सहकारिता के पैरोकार और लोकतांत्रिक समाजवाद के इस शिखर पुरुष ने भारत की सनातन संस्कृति, बुद्ध के दिये विवेकसम्मत मानव कल्याण के संकल्प, मार्क्स के परिवर्तनकामी दर्शन और गांधी की बनायी राह में अद्भुत समन्वय स्थापित किया, जो आज भी उतना ही प्रासंगिक हैं।
भारतीय दर्शन और संस्कृति के प्रकांड विद्वान आचार्य नरेन्द्र देव को किसी वाद के सांचे में सीमित नहीं किया जा सकता। विचार स्रोतों के तौर पर उन्होंने भारत के सनातन धर्म, दर्शन, बुद्ध, मार्क्स और गांधी को लगातार अपने संवाद का संदर्भ बनाया और राष्ट्रीयता तथा समाजवाद की व्याख्या की। लोकतांत्रिक समाजवाद के इस शिखर पुरुष ने भारत की सनातन संस्कृति, बुद्ध के दिये विवेकसम्मत मानव कल्याण के संकल्प, मार्क्स के परिवर्तनकामी दर्शन और गांधी की बनायी राह में अद्भुत समन्वय स्थापित किया, जो आज भी उतना ही प्रासंगिक हैं। आचार्य भारतीय ग्रामीण सनातन-संस्कृति को राष्ट्र की अस्मिता और सामाजिक न्याय तथा समृद्धि का कोष मानते थेा उनके चिन्तन का आधार हर क्षेत्र में सहयोग है। वहां हिंसा और गलाकाट प्रतिस्पर्द्धात्मक द्वंद्व का कोई स्थान नहीं है।
आचार्य जी ने कहा, ‘सहयोगमूलक उत्पादन और उपयोग ही कृषि समस्या का एकमात्र उचित और व्यावहारिक उपाय है। सभी सच्चे वैज्ञानिक आज इस पर सहमत हैं कि गांव और किसान की आशा सहयोग पर ही टिकी है। सहयोगमूलक जनतंत्र की बुनियाद किसानों का प्रजातंत्र ही हो सकता है।’ आचार्य गांवों व किसानों की पीड़ा और शक्ति दोनों के साक्षी थे। प्लासी के निर्णायक युद्ध से पहले और बाद में भी किसानों के असंख्य आंदोलन हुए, लेकिन उनका राष्ट्रीय-स्वरूप नहीं रहा। आरंभ से ही आचार्य का किसान आंदोलनों में सक्रिय योगदान रहा। उन्होंने किसानों को राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रिम दस्ते के रूप में जोड़ा और स्वतंत्रता आंदोलन ने बुर्जुआ आंदोलन के स्थान पर जन-आंदोलन का रूप ग्रहण किया।
समाजवादी पुरोधा : आचार्य नरेन्द्र देव
गांधी मार्ग के प्रति समर्पित आचार्य ने किसानों की विपन्नता का कारण ग्रामीण उद्योग-धंधों व कुटीर उद्योगों का अभाव माना। किसानों की आत्महत्या और कृषि से पलायन का एकमात्र समाधान ग्रामों व ग्राम-संकुलों में लघु एवं मध्यम स्तरीय, कृषि, फलोत्पादन, औषधि उत्पादन, बागवानी, मत्स्य पालन, मुर्गी पालन, दस्तकारी (कुम्हारी-कला, चर्म-कला, खाद्य तेल उत्पादन, हथकरघा, सूत कताई, गुड़ उत्पादन) आदि आधारित उद्योगों की स्थापना है।
आचार्य जी के ही शब्दों में, ‘सबसे बड़ी बात जो किसानों को करनी है, वह है आपस में मिल-जुलकर काम करना सीखना। गांव के मुकदमों का निपटारा, गांव की शिक्षा का प्रबंध, किसानों की आवश्यकता की वस्तुओं की खरीद और बिक्री इन सबको किसानों को अपनी पंचायत और सहयोग समितियों द्वारा करना चाहिए।’
आचार्य जी ग्राम और नगर का अंतर मिटाना चाहते थे। उन्होंने कहा, ‘आज हमारे ग्रामों का जीवन इतना नीरस और कठोर है कि ग्रामों के जो नवयुवक थोड़ी-बहुत शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं, वे शहर में ही रहना चाहते हैं। हमें ग्रामों में भी नगरों में प्राप्त होने वाले विज्ञान की विभूतियों का प्रचार करना है और अंततोगत्वा ग्राम और नगर के भेद को ही मिटा देना है। यह कार्य तभी पूरा होगा, जब बहुतों की मेहनत की कमाई पर गुलछर्रे उड़ाने वाले लोग न रहें, सभी एक दूसरे के साथ सहयोग करते हुए श्रम करें। इस शोषण मुक्त समाज की स्थापना के लिए किसान सभाओं को मजदूर सभाओं के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित करके आंदोलन करना होगा।’
सहकारिता के सिद्धांतों में लोकतांत्रिक व्यवस्था, स्वायत्तता, जन-शिक्षा एवं सर्वजन का विकास महत्त्वपूर्ण है। राजनीतिक स्वतंत्रता के पश्चात ही हम रूस की विकास-पद्धति पंचवर्षीय योजनाओं के भ्रमजाल में फंस गये और कुटीर तथा लघु एवं मध्यम स्तरीय ग्रामोद्योगों की स्थापना और उन्हें विकसित करने का कार्य ही हाथ में नहीं लिया। यदि उक्त उद्योगों और कृषि को सहकारिता के आधार पर स्थापित और विकसित किया जाय, तो दो राय नहीं कि आशातीत सफलता प्राप्त होगी। ऐसी व्यवस्था में गांव के सभी परिवारों के वयस्क सम्मिलित रहेंगे और उत्पादन प्रक्रिया, उप-उत्पाद, प्रसंस्करण, भंडारण, विक्रय, मानव-वित्त सामग्री प्रबंधन आदि पर निर्णय लेंगे और कार्यान्वयन करेंगे। बड़े उद्योगपतियों व कारपोरेट हाउसों का इनमें कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। यह तथ्य आंख खोलने वाला है कि गांव, कृषि आदि से जो उत्पादन करता है, उसका जो प्रसंस्कृत माल बाजार में बिकता है, उसका 90 प्रतिशत मूल्य बड़े औद्योगिक व कारपोरेट घराने ले लेते हैं। कच्चा माल उत्पादक किसान या ग्रामीण उत्पादक उस समग्र मूल्य का 10 प्रतिशत ही पाकर गरीब बना रहता है और बड़े औद्योगिक घरानों को कुबेर की समृद्धि प्रदान करता है। यदि उत्पाद, उप-उत्पाद व प्रसंस्करण हेतु सरकारों द्वारा ग्रामों में उद्योग स्थापित कर उनके प्रबंधन, भंडारण, विक्रय आदि कार्य ग्रामीणों को ही सौंपा जाय, तो हमारे किसान व ग्रामवासी अतुलनीय संपदा के स्वामी होंगे और बेरोजगारी, आत्महत्या, कृषि से पलायन आदि सभी समस्याएं समाप्त हो जायेंगी। लघु व मध्यम स्तरीय उद्योगों में रोजगार देने की क्षमता असीम है। बेरोजगारी की समस्या हमें विभिन्न अपराधों और हिंसक आंदोलनों की ओर ले जा रही है। यही मार्ग शांति और सामाजिक न्याय का होगा। यही नहीं इससे जो सहयोग का मंच ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित होगा, वह जातीय-सांप्रदायिक विद्वेष को भी समाप्त करेगा।
आचार्य के ही शब्दों में, ‘यह आवश्यक है कि गांवों में समस्त मानवीय संबंधों को बदला जाय और उन्हें लोकतांत्रिक आधार पर स्थापित किया जाय। इस ध्येय की सिद्धि के लिए कृषि में और उसकी उपज के विक्रय में सहकारिता की व्यवस्था आवश्यक है। … गांव वाले सरलता से सहकारिता को नहीं अपना लेंगे, हमें समझा-बुझाकर, प्रचार और प्रोत्साहन के द्वारा उन्हें इसकी उपयोगिता का विश्वास दिलाना होगा। कृषक अनुभव से सीखता है और यदि किसान को सहकारी प्रणाली की श्रेष्ठता का विश्वास हो जाये, क्योंकि इससे उसे अच्छी उपज और अपनी पैदावार का अच्छा दाम प्राप्त होता है तो वह तत्परतापूर्वक इसे अपना लेगा।’
आचार्य जी ने कहा, ‘सहकारिता से केवल आर्थिक लाभ ही नहीं है, बल्कि इसके द्वारा नवीन सामाजिक संबंधों का एक संस्थान भी तैयार होता है, जो प्रतिस्पर्द्धा के बजाय सहयोग पर आधारित है और जनता में भ्रातृत्व उत्पन्न करता है।’
वैश्वीकरण के पूंजीवादी तत्व ने न केवल आम आदमी को तहस-नहस किया है, बल्कि उसकी स्वतंत्रता, उसकी राष्ट्रीयता और संस्कृति का अवमूल्यन भी किया है। स्वतंत्रता के इतने वर्षों में हम आत्मनिर्भर भी नहीं हो पाये हैं। संपत्ति का केवल कुछ के हाथ में केन्द्रित होना, गरीबी, अभाव, किसानों की आत्महत्या व पलायन, जाति-संप्रदाय-धर्म आधारित द्वेष व हिंसा, महिलाओं के प्रति अपराध, राष्ट्रीय सुरक्षा की समस्या होते हुए भी राजनीतिक दलों में सत्ता प्राप्ति हेतु प्रतिद्वंद्विता की समस्याएं भयंकर रूप ले रही हैं। गाँव की समस्याओं का समाधान गांवों को आर्थिक रूप से मजबूत और स्वावलंबी बनाकर किया जा सकता है। अगर ऐसा हो और बड़े उद्योग उनमें हस्तक्षेप न करें, तो कुछ ही वर्षों बाद शहरी बेरोजगारों को खपाने की क्षमता भी इन गांवों में होगी। यही राष्ट्र की समृद्धि, सामाजिक न्याय व समरसता का एकल समाधान है।
-विनोद शंकर चौबे