गांधीजी ने उच्चतम आदर्शों को व्यवहार में लाने के लिए जिन अभियानों/आंदोलनों को चलाया, उन्हें लोकस्मृति में एवं लोकजीवन में निरंतर स्थापित करने की जरूरत है। किसी एक दिन गांधी दिवस मनाने की औपचारिकता वे निभाते हैं, जिनका गांधी विचार से कुछ लेना-देना नहीं है।
गांधीजी ने योरोप में पैदा हुई, योरोपीय आधुनिक सभ्यता को शैतानी सभ्यता करार दिया था। इसी प्रकार उन्होंने पूंजीवाद, साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद (आधुनिक संदर्भ में कारपोरेटी नवउपनिवेशवाद) को मानवता विरोधी व तमाम दुर्गुणों की जननी के रूप में माना। इन केन्द्रीकृत व्यवस्थाओं को संचालित करने के लिए जो श्रेणीबद्ध प्रशासकीय/प्रबंधकीय ढांचा बना, गांधीजी ने उसका भी निषेध किया। उन्होंने इन तीनों का विकल्प भी प्रस्तुत किया।
आधुनिक योरोपीय सभ्यता के दो महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं। एक, अंतर्जगत एवं बाह्यजगत की एकता का भंग होना। योरोपीय आधुनिकता में ये दोनों जगत एक-दूसरे से असंबंधित हो गये। दूसरे, राजसत्ता का दायरा एवं लोकसमुदाय का दायरा, इस आधुनिकता के पूर्व तक, काफी हद तक अलग एवं स्वायत्त था। योरोपीय आधुनिकता के अंतर्गत राजसत्ता के दायरे का ऐसा विस्तार हुआ, जिसमें लोक समुदाय का दायरा और उसकी स्वायत्तता खत्म होती गयी।
गांधीजी सत्य के एकत्व को स्वीकार करते थे। मनुष्य का अंतर्जगत में जिस सत्य से साक्षात्कार होता था तथा बाह्य जगत में जिस सत्य से साक्षात्कार होता था—उन दोनों सत्यों के बीच एक एकता थी तथा दोनों सत्य एक व्यापक सत्य का हिस्सा था। अंतर्जगत में जब सत्य का साक्षात्कार होता है, तो मनुष्य चेतना के उच्च से उच्चतर स्तर पर जाता है, जो उसके बाह्य जगत के ज्ञान के साथ भी जुड़ जाता है। जब आंतरिक चेतना जगत का बाह्य जगत के सत्य अन्वेषण से संबंध टूट गया, तो नया विज्ञान, नयी राजनीति, नयी अर्थव्यवस्था, नयी सामाजिक संरचना, इन सबका, उच्च चेतना के स्तर से जुड़ाव भी टूट गया। यानी इन सबका संबंध निम्न चेतना स्तर के साथ मजबूत होता चला गया। योरोप के प्रभुत्वशील वर्ग की सामूहिक चेतना भी, आधुनिकता के प्रभाव में निम्न स्तर पर चली गयी। जब योरोप के प्रभुत्ववादी वर्ग की चेतना अपने निम्नतम स्तर पर चली गयी, तो योरोप के बाहर की दुनिया उनके लिए ‘अन्य’ (अदर) हो गयी। इस ‘अन्य’ की खोज करनी थी, इस ‘अन्य’ को जीतना था तथा इस ‘अन्य’ को अपने अधीन करना था।
उपनिवेशवाद की जड़ें योरोप के शासक वर्ग की चेतना के निम्नतम स्तर पर जाने तथा ‘अन्य’ को अधीन करने, उसे हेय समझने की प्रवृत्ति में अंतर्निहित थीं। गांधीजी ने जब उपनिवेशवाद का विरोध किया तो उस प्रवृत्ति का भी निषेध किया, जिससे उसका जन्म हुआ। जैसे (१) सामूहिक चेतना का निम्नतम स्तर पर क्रियाशील होना; एवं (२) गैर योरोपीय निवासियों को ‘अन्य’ व हेय समझना।
गांधीजी ने सामूहिक चेतना को उच्च स्तर पर ले जाकर उपनिवेशवाद का विरोध किया। सत्य एवं अहिंसा आधारित सत्याग्रह इसके माध्यम बने। इसी तरह, गांधीजी किसी भी समूह को ‘अन्य’ के समान बनाकर, उसकी खिलाफत करने के विरुद्ध थे। उनका कहना था कि उपनिवेशवाद खत्म हो, लेकिन अंग्रेज भारत में रहें, एक भारतीय के समान, स्वयं को उपनिवेशवादी ढांचे से मुक्त कर। अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने की मानसिकता बनाना आसान काम था, (उन्हें अन्य बनाकर); किन्तु जिस प्रवृत्ति एवं मनोवृत्ति से उपनिवेशवाद का जन्म हुआ, उसका विकल्प खड़ा करना मुश्किल काम था। गांधीजी ने यही अभियान चलाया।
इसी प्रकार पूंजीवादी-साम्राज्यवाद के मूल तत्त्व, प्रवृत्ति एवं मनोवृत्ति का भी गांधीजी ने विरोध किया। मनुष्य की चेतना (व्यक्तिगत या सामूहिक) जब अपने निम्नतम स्तर पर आती है, तो वह अपनी अंतरात्मा की गुणात्मकता से कट जाती है और इसके साथ ही वह वैश्विक चेतना या किसी भी प्रकार की व्यापक चेतना से कट जाती है। चेतना के व्यापक स्तर पर पैâलने का एक महत्त्वपूर्ण स्तर सामुदायिक स्तर की व्यापक चेतना होती है। लोक समुदाय स्तर की व्यापक चेतना से कट जाने के बाद, आर्थिक गतिविधि (मुख्यत: उत्पादन की) समुदाय के लिए होने के बजाय, केवल व्यक्तिगत हित के लिए होती है। पूंजीवाद का जन्म ऐसी ही स्थिति में होता है। बिना समुदाय एवं व्यापक उच्च चेतना को नष्ट किये, पूंजीवाद का उदय संभव नहीं है। इसीलिए पूंजीवाद का विस्तार जहां-जहां हुआ, वहां-वहां लोक समुदाय को नष्ट किया गया। पूंजीवाद के विकल्प में गांधीजी ने तीन सूत्र रखे – (१) लोक समुदाय (ग्राम स्वराज्य) का पुनरुत्थान; (२) लोक स्तर पर, लोक समुदाय के लिए उत्पादन एवं सेवाएं, (३) ऐसे शिल्प एवं उत्पादन के साधन के माध्यम से उत्पादन, जिसके अंतर्गत उच्च चेतना से युक्त श्रम, अपनी विशिष्ट गुणवत्ता को प्रकट करे तथा श्रम बाजार में बिकने वाली वस्तु न बन सके। पूंजीवाद दो आधारों खड़ा है – (१) निजी स्वार्थ एवं (२) अनियोजित वैश्विक बाजार। गांधीजी ने इन दोनों का विकल्प अपनी वैकल्पिक समाज रचना में प्रस्तुत किया। गांधीजी ने अहिंसक क्रांति के माध्यम एवं साधन का भी अभिनव प्रयोग किया। अहिंसक समाज का निर्माण हिंसा की शक्ति या दंडशक्ति के माध्यम से संभव नहीं है। अब चूंकि राजसत्ता का आधार और उसके टिके रहने की शक्ति, हिंसा शक्ति एवं दण्ड शक्ति है, इसलिए अहिंसक समाज का निर्माण राजसत्ता के माध्यम से संभव नहीं है। इसी प्रकार ऐसे संगठन द्वारा भी अहिंसक क्रांति संभव नहीं है, जो हिंसा के बल पर विश्वास रखता हो। इसके लिए व्यक्तिगत एवं सामूहिक आत्मबल आवश्यक है। इसी प्रकार केन्द्रीकृत श्रेणीबद्ध संगठन भी लोक आंदोलन से पैदा हुई ऊर्जा व शक्ति को अपने में समा लेते हैं। फलस्वरूप ऐसे संगठन तो मजबूत हो जाते हैं, किन्तु स्वराज के लिए जिस लोकसत्ता का निर्माण करना होता है, वह नहीं हो पाता। जब लोकसत्ता का निर्माण होगा, तो वहां सत्याग्रही (अहिंसक संगठन का कार्यकर्ता) संगठन के प्रतिनिधि के रूप में नहीं, बल्कि लोकसत्ता के चैतन्य वाहक के रूप में अपने को लोक संगठन में विलीन कर देगा। लोकसत्ता में वह केवल उच्च मूल्यों का प्रतिनिधित्व करेगा। लोकसत्ता में बौद्धिक कर्म बनाम शरीर श्रम का विभेद भी नहीं होगा। मनुष्य के शरीर श्रम से उसके आंतरिक गुण का प्रकटीकरण होगा। ऐसा श्रम, प्रकृति संवद्र्धक भी होगा। अनादि काल से समाज में दो प्रकार की क्रांतियां हुई हैं। एक, आत्मज्ञान द्वारा उच्च चेतना में ले जाने वाली। बुद्ध, ईसा, महावीर, शंकर, सुकरात, मुहम्मद साहब, नानक, कबीर आदि इनके प्रवर्तक रहे हैं। फ्रांस, रूस, चीन आदि देशों में दूसरे प्रकार की क्रांतियां व्यवस्था परिवर्तन के लिए हुई। गांधी में दोनों का समन्वय है। हमें इसी धारा को आगे बढ़ाना है।
-बिमल कुमार