महात्मा गांधी शिक्षा को व्यक्तित्व के चहुंमुखी विकास का माध्यम स्वीकार करते थे। वे शिक्षा को जीवन भर निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया मानते थे। उन्होंने शिक्षा के उद्देश्य को व्यक्तित्व के उच्चतम विकास के साथ ही उसे मुक्ति-द्वार तक ले जाने वाला घोषित किया। इसी परिप्रेक्ष्य में 31 जुलाई, 1937 को उन्होंने हरिजन में लिखा, “शिक्षा से मेरा अभिप्राय यह है कि बालक अथवा प्रौढ़ की काया, मन और आत्मा की उत्तम क्षमताओं को उद्घाटित किया जाए और बाहर प्रकाश में लाया जाए। अक्षर ज्ञान न तो शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य है, तथा न ही उसका प्रारम्भ है। वह मनुष्य की शिक्षा के कई साधनों में से एक साधन है। अक्षर-ज्ञान अपने आप में शिक्षा नहीं है।”
महात्मा गांधी ने शिक्षा-सम्बन्धी अपने विचारों को केन्द्र में रखते हुए 5 मई, 1937 ईसवीं को हरिजन में लिखा था,”जब तक मस्तिष्क और शरीर का विकास साथ-साथ न हो, और उसी प्रमाण में आत्मा की जागृति न होती रहे, तब तक बुद्धि के एकांगी विकास से कुछ भी विशेष लाभ नहीं होगा।”
वास्तव में, महात्मा गांधी के इन संक्षिप्त विचारों के केन्द्र में व्यक्ति का चहुंमुखी विकास था; शिक्षा के माध्यम से जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करना था। दूसरे शब्दों में, जीवन को सार्थक करना था, जो अपनेआप में शिक्षा का अभिप्राय, उद्देश्य अथवा लक्ष्य है। प्राचीनकाल से ही शिक्षा के सम्बन्ध में अपने विचार रखने वाले महापुरुषों ने, जो युगपुरुष और अपने-अपने सम्बन्धित काल में महान शिक्षक भी थे, शिक्षा के अभिप्राय और उद्देश्य के सम्बन्ध में न्यूनाधिक एक समान विचार ही व्यक्त किएI पूरब में गौतम बुद्ध के विचारों से प्रारम्भ करें और मध्य युग से गुजरते हुए आधुनिककाल में महात्मा गांधी के शिक्षा-सम्बन्धी दृष्टिकोण पर पहुंचें, तो सभी में लगभग समानता ही प्रकट होगी।
गौतम बुद्ध का कथन, जिसमें तथागत ने कहा कि अध्ययन, विद्या, शिक्षा, ज्ञान की अन्तहीन खोज है; एक ही अध्यापक की शिक्षा से कभी भी संतुष्ट नहीं होना चाहिए, अपितु इस सम्बन्ध में सदैव अधिकाधिक ज्ञान की खोज में रहना चाहिए।
आधुनिक भारत के विचारकों में से एक रवीन्द्रनाथ टैगोर, शिक्षा की परिधि को केन्द्र में रखते हुए अपने विश्लेषण में कहते हैं कि शिक्षा, उच्च ध्यान, मुक्त ज्ञान, गहराई से आने वाले सत्य, पूर्णता की ओर अथक प्रयास… और अन्ततः जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए है।
इसी प्रकार, पश्चिम में प्राचीनकाल के दार्शनिकों सुकरात व अरस्तू से प्रारम्भ करते हुए, आधुनिक काल के एक विचारक लियो टॉलस्टॉय तक के शिक्षा-सम्बन्धी विचारों पर दृष्टि डालें, तो लगभग वही परिणाम सामने आएगा। महात्मा गांधी का शिक्षा-सम्बन्धी दृष्टिकोण ही केन्द्रीय स्थान पर रहेगा।
सुकरात इसे पहले से ही भीतर विद्यमान को बाहर निकालने और अरस्तू इसे बालक द्वारा गुणों के अधिग्रहण के रूप में लेते हैं; अन्ततः, निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि यह जीवन को पूर्णतः विकसित करने की प्रक्रिया है। लियो टॉलस्टॉय शिक्षा-प्रक्रिया में समानता और स्वतंत्रता के पहलुओं को सम्मिलित करते हुए और इसके माध्यम से व्यक्ति के नैतिक उत्थान पर बल देते हुए इसे मानव के वास्तविक उत्थान के मार्ग के रूप में लेते हैं।
महात्मा गांधी शिक्षा को व्यक्तित्व के चहुंमुखी विकास का माध्यम स्वीकार करते थे। वे शिक्षा को जीवन भर निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया मानते थे। उन्होंने शिक्षा के उद्देश्य को व्यक्तित्व के उच्चतम विकास के साथ ही उसे मुक्ति-द्वार तक ले जाने वाला घोषित किया। इसी परिप्रेक्ष्य में 31 जुलाई, 1937 को उन्होंने हरिजन में लिखा, “शिक्षा से मेरा अभिप्राय यह है कि बालक अथवा प्रौढ़ की काया, मन और आत्मा की उत्तम क्षमताओं को उद्घाटित किया जाए और बाहर प्रकाश में लाया जाए। अक्षर ज्ञान न तो शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य है, न ही उसका प्रारम्भ है। वह मनुष्य की शिक्षा के कई साधनों में से एक साधन है। अक्षर-ज्ञान अपने आप में शिक्षा नहीं है।”
वास्तव में, जैसा कि मैंने शिक्षा से सम्बद्ध महात्मा गांधी के वृहद विचारों, उनके भाषणों, लेखों एवं वक्तव्यों में उभरे उनके शिक्षा से सम्बन्धित दृष्टिकोण से समझा है, वे चार पक्षीय या चार पहलुओं वाली शिक्षा-व्यवस्था को ही पूर्ण शिक्षा मानते थे। इसी के बल पर वे व्यक्तित्व का चहुंमुखी विकास सुनिश्चित करने के लिए आगे बढ़ना चाहते थे। यह चारपक्षीय शिक्षा अध्ययन के प्रारम्भिक स्तर से, यदि आवश्यकता हो तो, विश्वविद्यालय स्तर तक जाती है।
महात्मा गांधी के चार पक्षों वाले शिक्षा विचारों में सम्मिलित है-
1- सामान्य शिक्षा, जो स्तर-प्रति-स्तर, प्रारम्भिक अध्ययन के समय से ही निर्धारित पाठ्यक्रमानुसार निम्न माध्यमिक स्तर तक सबके के लिए समान रूप से दिया जाने वाला ज्ञान है। तदुपरान्त, रुचि और रुझान के अनुसार विद्यालय, आवश्यकता हो तो महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में अध्ययन व शोध कार्य की ओर यह क्रम आगे बढ़ता है.
2- शारीरिक शिक्षा, जिसका उद्देश्य काया को सुदृढ़, शुद्ध और अनुशासित बनाना है, इसमें क्रीड़ा, व्यायाम और योग भी सम्मिलित है। सुदृढ़, शुद्ध और अनुशासित काया व्यक्ति के मानसिक स्तर को उच्च और सकारात्मक बनाने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है। अति प्राचीनकाल से ही यह कहा जाता रहा है कि स्वस्थ काया में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है.
3- नैतिक शिक्षा, जो व्यक्ति को प्रारम्भिक जीवन से ही कर्त्तव्यों की अनुभूति कराती है, उसे कर्त्तव्यों के निर्वहन के प्रति सजग रखती है। साथ ही, सदाचरणों के लिए भी तैयार करती है। नैतिकता और सदाचार, दोनों वास्तव में एक-दूसरे से जुड़े हुए पक्ष हैं; दोनों ही नैतिक शिक्षा का भाग हैं। यही नहीं, महात्मा गांधी की नैतिक शिक्षा योजना में आध्यात्मिक ज्ञान भी, जिसे वे जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण मानते थे, सम्मिलित है। इस शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को कर्त्तव्यपरायण बनाना है.
4- बुनियादी शिक्षा, बालक के भीतर विद्यमान अनेक गुणों में से प्रमुख गुण की पहचान करके, उसके आधार पर उसे तैयार करती है। इसका उद्देश्य स्वयं उसके अपने प्रधान गुण के बल पर उसे दक्ष बनाते हुए आत्मनिर्भर बनाना है।
इस प्रकार, चार पक्षों वाला गांधी-शिक्षा विचार व्यक्तित्व के चहुंमुखी विकास का मार्ग प्रशस्त करता है; व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाने और जीवन-लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ाता है। चहुंमुखी विकास को प्राप्त व्यक्ति, आत्मनिर्भर मनुष्य ही जीवन में शान्ति की अवस्था को प्राप्त हो सकता है। -डॉ. रवीन्द्र कुमार