट्रीय एकता के चार प्रमुख सूत्र हैं. इनके बल पर ही देश की एकता, अखण्डता, सुरक्षा और समृद्धि को दीर्घकालिक बनाया जा सकता है. ये चार सूत्र हैं: वर्ग-जातिहीन समाज, साम्प्रदायिक सौहार्द. महिला सशक्तिकरण एवं राष्ट्रीय राजनीतिक सोच. देश में विभिन्न मतों, विश्वासों, सम्प्रदायों के लोग रहते हैं. सभी के मध्य सौहार्द की स्थापना करना दूसरी आवश्यकता है. तीसरी आवश्यकता, महिला-समानता और सशक्तिकरण की है. महिला-सशक्तिकरण सुनिश्चित होने से ही राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ हो सकती है.
चौथी बात एक परिपक्व राष्ट्रीय राजनीतिक सोच की है, जो राष्ट्र की एकता के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है. भारत के लिए परिपक्व राष्ट्रीय राजनीतिक सोच ही उपरोक्त तीनों का मार्ग भी प्रशस्त कर सकती है.
-डॉ रवीन्द्र कुमार