काफी लम्बे समय से अक्टूबर नवम्बर के महीनों में भारत के बड़े हिस्से में वायु प्रदूषण बढ़ जाता है। क्षिति, जल, पावक, गगन व समीर अव्यवस्थित हो रहे हैं। तुलसीदास ने रामचरितमानस में पृथ्वी संकट का उल्लेख किया है। लिखा है कि अतिशय देखि धरम कै हानी/परम सभीत धरा अकुलानी।
पृथ्वी का अस्तित्व संकट में है। पर्यावरण को लेकर विश्व में बेचैनी है। भारत में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण चिंताजनक है। प्रातः टहलने वाले लोग प्रदूषित वायु में सांस लेने को बाध्य हैं। काफी लम्बे समय से अक्टूबर नवम्बर के महीनों में भारत के बड़े हिस्से में वायु प्रदूषण बढ़ जाता है क्षिति, जल, पावक, गगन व समीर अव्यवस्थित हो रहे हैं। तुलसीदास ने रामचरितमानस में पृथ्वी संकट का उल्लेख किया है। लिखा है कि ‘अतिशय देखि धरम कै हानी/परम सभीत धरा अकुलानी।’ धर्म की ग्लानि को बढ़ते देखकर पृथ्वी भयग्रस्त हुई। वह देवों के पास पहुंची और रोकर अपना कष्ट बताया। आज भी पृथ्वी का संकट ऐसा ही है। उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव में बारहों महीनें बर्फ जमी रहती है। वह बर्फ पिघल रही है। इस क्षेत्र में परमाणु, खनिज, तेल, गैस भारी मात्रा में हैं। यहां के खनिज और तेल, गैस को पाने के लिए अनेक बड़े देश लालायित हैं, लेकिन वे पर्यावरण की मूल समस्या की चिंता नहीं करते। बर्फ पिघलने से समुद्र तल ऊपर उठेगा। दुनिया खतरे में होगी। महानगरों का अराजक विस्तार हो रहा है। यहां शुद्ध वायु और शुद्ध पेयजल नहीं है। नगर विस्तार की नीति पर्यावरण हितैषी नहीं है। 2005 में संयुक्त राष्ट्र का मिलेनियम ईको सिस्टम एसेसमेंट आया था। इस अनुमान के आधार पर पृथ्वी के प्राकृतिक घटक अव्यवस्थित हो गए। ये अनुमान 17 वर्ष पुराना है। इसके पहले सन् 2000 में पेरिस के अर्थ चार्टर कमीशन ने पृथ्वी और पर्यावरण संरक्षण के 22 सूत्र निकाले थे।
भारत प्राचीन काल में पर्यावरण संरक्षण का संवेदनशील भूखण्ड था। ऋग्वैदिक काल के पूर्वजों ने पृथ्वी और नदियों को माता कहा था। जल का मुख्य स्रोत वर्षा होती है। वैदिक समाज में जलवृष्टि के कई देवता थे। इन्द्र थे, वरुण थे। पर्जन्य भी वर्षा के देवता हैं। पृथ्वी, जल, वायु, नदी, वनस्पति और सभी प्राणियों के संरक्षण से पर्जन्य प्रसन्न होते हैं। पर्यावरण के सभी घटकों का संरक्षण वैदिक काल में राष्ट्रीय कर्तव्य था। गीता में कृष्ण अर्जुन को बताते हैं, ‘अन्न से प्राणी हैं। अन्न वर्षा से होता है। वर्षा यज्ञ से होती है। यज्ञ सत्कर्मों से होता है।’ गीता में भी पर्यावरण के लिए सत्कर्म की महत्ता है। आधुनिक मनुष्य ने वैदिक संस्कृति और सत्कर्मों की उपेक्षा की है। पृथ्वी पर जीवन का संकट बढ़ रहा है।
पर्यावरण संरक्षण, पृथ्वी माता की प्राण रक्षा का आधार है। इसको लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक बार बैठकें हुई हैं। सम्प्रति 6 नवंबर से संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में मिस्र के शर्म अल शेख नगर में बैठक चल रही है। यह सम्मेलन 18 नवंबर तक चलेगा। इसके पहले स्कॉटलैंड के ग्लास्गो में भी सम्मेलन हुआ था। ब्राजील के रिओ डी जेनेरिओ नगर में पहला पृथ्वी सम्मेलन हुआ था। ऐसे सारे सम्मेलनों के प्रस्ताव बेनतीजा रहे हैं, आधुनिक औद्योगिक सभ्यता ने विश्व मानवता को संकट में डाला है। 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने टिकाऊ विकास के 17 सूत्र तय किये थे। इनमें पर्यावरण एक महत्वपूर्ण सूत्र है। भारत ने भी इन लक्ष्यों पर हस्ताक्षर किए थे। भारत ने टिकाऊ विकास के लक्ष्यों पर काम भी किया है। भारत में महत्वपूर्ण शहर नदियों के किनारे ही हैं। महानगरों का कचरा नदियों में ही जाता है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के निकट से बहने वाली यमुना जल प्रदूषण के कारण काली पड़ गई हैं। उसमें हाथ भी नहीं धोए जा सकते। कहीं कहीं भूगर्भ जल में तमाम विषैले पदार्थ निकले हैं। उत्तर प्रदेश के कानपुर व उन्नाव जिले व शहर के आस पास भूगर्भ जल में फ्लोराइड और सीसा जैसे तत्व पाए गए हैं। यह तत्व मानव जीवन को खतरा हैं। एयर कंडीशन से निकलने वाली वायु प्रदूषित होती है। कोरोना काल में लॉक डाउन से वायु प्रदूषण की गुणवत्ता उच्च कोटि की हो गई थी। सहारनपुर से हिमालय का दिखाई देना आश्चर्यजनक है।
पृथ्वी का अस्तित्व बचाने को लेकर विश्व में बेचैनी है। माता पृथ्वी व्यथित हैं। अशांत हैं। भूस्खलन और भूकंप बढ़े हैं। वायु भी अशांत है। वायु की बेचैनी आंधी और तूफानों में व्यक्त होती है। जल भी अशांत हैं। बाढ़, अतिवृष्टि, अनावृष्टि की स्थितियां बढ़ी हैं। वन, उपवन और वनस्पतियां भी अशांत हैं। जैव विविधता घटी है। पक्षी किस पेड़ पर घर बनाएं। यजुर्वेद के ऋषि ने लगभग 4000 वर्ष पहले पर्यावरण के सभी घटकों की शांति की प्रार्थनाएं की थी। – ‘पृथ्वी शांत हो। अंतरिक्ष शांत हो। औषधियां, वनस्पतियां शांत हों। सर्वत्र शांति ही शांति हो। शांति भी हमको शांति दें।’ यह प्रार्थना भारत के मंगल अवसरों पर शांति मंत्र के नाम से दोहराई जाती है। हमारा अस्तित्व असाधारण प्राकृतिक संरचना है। पृथ्वी हमारे अस्तित्व का भाग है। यह प्राणियों व वनस्पतियों के जीवन का आधार है। जल और वायु पृथ्वी के जीवन पर प्रभाव डालते हैं। ऋग्वेद के अनुसार वह पर्वतों का भार वहन करती हैं। वन और वृक्षों का आधार है। इसी से वर्षा होती है। अमेरिकी विद्वान ब्लूमफील्ड ने अथर्ववेद के भूमि सूक्त की प्रशंसा की थी, ‘पृथ्वी जीवों और वनस्पतियों का आधार है। यह पृथ्वी सम्पूर्ण संसार की धारक है। हम पृथ्वी को कष्ट न दें। यह माता हैं।’ वायु सबका जीवन है, प्राण है। वायु से ही आयु है। ऋग्वेद के ऋषि ने जल को बहुवचन जल माताएं कहा है। इन्हीं माताओं से प्रकृति की शक्तियों का जन्म हुआ है। जल, वायु, आकाश, पृथ्वी व अग्नि भारतीय चिंतन के पांच महाभूत हैं। इन्हें स्वस्थ रखना हम सबका कर्तव्य है। पर्यावरण प्रदूषण से माता पृथ्वी की रक्षा हम सबका राष्ट्रधर्म है।
-हृदय नारायण दीक्षित