लोकतंत्र की जीत

निस्संदेह विलम्ब से ही सही, प्रधानमंत्री ने बड़ा कदम उठाया है, इसका स्वागत है। लेकिन गुरुनानक जयंती पर इस घोषणा के राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। दर असल किसान आंदोलन के कारण भारतीय जनता पार्टी की मुश्किलें बढ़ती जा रही है। पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी की राह आसान नहीं है।

गुरु नानक जयंती पर 19 नवंबर, 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन काले कृषि कानून के वापसी की घोषणा की है । उन्होंने कहा है कि संसद के शीतकालीन सत्र में इस आशय का विधेयक लाया जाएगा।


उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार ने 5 जून, 2020 को अध्यादेश जारी किया था, जिसे सितंबर, 2020 में संसद की मंजूरी मिली। राज्य सभा में विपक्ष के भारी विरोध एवं बहुमत के अभाव में भी इसे पारित घोषित किया गया । यह कानून किसान विरोधी, कारपोरेट परस्त, लोकतंत्र विरोधी, अनैतिक और असंवैधानिक था।


इसलिए किसान कृषि काले कानून का विरोध कर रहे हैं और 26 नवंबर, 2020 से दिल्ली बॉर्डर पर बैठे हैं। उनका संकल्प है कि जब तक तीन काले कृषि कानून वापस नहीं होंगे और एमएसपी पर गारंटी का कानून नहीं बनेगा, तब तक घर वापस नहीं लौटेंगे। किसान दिल्ली आना चाहते थे, लेकिन उन्हें बार्डर पर ही रोक दिया गया। बॉर्डर पर बार लगा दिए गए। उन पर पाइप से पानी डाला गया। उन्हें आतंकवादी, देशद्रोही, खालिस्तानी आदि क्या-क्या नहीं कहा गया। उन्हें बदनाम करने की कोई भी प्रयास नहीं छोड़ा गया। लेकिन सरकार और गोदी मीडिया के गठजोड़ का किसानों के मनोबल पर कोई असर नहीं हुआ। वे दोगुने उत्साह से डटे रहे। इस बीच 700 से अधिक किसानों की शहादत हुई। लेकिन प्रधानमंत्री ने कभी उनकी सुध नहीं ली। न कभी मिले, न कभी संवेदना व्यक्त की। आज माफी मांग रहे हैं, घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं। अपनी साधना की कमी बता रहे हैं। साधना और अहंकार में तो अन्तर्विरोध है।


पंजाब और हरियाणा से शुरू हुआ यह आंदोलन धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गया। केन्द्र सरकार बातचीत कर इसका समाधान निकालने के बजाय आन्दोलन को बदनाम करने , उसे कमजोर करने के प्रयास को हवा देती रही। निश्चित रूप से प्रधानमंत्री की घोषणा किसान आंदोलन की बड़ी जीत है। अतंतः किसानों के आंदोलन के आगे केंद्र सरकार को झुकना पड़ा। यह जिद्द और अहंकार के आगे दृढ़ संकल्प और एकजुट आन्दोलन की जीत है। क्रूरता और दमन के आगे सत्याग्रह की जीत है। यह झूठ और पाखंड के आगे सत्य की जीत है, यह जनता की जीत है। यह लोकतंत्र और संविधान की जीत है, इसके परिणाम दूरगामी होंगे। इसके संदेश साफ है। कितना भी शक्तिशाली साम्राज्य क्यों न हो, जनता के आगे उसे झुकना ही पड़ता है। यह न्याय की जीत है। यह कृषि को कारपोरेट के हवाले करने के प्रयास पर लगाम है। यह किसानों को गुलाम बनाने वाली नीतियों की शिकस्त है। लेकिन अभी न्यूनतम समर्थन मूल्य की लड़ाई बाकी है। खेती को लाभकारी बनाने, न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा दिलाने की लड़ाई अभी बाकी है।


निस्संदेह विलम्ब से ही सही, प्रधानमंत्री ने बड़ा कदम उठाया है, इसका स्वागत है। लेकिन गुरुनानक जयंती पर इस घोषणा के राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। दर असल किसान आंदोलन के कारण भारतीय जनता पार्टी की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी की राह आसान नहीं है। गोदी मीडिया प्रधानमंत्री की दिलेरी की बात कर रहा है। उन्हें यह भी बताना चाहिए कि इस निर्णय पर पहुंचने में सरकार को एक वर्ष से ज्यादा क्यों लग गया? किसानों के हितों की चिंता करने वाली सरकार ने किसानों को दिल्ली आने से क्यों रोका? उनसे बातचीत कर सम्मानजनक समझौता क्यों नहीं किया? किसानों की रैली पर गाड़ी चलाने वाले को क्यों बचाया जा रहा है? केन्द्र सरकार को चाहिए कि किसान संगठनों से बातचीत कर आन्दोलन के शेष सभी मुद्दों का समाधान निकाले। जिन किसानों की मौत आन्दोलन के दौरान हुई है, उन्हें शहीद घोषित करे और उन्हें उचित मुआवजा दे। वरना प्रधानमंत्री की यह घोषणा पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर एक राजनीतिक पहल ही मानी जाएगी। चाहे ज़ुल्म का सूरज लाख जले, हर शाम को लेकिन ढलता है।

-अशोक भारत

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