गांधी और नेहरू का यह राष्ट्रवाद टैगोर की वैश्विक दृष्टि का अनुपूरक था, प्रतिपक्षी नहीं। पर राष्ट्रवाद का एक दूसरा रूप भी है, जिसमें अपनी लकीर बड़ी दिखाने के लिए दूसरों की लकीर छोटी करनी पड़ती है, भले ही लाक्षणिक रीति से ही सही, इसमें मैजिनी और हिटलर के ‘नेशनलिज्म’ की अनुगूंज है, यह भारतीयता का दम भरते हुए भी सिरे से अभारतीय है।
15 अगस्त 1947 को राष्ट्र के नाम अपने प्रथम हिन्दी संबोधन में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ”मैं आपसे आज जो बोल रहा हूं – एक हैसियत, एक सरकारी हैसियत मुझे मिली है, जिसका असली नाम यह होना चाहिए कि मैं हिन्दुस्तान की जनता का प्रथम सेवक हूं – इस हैसियत से मैं आपसे बोल रहा हूं, यह हैसियत मुझे किसी बाहरी शख्स ने नहीं दी, बल्कि आपने दी, और जब तक आपका भरोसा मेरे ऊपर है, मैं उस हैसियत पर रहूंगा और आपकी खिदमत करूंगा।”
यह प्राथमिकता, यह जज्बा उस पुरातन मनीषा का दाय है, विरासत है, जिसने कभी ”समानो मन्त्र: समिति:” की चिरकामना एवं परिकल्पना की थी। भारत में राष्ट्रवाद तो पश्चिम से आया, किन्तु गणतंत्र भारत के लिए कोई नया विचार-कर्म नहीं है। उपलब्ध इतिहास में तथा उससे पूर्व भी गणों का उल्लेख सतत मिलता है। यह सच है कि साम्राज्य और राजतंत्र उस काल में अधिक प्रचलित रहे, किन्तु गणों का सफल प्रयोग यहां-वहां होता ही रहा, जो उस जमाने के हिसाब से – तब तलवारें ही मसले तय किया करती थीं – बड़ी हैरत की बात थी। प्राचीन ग्रीस में भी गणों का अपना स्वरूप, अपनी उपस्थिति थी। गणतंत्र के लिए जिस विवेक, धीरज और आपसी समझदारी की आवश्यकता होती है, उसकी प्रतिष्ठा मनुष्य-हृदय में प्रारम्भिक काल से ही रही, यह जानना सुखद संबल देता है; इसके समानांतर आक्रामकता की, अपनी ही चलाने की एक धारा बनी रही, जिससे उस युग में राजतंत्रों का प्राबल्य रहा। आधुनिक काल आते-आते राजतंत्र सिमटते गये, तथापि गणतंत्रों में उनके अवशेष, उनकी प्रवृत्तियां जाने-अनजाने प्रवेश पाती रहीं। नेहरू जी गणतंत्र को मनुष्य द्वारा खोजी गयीं समस्त शासन-पद्धतियों से बेहतर मानते थे और उनकी समझ से ब्रिटेन सरीखी पार्लियामेण्टरी पद्धति ही भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए अनुकूल थी। किन्तु ऐसा नहीं था कि वे गणतंत्र में संभावित खामियों से अनजान थे। ”डेमोक्रेसी अच्छी है, ऐसा मैं इसलिए कहता हूं कि दूसरी प्रणालियां इससे बदतर हैं।” उन्होंने कहा था।
राजतंत्र की जो प्रवृत्तियां गणतंत्र में घुसपैठ करती आयी हैं और जिनको लेकर हमें अतिरिक्त सावधानी की जरूरत है, उनमें से एक है, चुने हुए शासक द्वारा स्वयं को सर्वज्ञाता मान लेना, यह मानना और मनवाना कि सिर्फ हम ही सही हैं, सत्य पर हमारा एकाधिकार है तथा जो हमारे मत से सहमत नहीं हैं, वह अनिवार्य रूप से गलत है। यह मान्यता समझ, विवेक और तर्क के विरुद्ध जाती है। ऐसे व्यक्ति, ऐसे दल विश्व के लगभग सभी गणतंत्रों में कभी-न-कभी चुने जाते रहे हैं। तर्क-विवेक से युक्त मत तो यह है कि हम सही हैं, लेकिन दूसरा भी सही हो सकता है। इस मत में संवाद के, सहकार के और अपेक्षित परिवर्तन के द्वार खुले रहते हैं। और यही गणतंत्र की आधारभूत शर्त है। जहां अपनी ही बात को ऊंचा रखने की वृत्ति हावी होती है, वहां असल, सजीव डेमोक्रेसी नहीं होती। नेहरू जी के शब्दों में कहें तो ”हम थोड़े विनम्र हों, सोच पायें कि हो सकता है, सच पूर्णत: हमारे साथ न हो।”
राष्ट्रवाद का जो रूप हमें आज की दुनिया में दिखायी देता है, वह मूलत: यूरोपियन राज्यों के पीछे जो वैचारिकी रही, उसकी देन है। परंतु भारत तक आते-आते उसका रूप थोड़ा बदला, यहां इतनी विविधता थी कि उसके ऐक्य में आश्चर्यजनक शक्ति के संचार का सामर्थ्य था। यह अपने आप में एक असाधारण परिघटना थी कि काश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से अरुणाचल तक एक वृहत् राष्ट्र प्रकाश में आया। अंग्रेज शासकों ने तो ऐसा नहीं सोचा होगा कि यह पूरा मुल्क एक होगा और एक बना रहेगा। फिर भी ऐसा हुआ। इस राष्ट्र को अपनी गरिमा के लिए किसी भी अन्य राष्ट्र को छोटा दिखाने की आवश्यकता ही नहीं थी, यह राष्ट्रवाद ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की विपरीत दिशा में नहीं जाता था, बल्कि उसकी पुष्टि करता था। गांधी और नेहरू का यह राष्ट्रवाद टैगोर की वैश्विक दृष्टि का अनुपूरक था, प्रतिपक्षी नहीं। पर राष्ट्रवाद का एक दूसरा रूप भी है, जिसमें अपनी लकीर बड़ी दिखाने के लिए दूसरों की लकीर छोटी करनी पड़ती है, भले ही लाक्षणिक रीति से ही सही, इसमें मैजिनी और हिटलर के ‘नैशनलिज्म’ की अनुगूंज है, यह भारतीयता का दम भरते हुए भी सिरे से अभारतीय है। इसमें ऐसे विश्व की संकल्पना और प्रतीक्षा नदारद है, जिसमें राष्ट्र ऐसे ही होंगे जैसे आज के राष्ट्र में राज्य हैं, जिनमें आपस में युद्ध नहीं होते, और इसलिए हथियारों पर होने वाला अंतहीन खर्चा वैश्विक मानवता के बहुमुखी विकास के काम आयेगा। हो सकता है, मानवता को बौद्धिक रूप से इतना प्रौढ़ होने में सदियां लग जायें, लेकिन सच्चा राष्ट्रवाद इस स्वप्न को खारिज नहीं करेगा। इस मुल्क में, हजारों साल पहले पृथिवी-सूक्त सृजित-उच्चरित हुआ था। यहां तो विश्व-नीड़ के उस स्वप्न के सत्य में प्रस्फुटन हेतु एक सदा-उर्वरा भूमि है।
नयी दिल्ली में वर्ल्ड फैडरलिस्ट्स कॉन्फ्रेंस को संबोिधत करते हुए 4 सितंबर 1963 को नेहरू जी ने अपनी बात कुछ यूं रखी थी :
”राष्ट्रवाद और राष्ट्र-राज्य के विकसित होने से पहले लोगों का नजरिया बहुत छोटा और अधिक झगड़ालू था। राष्ट्र-राज्य, कमोबेश, उस देश के भीतर शांति और व्यवस्था लाया। लेकिन तब वह राष्ट्र-राज्य अन्य देशों के प्रति बड़ा आक्रामक बनता चला गया और आज भी यह अधिकांशत: ऐसा ही है। अब यह बृहत्तर तथा अधिक बृहत्तर हो रहा है और हम एक ऐसे मुकाम पर आ पहुंचे हैं, जब अगला कदम विश्व तथा सभी राष्ट्र-राज्यों के समावेश का होना ही चाहिए, लेकिन राष्ट्र-राज्य की समाप्ति किए बगैर। जो राष्ट्र-राज्य है, वह स्वभावत: अपनी स्वाधीनता और स्वायत्तता कायम रखेगा, और अपनी स्वतंत्रता का एक भाग ही विश्व-व्यवस्था, विश्व-संगठन के लिए त्यागेगा। आज भी, अधिकतर लोग राष्ट्रवाद को एक बड़े मजबूत जज्बे के तौर पर पहचानते हैं। यह एक उम्दा जज्बा है, जब तक कि यह औरों के प्रति आक्रामक जज्बे में न तब्दील हो जाय। इसलिए, अपरिहार्य रूप से हमें ‘एक विश्व’ के लिए काम तो करना होगा। यह क्या रूप ले पायेगा, यह परिभाषित करना संभवत: अभी आसान नहीं है, पर यह ध्येय तो होना ही चाहिए।”
श्याम बेनेगल की डॉक्यूमैन्टरी फिल्म ‘नेहरू’ के आरंभ में इंदिरा गांधी कहती हैं कि ”यदि मुझे अपने पिता का वर्णन करना होता तो मैं कहती, वे मनुष्य में मौजूद मनुष्यता थे, वे सभी समस्याओं को देखते-समझते थे, सब समस्याओं में उनकी दिलचस्पी थी, ऐसा कुछ भी था, जिसका आदमियों, औरतों और बच्चों से सरोकार हो, लेकिन वे उन समस्याओं को एक बड़े, विस्तृत संदर्भ में देखा करते थे, राष्ट्र के संदर्भ में; और राष्ट्र को विश्व के संदर्भ में।”
छान्दोग्य उपनिषद में ऐसा ही एक वचन है : ”यो वै भूमा तत् सुखं नाल्ये सुखमस्ति भूमैव सुखम्।”
-शक्ति कुमार