संकट में है मानवता का भविष्य

ग्लोबल वार्मिंग

जंगलों का विनाश राष्ट्रों के लिए तथा मानव जाति के लिए सबसे खतरनाक है। समाज का कल्याण वनस्पतियों पर निर्भर है और प्राकृतिक पर्यावरण के प्रदूषण और वनस्पति के विनाश के कारण राष्ट्र को बर्बाद करने वाली अनेक बीमारियां पैदा हो जाती है। तब चिकित्सीय वनस्पति की प्रकृति में अभिवृद्धि करके मानवीय रोगों को ठीक किया जा सकता है। समय रहते नहीं चेते तो अज्ञात बीमारी का महामारी के रूप में फैलना सम्भव है। अगर जनसंख्या दबाव को नियंत्रित तथा पर्यावरण को संरक्षित नही किया गया तो दीर्घकालीन समय में कुछ ऐसे रोग उत्पन्न हो सकते हैं, जिनका इलाज ही संभव न हो। ऐसे में यह पृथ्वी के प्राणियों के लिए अत्यंत दुखदायी होगा।

ग्लोबल वार्मिंग वर्तमान समय की प्रमुख वैश्विक पर्यावरणीय समस्या है। यह एक ऐसा विषय है कि इस पर जितना सर्वेक्षण और पुनर्वालोकन करें, कम ही होगा। आज ग्लोबल वार्मिंग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिज्ञों, पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं वैज्ञानिकों की चिंता का विषय बना हुआ है। ग्लोबल वार्मिंग से पृथ्वी ही नहीं, बल्कि पूरे ब्रह्मांड की स्थिति और गति में परिवर्तन होने लगा है। इसके कारण भारत के प्राकृतिक वातावरण में अत्यधिक मानवीय परिवर्तन हो रहा है। पृथ्वी के बढ़ते तापमान के कारण जीव जन्तुओं की आदतों में भी बदलाव आ रहा है। इसका असर पूरे जैविक चक्र पर पड़ रहा है। पक्षियों के अंडे सेने और पशुओं के गर्भ धारण करने का प्राकृतिक समय पीछे खिसकता जा रहा है। कई प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं।

सम्पूर्ण ब्रह्मांड में पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा ज्ञात ग्रह है, जिस पर जीवन पाया जाता है। जीवन को बचाये रखने के लिए पृथ्वी की प्राकृतिक संपत्ति को बनाये रखना बहुत जरूरी है। इस पृथ्वी पर सबसे बुद्धिमान कृति इंसान है। धरती पर जीवन के लिए उत्पन्न खतरे को कुछ छोटे उपायों को अपनाकर कम किया जा सकता है, जैसे पेड़-पौधे लगाना, वनों की कटाई को रोकना, वायु प्रदूषण को रोकने के लिए वाहनों के इस्तेमाल को कम करना, बिजली की खपत कम करके ऊर्जा बचाना. इस तरह के छोटे-छोटे कदम उठाकर हम दुनिया का भविष्य कुछ हद तक सुरक्षित कर सकते हैं.

गत सौ वर्ष में मनुष्य की जनसंख्या में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। इसके कारण अन्न, जल, घर, बिजली, सड़क, वाहन और अन्य वस्तुओं की माँग में भी वृद्धि हुई है। परिणामस्वरूप हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर काफी दबाव पड़ रहा है और वायु, जल तथा भूमि प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। रहने के लिए जहां जंगल साफ किए गए हैं, वहीं नदियों तथा सरोवरों के तटों पर लोगों ने आवासीय परिसर बना लिए हैं। जनसंख्या वृद्धि ने कृषि क्षेत्र पर भी दबाव बढ़ाया है। वृक्ष जल के सबसे बड़े संरक्षक हैं। बड़ी मात्रा में उनकी कटाई से जल के स्तर पर भी असर पड़ा है। सभी बड़े-छोटे शहरों के पास नदियां सर्वाधिक प्रदूषित हैं। वायु प्रदूषण, कचरे का प्रबंधन, पानी की कमी, गिरता भूजल लेबल, जल प्रदूषण, जल संरक्षण, वनों की गुणवत्ता, जैव विविधता का नुकसान और भूमि का क्षरण आदि प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दों में से कुछ भारत की भी प्रमुख समस्या बनी हुई हैं। भारत में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण परिवहन की व्यवस्था है। लाखों पुराने डीज़ल इंजन, वह डीज़ल जला रहे हैं, जिसमें यूरोपीय डीजल से कई गुना गंधक है.

गांधी का दर्शन है कि आवश्यकता हो तब भी लालच मत करो, आराम हो तो थोड़ा हो और वह विलासिता न बन जाए। धरती के पास सभी की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त संसाधन है, किंतु किसी की लालच के लिए नहीं। गांधी प्रकृति द्वारा प्रदत्त संसाधनों को ईश्वर का सबसे अनुपम उपहार मानते थे। वे कहते थे कि इसे आने वाली पीढ़ियों के लिए सृजित किया जाना चाहिए। जब तक प्रकृति में संतुलन है, तब तक परिस्थिति सही है। प्रकृति अपने नियमों के तहत निरंतर कार्य करती है, लेकिन लोग नियमित रूप से उनका उल्लंघन करते हैं।

पर्यावरण शब्द का प्रचलन तो नया है, पर इससे जुड़ी चिंता या चेतना नई नहीं है। पर्यावरण हवा, पानी, पर्वत, नदी, जंगल, वनस्पति, पशुपक्षी आदि के समन्वित रूप से है। यह सब सदियों से प्रकृति प्रेम की रूप में हमारे चिंतन, संस्कार में मौजूद रहे हैं। वर्तमान समय में प्रत्येक मनुष्य पर्यावरण को लेकर चिंतित तो है, पर पर्यावरण को बचाने में सक्रिय सहभागी नहीं है। यह ठीक वैसा ही है, जैसे देश में भगत सिंह और राजगुरु जैसे देशभक्त पैदा तो होने चाहिए, परंतु अपने घर में न होकर पड़ोसी के घर में होने चाहिए। आज प्रत्येक आदमी को स्वच्छ परिवेश, स्वच्छ गलियां, साफ़ सड़कें और स्वच्छ पर्यावरण तो चाहिए, परंतु साफ करने वाला भी कोई और होना चाहिए। यह ठीक वैसा ही है, जैसे दुनिया को सब लोग सुधारना चाहते हैं, मगर अपने को कोई नहीं।

मानव का विकास पर्यावरण के दोहन के मूल पर हो रहा है। आदिकाल से मनुष्य और पर्यावरण का अन्योन्याश्रय संबंध रहा है। वर्तमान समय में सबसे चिंताजनक समस्याओं में से एक पर्यावरण की समस्या है। यह समस्या प्राकृतिक संसाधनों के अनर्गल दोहन से उत्पन्न हुई है। पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, खेत-खलिहान आदि से सामान्य मनुष्य का जीवन चलता है.

मनुष्य अपनी सुविधा संपन्न जीवन जीने के लिए इन सभी का दोहन करता है। पर्यावरण के क्षय के कारण स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी उत्पन्न हो रही हैं। बेतहाशा प्रकृति के शोषण का दुष्परिणाम भी ग्लोबल वार्मिंग, तेजाबी वर्षा, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, भूस्खलन, मृदा प्रदूषण, रासायनिक प्रदूषण, समुद्री तूफान आदि के रूप में सामने आने लगा है।


गांधी जी भारत की आजादी के प्रति जितने चिंतित थे, उससे कहीं ज्यादा विश्व पर्यावरण के प्रति चिंतित दिखाई पड़ते थे, क्योंकि गांधी जी का चिंतन ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना में ही था। उन्होंने विश्व भर में लगातार हो रही वैज्ञानिक खोजों के कारण पैदा हो रहे उत्पादों और सेवाओं को मानवता के लिए घातक बताया था। उन्होंने 1918 में राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन को संबोधित करते हुए चेतावनी दी थी कि विकास और औद्योगिकता में पश्चिमी देशों का पीछा करना मानवता और पृथ्वी के लिए खतरा पैदा करना है।

गांधी ने कहा था कि एक ऐसा समय आएगा, जब अपनी जरूरतों को कई गुना बढ़ाने की अंधी दौड़ में लगे लोग, अपने किए को देखेंगे और कहेंगे कि हमने ये क्या किया? उपभोक्तावादी तथा विलासी जीवन संस्कृति व दोषपूर्ण विकास नीति के कारण पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधन जैसे जंगल, जल स्रोत, खनिज संपदा आदि समाप्त एवं प्रदूषित हो रहे हैं। सबसे ज्यादा नुकसान जंगलों को हुआ है। विश्व के अधिकांश पहाड़ नंगे हो गए हैं और प्राकृतिक वन समाप्त हो रहे हैं। आबादी बढ़ने के साथ जंगलों में कुछ कमी आना तो स्वाभाविक था पर जंगलों का अधिकांश विनाश कागज, प्लाईवुड, कार्डबोर्ड आदि के कारखानों, विलासी जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा भ्रष्टाचार के कारण हुआ। जंगलों के बिना भूमि का कटाव हो रहा है। भूमिगत जल का स्तर नीचे जा रहा है। वर्षा व मौसम का चक्र बिगड़ गया है। जंगलों पर निर्भर रहने वाले करोड़ों लोगों की जिंदगी दूभर होती जा रही है और वे उजड़ रहे हैं।

प्लास्टिक और पॉलीथिन प्रकृति और जीवों का दुश्मन है। इसको जलाने से फ्यूरॉन व डायोक्सिन गैस उत्सर्जित होती है, जिससे फेफड़े काले हो रहे हैं और लीवर सम्बन्धित बीमारियां उत्पन्न हो रही हैं। प्लास्टिक गलने में एक हजार साल लगते हैं। हवा, मिट्टी और पानी सब पॉलीथिन से प्रदूषित हो रहे हैं। प्रकृति, गाय और जन-जीवन को नुकसान पहुंचाने वाले इन हानिकारक तत्वों का बहिष्कार करना होगा। रिड्यूज, रियूज और रिसाइकिल के साथ-साथ रिफ्यूज भी करना होगा. सभी को कपड़े से बने थैलों का उपयोग करना चाहिए. प्रतिबंधित प्लास्टिक का उपयोग करना दंडनीय अपराध है. प्लास्टिक के उपयोग को बंद करने के लिए हमें प्रचार प्रसार करना होगा। नहीं तो एक दिन पृथ्वी पर सांस लेना भी मुश्किल हो जाएगा।

गंगा नदी के किनारे करोड़ों लोग रहते हैं. हिन्दुओं में पवित्र मानी जाने वाली गंगा हजारों लोग अपनी धार्मिक आस्था के कारण स्नान करते हैं. भारतीय संस्कृति के अनुसार वृक्षारोपण को पवित्र धर्म मानते हुए एक पौधे को कई पुत्रों के बराबर माना गया है और उनको नष्ट करने को पाप कहा गया है। हमारे पूर्वज समूची प्रकृति को ही देव स्वरूप में देखते थे। प्राचीन काल से ही मनुष्य जीवन में पशुओं के महत्व के कारण तथा उनके संरक्षण के लिए अनेक पशुओं व जानवरों को देवी देवताओं की सवारी के रूप में दिखाया जाता रहा है.

वृक्ष कितने भाग्यशाली हैं, जो परोपकार के लिए जीते हैं। यह उनकी महानता है कि धूप, ताप, आंधी, वर्षा झेलकर भी वे हमारी रक्षा करते हैं.

जंगलों का विनाश राष्ट्रों के लिए तथा मानव जाति के लिए सबसे खतरनाक है। समाज का कल्याण वनस्पतियों पर निर्भर है और प्राकृतिक पर्यावरण के प्रदूषण और वनस्पति के विनाश के कारण राष्ट्र को बर्बाद करने वाली अनेक बीमारियां पैदा हो जाती है। तब चिकित्सीय वनस्पति की प्रकृति में अभिवृद्धि करके मानवीय रोगों को ठीक किया जा सकता है। समय रहते नहीं चेते तो अज्ञात बीमारी का महामारी के रूप में फैलना सम्भव है। अगर जनसंख्या दबाव को नियंत्रित तथा पर्यावरण को संरक्षित नही किया गया तो दीर्घकालीन समय में कुछ ऐसे रोग उत्पन्न हो सकते हैं, जिनका इलाज ही संभव न हो। ऐसे में यह पृथ्वी के प्राणियों के लिए अत्यंत दुखदायी होगा। अतः पृथ्वी को बचाने के लिए जो भी उपाय हमें अपनाना पड़े उसे त्वरित करना चाहिए।

-डॉ. नन्दकिशोर साह

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