आखिर बेरोजगारी से पिटी हुई एक आर्थिकी कितना बोझ सह सकती है? रोजगारविहीन आर्थिकी अंततः बाजार में मांग को कमजोर हीं नहीं, चौपट भी कर देती है। सरकार के राजस्व में कमी आती है और फिर सरकार को टैक्स बढ़ाना पड़ता है, जिससे मंहगाई बढ़ती है और यह सर्कल अराजकता को जन्म देता है।
उफ़नते शेयर बाजार से अभिप्राय यह है कि अभी तीन चार साल पहले जो सेंसेक्स (शेयर बाजार का सूचकांक) दस हजार पर था, वह आज सोलह सत्रह हजार की बढ़त पर है और कोविड के पहले डिमैट एकाउंट धारकों (शेयर खरीद बिक्री के लिए आवश्यक राजिस्ट्रेशन) की जो संख्या तीन करोड़ थी, वह आज दस करोड़ के ऊपर है। जाहिर है कि इसके फलने-फूलने की वजह भारत का वह मध्यम वर्ग है, जो शेयर बाजार के इस जोखिम में भी अपनी बचत का निवेश करने आगे आया है।
इस पूरे वाकये को अगर सिर्फ एक लाइन में कहा जाये तो भारत का वित्तीय बाजार पिछले पांच सालों में शेयरों, बांडों और कई तरह की प्रतिभूतियों की खरीद-फरोख्त के मार्फत दोगुने से थोड़ा ही कम फला फूला है। इसके ठीक उलट, धाराशायी शेयर बाजार का मतलब ये होता है कि शेयरों की बिकवाली बढ़ जाती है, निवेशक शेयरों को बेचकर निकलने लगें तो शेयरों के भाव गिरने लगते हैं और जब यह बड़े पैमाने पर होता है तो कहते हैं कि बाजार धाराशायी हुआ है, जैसा अभी अडानी के मामले में हुआ है। आइये अब शेयर बाजार क्या है, इसकी मूलभूत बातें क्या हैं, ये जान लेते हैं।
उत्पादन के चार प्रमुख कारकों जमीन, श्रम, पूंजी, उद्यमिता में पूंजी को हमारी प्राजातांत्रिक व्यवस्था में इस तरह निरूपित किया गया है कि समाज का वह तबका, जिसके पास जमीन, श्रम और उद्यमिता से इतर यदि बचत के रूप में कुछ पैसे हैं, तो वह शेयर बाजार में किसी कंपनी का शेयर खरीद कर कुछ लाभ कमा सके। इसका व्यापक परिप्रेक्ष्य यह भी है कि प्रिंटेड मनी यानी कागजी रुपया किसी की तिजोरी में पड़े-पड़े जंग न खाये। कोई देश की उद्यमिता में अपनी हिस्सेदारी के नैतिक दायित्व से आनाकानी न कर सके।
तो इस देश की कुल आर्थिकी का सूत्र वाक्य ये हुआ कि पहले आम आदमी की बचत का निवेश, फिर उद्योग और तब उत्पादन, उत्पादन से एक तरफ रोजगार और दूसरी ओर निवेशकों को शेयर के बदले मुनाफा, जिसे डिविडेंट कहा जाता है। इस पूरे प्रकरण की पाकीज़गी पर गौर कीजिये तो जमीन सरकार की, पूंजी कर्ज के रूप में सरकारी-गैर सरकारी बैंकों और निवेशकों के रूप में जनता से आई और उद्यमी इन सब कारकों का संयोजक बन बैठा।
अब अपने देश में क्या होता है, इसे भी समझा जाये। बेहतर होगा कि इसे एक संक्षिप्त उदाहरण से समझें। चार उद्यमियों (प्रमोटरों) ने एक कंपनी बनाई, एक एक करोड़ रुपया निवेश करके एक प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया, जमीन सरकार से मिल गई। एक दमदार प्रोजेक्ट के बाजारू आकलन से होते हुए जब कंपनी के दस रुपये के शेयर बाजार में आये, तो लिवाली ने जोर पकड़ा और दस रुपये के शेयर का भाव सौ रुपया हो गया।
मान लीजिये कंपनी ने दस-दस रुपये के कुल एक करोड़ शेयरों का एक पोर्टफोलियो बनाया था, जिसका सिर्फ 25 % हिस्सा बाजार में देना तय किया, बाकी 75% शेयर मतलब 75 लाख शेयर चार उद्यमियों ने आपस में बांट लिये। ध्यान देने की बात है कि दस रुपये के 25 लाख शेयरों की लिवाली से कंपनी को एक तरफ जहां दस से पंद्रह करोड़ का फंड आया, वहीं चार उद्यमी, जिनके पास कुल 75 लाख शेयर हैं, वे सौ रुपये प्रति शेयर की दर से 75 करोड़ के हो गये और कंपनी का मार्केट कैप 75+15= 90 करोड़ का हो गया। अब असली खेल यहाँ से शुरू होता है।
वे चार प्रमोटर, जिन्होंने आरंभ में एक-एक करोड़ रुपये का निवेश करके कंपनी बनाई थी, उनके पास अब 75 करोड़ का शेयर है, जिसे वे बैंक में गिरवी रख कर पचास करोड़ का कर्ज तो ले ही लेंगे, ऐसा आम चलन है। ध्यान देने की बात ये है कि कंपनी अभी भी उत्पादन में नहीं आई है और अपने सिर्फ चार करोड़ के निवेश भर से 90 करोड़ का मार्केट कैप बनाया है, जिसके आधार पर पचास करोड़ का कर्ज भी मिल गया है।
उल्लेखनीय है कि नब्बे करोड़ के मार्केट कैप वाली कंपनी के पास अभी तक उत्पादन, मुनाफा, रोजगार और शेयरधारकों को मुनाफे से डिविडेंट देने की स्थिति नहीं आई है। खेल अभी सिर्फ पूंजी बाजार में ही हुआ है, जिसने महज चार करोड़ का निवेश करने वाले प्रमोटरों को पहले 75 करोड़ की कमाई करायी और बाद में 50 करोड़ का कर्ज दिलवाया।
शेयर बाजार के अनेक अनैतिक अभ्यासों में से एक चलन यह भी है कि पचास करोड़ कर्ज के आधे फंड से कारखाना, उत्पादन, वितरण जैसे तमाम काम शुरू हो गये और बाकी 25 करोड़ से अपनी ही कंपनी के शेयरों की इतनी लिवाली और बिकवाली की गई कि सौ रुपये का शेयर, बाजार में तीन सौ का हो गया और कंपनी का मार्केट कैप 90 करोड़ से बढ़कर 270 करोड़ हो गया। उसी तरह कंपनी की कर्ज लेने की हैसियत भी अब 50 करोड़ की जगह 150 करोड़ की हो गयी, कंपनी ने और कर्ज लिया। अब कंपनी दो साल की हो गयी, जिसमें एक साल उत्पादन भी हुआ और कंपनी ने जो साल भर की बैलेंस शीट बनायी, उसमें उसे दो सौ करोड़ के टर्न ओवर पर बीस प्रतिशत का मुनाफा हुआ, मतलब 40 करोड़ का मुनाफा, जिसे एक करोड़ शेयरों में बंट जाना है। ये हुआ चार रुपये प्रति शेयर का डिविडेंट, मतलब तीन सौ की कीमत वाले शेयर का भाव अब 304 रुपया हो गया।
आपने गौर किया कि इस बीच क्या-क्या हुआ? मात्र चार करोड़ के निवेश और उद्यमिता के प्रभामंडल से एक कंपनी 200 करोड़ के टर्नओवर तक जा पहुंची तथा 270 करोड़ के मार्केट कैप और 150 करोड़ के कर्ज के अलावा खुदरा निवेशकों से भी सौ करोड़ के फंड की उगाही करने में सफल रही। 75 लाख शेयरों पर चार रुपये प्रति शेयर के डिविडेंट के हिसाब से प्रमोटरों को जहाँ 3 करोड़ मिला, वहीं खुदरा निवेशकों को सिर्फ एक करोड़ ही हाथ लगा।
अब इस पूरे मसले को देश की कुल आर्थिकी के नजरिये से देखिये तो जमीन और श्रम से इतर पूंजी के जुगाड़ ने कितनी बड़ी आर्थिक असमानता की स्थिति पैदा कर दी! महज चार प्रमोटरों की उद्यमिता और उनके चार करोड़ के निवेश ने जहाँ उन्हें तीन करोड़ की कमाई डिविडेंट के रूप में दी, वहीं सिर्फ एक करोड़ की कमाई उन खुदरा निवेशकों को मिली, जिनके बल पर ये मार्केट कैप नाम का बलून फुलाया गया। यही है तीन अनुपात एक के दर से बढ़ती आर्थिक असमानता की खाई।
जिस बाजार के बल पर तीन सौ करोड़ का मार्केट कैप डिजाइन हुआ, उसे महज एक करोड़ मिला। और कर्ज देने वाले बैंक को क्या मिला? कंपनी अगर ठीक-ठाक भी चलती रही तो 150 करोड़ के जोखिम भरे कर्ज पर 8-10 % का सालाना सूद। और सबसे महत्वपूर्ण सवाल ये कि इकॉनॉमी को क्या मिला? इकॉनॉमी को वह मिला, जिसके बल पर सरकार कह रही है कि 2025-30 तक भारत की अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन डॉलर की हो जायेगी। अब आप खुद सोचिये कि यह वस्तु रहित वित्तीय ग्रोथ किस काम का है? इस तरह की वित्तीय अड़चनों से ही नीरव मोदी और विजय माल्या पैदा होते हैं।
आखिर सिर्फ पूंजी की बहुलता से कौन-सा विकास सुनिश्चित होगा कि 140 करोड़ के देश में सुख शांति आये, देश को यह सोचना होगा। बैंकों द्वारा 150 करोड़ के जोखिम भरे कर्ज से कितने रोजगार सुनिश्चित हुए, इसकी कहीं कोई चर्चा तक नहीं है। पूंजीवाद के इस स्वरूप ने बाजार को भी ठेंगा दिखा दिया। कंपनी के 25% शेयरों के बाजार मूल्य के तम्बू को थामे रखने वाले खुदरा निवेशकों के लिए एक मार्जिनल मुनाफा भी सुनिश्चित नहीं करने वाला पूंजी बाजार आखिर कितना डेमोक्रेटिक है?
पूंजी बाजार का सबसे खतरनाक जोखिम तो ये है कि खुदरा निवेशकों के बीच जो 25% शेयरों का आवांटन हुआ और जिस दस रुपये के शेयर की कीमत आज सौ से लेकर तीन सौ तक हुई, अगर ये तमाम निवेशक अपना पैसा निकालने पर एक साथ आमदा हो जाएं तो पूरी कंपनी ही बैठ जाये। दूसरी ओर शेयरों के इस बढ़े हुए भाव को थामे रखने में कंपनी को और कर्ज की जरूरत होगी, कर्जदाता बैंकों को और जोखिम उठाना होगा। याद रखिये कि बैंक चाहे सरकारी हो या गैर सरकारी, पैसा पब्लिक का ही है। इस तरह यह तस्वीर साफ है कि मुनाफे के चार हिस्सों में तीन हिस्सा प्रमोटरों का, एक हिस्सा खुदरा निवेशकों का और सारा जोखिम कर्जदाता बैंकों का है। उद्योग के नहीं चलने पर कर्ज लेकर विदेश भाग जाने वालों की संभावना ऐसी ही परिस्थिति में बनती है।
आज देश में रोजगार के जो लाले पड़े हैं और दूसरी ओर ये चंद कॉर्पोरेट जो दुनिया के दूसरे तीसरे धनाढ्य साबित हो रहे हैं, उसकी मूल वजह यही है कि बैंको के जोखिम भरे भारी कर्ज से मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर रोजगार को सुनिश्चित करने में असमर्थ हो रहा है और तीन अनुपात एक की दर से आर्थिक असमानता की जो स्थिति असमान छू रही है, उसकी कहीं चर्चा ही नहीं है। तुर्रा ये कि फलाना उद्योगपति दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा धनाढ्य आदमी बन गया है।
आखिर बेरोजगारी से पिटी हुई एक आर्थिकी कितना बोझ सह सकती है? रोजगारविहीन आर्थिकी अंततः बाजार में मांग को कमजोर ही नहीं, चौपट भी कर देती है। सरकार के राजस्व में कमी आती है और फिर सरकार को टैक्स बढ़ाना पड़ता है, जिससे मंहगाई बढ़ती है और यह सर्कल अराजकता को जन्म देता है।
आज बाजार में पसरा हुआ मंदी का सन्नाटा सुबकती हुई बेरोजगारी का परिणाम नहीं तो और क्या है? अगर बाजार पकौड़ा खरीदने की मांग से ही बेजार है, तो पकौड़ा तलना रोजगार हो भी तो कैसे? हाँ, बाजार में उन दस प्रतिशत लोगों का तबका जरूर है, जिन्हें फ्रिज, टीवी, बाइक और सुख-सुविधा की तमाम चीजें चाहिए, लेकिन इनके भरोसे मुसल्लम बाजार आबाद रहेगा, ये नहीं हो सकता।
विकसित देशों की तरह अपने देश में भी कंजम्पशन की स्थिति यह है कि एक तबका विशेष, जो अब कुछ खरीदना नहीं चाहता, वह एकदम तृप्त वर्ग है। आज सरकार को 140 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में 80 करोड़ लोगों को भोजन देने की जरूरत ऐसे ही नहीं आई है। ये पैंतालिस साल की रिकॉर्डतोड़ बेरोजगारी का ही परिणाम है। अर्थशास्त्र के इतिहास में यह स्थापित सत्य है कि 1936 में विश्व के महान अर्थशास्त्री जॉन मिनार्ड कीन्स ने जब दुनिया को रोजगार का सिद्धांत दिया तो लगभग डूबते पूंजीवाद की साख बची, खुद पूंजीवाद को भी सभ्यता के विकास में अपनी सहभागिता का भान हुआ।
यह भी याद रखा जाना चाहिए कि तबका पूंजीवाद औद्योगिक क्रांति के सिंहासन पर बैठा, एडम स्मिथ की वेल्थ ऑफ नेशन वाली छड़ी थामे और मार्शल के अर्थशास्त्र के सिद्धांत वाला चश्मा लगाये ऊंघ रहा था, तभी जॉन मिनार्ड कीन्स ने रोजगार का सिद्धांत देकर उसे झकझोर कर जगाया। बहुत सीधी-सी बात है कि पूंजी और वित्त के नाम पर कागजी रुपये का जो हिमालय खड़ा हुआ है, अगर उससे रोजगार की गंगा नहीं फूटती है तो न हिमालय किसी काम का है और न ही वह पर्यावरण, जिसमें हिमालय को हिमालय होने का दंभ हो।
-जितेशकांत शरण