अनजाने में हुई गलती को भी समझकर स्वीकार करना, सत्य को समझना व उसके प्रति खपने की पूरी तैयारी गांधीजी के आचरण में दिखाई देता है। आंदोलनों में केवल सत्य के आग्रह पर ही जोर देना है और प्रतिद्वंद्वी के प्रति निश्छल प्रेम रखना है, यह आंदोलनकारी सत्याग्रही की जिम्मेदारी है।
सत्य की खोज के लिए अहिंसा का रास्ता ही कारगर हो सकता है। इस बात को बार-बार टटोलने की आवश्यकता होती है। अगर हमारे अंतर्मन में अशांति होगी तो वह डर को पैदा करने में सहायता करेगी। उससे अनायास हिंसा पनपेगी और हिंसा के द्वारा न्याय की उम्मीद में किया गया आंदोलन सफल नहीं हो सकता है, इतिहास इसका साक्षी है।
अन्याय के विरोध व न्याय की प्रतिष्ठा के लिए गांधीजी ने अपने आंदोलनों के जरिये कुछ व्यावहारिक सूत्र स्थापित किये. भारत में उनके नेतृत्व में 1915 से 1942 तक आंदोलनों का एक संमृद्ध इतिहास है। इनमें चम्पारण सत्याग्रह 1917, खेड़ा किसान आंदोलन 1918, अहमदाबाद मिल मजदूर आंदोलन 1918, खिलाफत आंदोलन 1920, असहयोग आन्दोलन 1920, बारडोली सत्याग्रह 1928, नमक सत्याग्रह 1930, व्यक्तिगत सत्याग्रह 1940, भारत छोड़ो आंदोलन 1942; इन सभी आंदोलनों के समय राजा और प्रजा के बीच संवाद साधकर न्याय की प्राप्ति के लिए वे अहिंसा के माध्यम से शासन तंत्र को प्रभावित करने की कोशिश करते हुए दिखायी देते हैं।
अंग्रेजों द्वारा शोषण के भयानक जाल से निलहों को निजात दिलाने का संकल्प लेकर जब गांधी जी चम्पारण पहुंचे, तो उन्हें स्थानीय लोगों से मिल रहे अपार समर्थन से अंग्रेज प्रशासन के हाथ पांव फूल गये. आनन फानन में गांधीजी को चम्पारण छोड़कर जाने की नोटिस दे दी गई। गांधीजी ने नोटिस का जवाब धैर्य, विनय और दृढ़ता के साथ दिया और लिखा कि जबतक पूरा काम खत्म नहीं होता है, मैं यहाँ से नहीं जाऊंगा। आप चाहें तो मुझे जेल भेज सकते हैं। अशांति भंग की आशंका में उन्हें गिरफ्तार करके अदालत में पेश किया गया. यह बात सारे चंपारण में फैल गई. कचहरी में किसानों का रेला उमड़ा पड़ा. जज ने गांधी जी से पूछा कि आपका वकील कौन है, तो गांधीजी ने जवाब दिया, कोई नहीं. फिर? गांधी बोले, ‘मैंने जिलाधिकारी के नोटिस का जवाब भेज दिया है. अदालत में सन्नाटा खिंच गया. जज बोला, ‘वह जवाब अदालत में पहुंचा नहीं है.’ गांधीजी ने अपने जवाब का कागज निकाला और पढ़ना शुरू कर दिया. उन्होंने कहा कि अपने देश में कहीं भी आने-जाने और काम करने की आजादी पर मैं किसी की, कैसी भी बंदिश कबूल नहीं करूंगा। हां, जिलाधिकारी का आदेश न मानने का अपराध मैं स्वीकार करता हूं और उसके लिए सजा की मांग भी करता हूं। गांधीजी का लिखा जवाब पूरा होते ही अदालत में सारा कुछ उलट-पुलट गया। न्यायालय ने ऐसा अपराधी नहीं देखा था, जो बचने की कोशिश ही नहीं कर रहा था। देशी-विदेशी सारे वकीलों के लिए यह हैरतअंगेज था कि यह आदमी अपने लिए सजा की मांग कर रहा है, जबकि कानूनी आधार पर सजा का कोई मामला बनता ही नहीं है। जज ने कहा कि जमानत ले लीजिये तो जवाब मिला, ‘मेरे पास जमानत भरने के पैसे नहीं हैं।’ जज ने फिर कहा कि बस इतना कह दीजिये कि आप जिला छोड़ देंगे और फिर यहां नहीं आयेंगे, तो हम मुकदमा बंद कर देंगे। गांधीजी ने कहा, ‘यह कैसे हो सकता है! अगर आपने जेल भी दी तो उससे छूटने के बाद मैं स्थाई रूप से यहीं चंपारण में ही अपना घर बना लूंगा।’ अदालत का यह दृश्य नज़ीर बन गया. सत्य के पक्ष में सम्पूर्ण अभय और अहिंसा के साथ संकल्प के प्रति दृढ निष्ठा का यह दृश्य सारी दुनिया ने देखा. अदालत को गांधी जी को बिना शर्त छोड़ना पड़ा.
हमने इतिहास में सच और झूठ की लड़ाइयों का लेखा जोखा देखा है। उसमें हमें यह दिखता है कि इन लड़ाइयों में कभी न्याय तो कभी अन्याय के पक्ष की जीत हुई है. अन्याय का पक्ष डर के कारण हमेशा संगठित होकर ही लड़ता है. हम बार बार देखते हैं कि न्याय का पक्ष अगर सही समझ, मजबूत संगठन व दृढ़ विश्वास के साथ लड़ता है तो जीत की संभावना लगभग निश्चित हो जाती है. गांधीजी ने आंदोलनों में शुद्ध साधनों का हमेशा आग्रह रखा। अशुद्ध साधनों से शुद्ध साध्य की प्राप्ति संभव नहीं हो सकती, इस पर उनका दृढ़ विश्वास था।
1922 में असहयोग आंदोलन का नेतृत्व कर रहे गांधीजी ने चौरी-चौरा में हुई हिंसा को अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी मानकर 5 दिन का उपवास किया और संपूर्ण आंदोलन को ही वापस ले लिया. इसके बाद भी गांधीजी पर राजद्रोह का मुकदमा चला. गांधीजी ने एक बार फिर राजद्रोह के आरोपों को स्वीकार कर सजा भुगतने की तैयारी दिखाई। अनजाने में हुई गलती को भी समझकर स्वीकार करना, सत्य को समझना व उसके प्रति खपने की पूरी तैयारी गांधीजी के आचरण में दिखाई देता है। आंदोलनों में केवल सत्य के आग्रह पर ही जोर देना है और प्रतिद्वंद्वी के प्रति निश्छल प्रेम रखना है, यह आंदोलनकारी सत्याग्रही की जिम्मेदारी है।
दिल्ली बॉर्डर पर साल भर चले किसान आंदोलन ने दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा. आंदोलन का स्वरूप अंत तक अहिंसक बना रहा। यह इस आन्दोलन की उपलब्धि है; और इसीलिए यह आन्दोलन परिणामदायक भी साबित हुआ. इस सफलता से न्यायपूर्ण समाज रचना के आंदोलनों को सतत चलाने की शक्ति और सम्बल मिला है. न्याय के मुद्दों को संगठित व अहिंसक तरीकों से मजबूती के साथ रखने के अलावा दूसरा कोई रास्ता हो ही नहीं सकता। राष्ट्रपिता की धरोहर हमारे पास है ही, बस करके देखने की जरूरत है.
-अविनाश काकड़े