मसूरी स्थित उनके बंगले और उससे भी खराब हालत में पड़ी उनकी मजार को देखकर बहुत हैरत और शर्मिंदगी का एहसास होता है। बचपन से सुनते आ रहे शेर ‘शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा’ का सच भी पता चलता है।
क्या आप अब्बास तैयब जी को जानते हैं? ‘अब्बास तैयब जी एजूकेशनल ऐंड चेरिटेबुल ट्रस्ट’ के उपाध्यक्ष डॉ सैयद फारूक द्वारा उनके 170 वें जन्मदिन पर बुलाई गई संगोष्ठी में शामिल होने का आमंत्रण मिलने तक हम भी अब्बास तैयब जी के बारे में बहुत कम ही जानते थे, लेकिन जब वक्ता के रूप में जानना शुरू किया तो लगा कि न सिर्फ अब्बास तैयब जी, बल्कि उनके जैसे उन तमाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को सुनियोजित तरीके से भुला देने की कोशिश हुई है, जिन्होंने देश को अंग्रेजी दासता से आजाद कराने के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर दिया था। आजादी के हीरक जयंती वर्ष में भी अब्बास तैयब जी जैसे लोगों और देश की जंगे आजादी में उनके योगदान को याद नहीं किया जाना इसका जीता जागता सबूत है। इसके उलट ऐसे लोगों का महिमामंडन हो रहा है, जिन्होंने जंगे आजादी में अंग्रेजों का साथ दिया, उनसे माफी मांगी और उनसे वजीफा लेते रहे। संगोष्ठी में डॉ फारूक के अलावा योजना आयोग की पूर्व सदस्य पद्मश्री सैयदा समदेन हमीद, एसएन साहू, वरिष्ठ अधिवक्ता अनिल नौरिया और आसिफ आजमी ने स्वाधीनता आंदोलन में अब्बास तैयब जी के योगदान और उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर रोशनी डाली।
बापू के साथ अब्बास तैयब जी
एक फरवरी 1854 को गुजरात के बड़ौदा जिले में एक सुलेमानी बोहरा परिवार में पैदा हुए अब्बास तैयब को महात्मा गांधी ‘ग्रैंड ओल्ड मैन आफ गुजरात’ और गुजरात के लोग उन्हें ‘छोटे गांधी’ कहते थे। अब्बास तैयब जी के दादा मुल्ला अली तैयब और पिता शमसुद्दीन तैयब बड़ौदा के बड़े व्यवसाई थे। अब्बास का बचपन बड़े ऐशो आराम के माहौल में बीता। वकालत की पढ़ाई के लिए वे विलायत गए। बड़ौदा उच्च न्यायालय में वह पहले भारतीय बैरिस्टर, जज और फिर मुख्य न्यायाधीश भी बने। उनके ताऊ बदरुद्दीन तैयब जी बंबई हाईकोर्ट में पहले भारतीय बैरिस्टर और फिर जज बने थे। बदरुद्दीन तैयब जी कांग्रेस के तीसरे और पहले मुस्लिम राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने थे। अब्बास तैयब जी लंदन से लौटने के बाद काफी दिनों तक अंग्रेजी राज के वफादार और प्रशंसक रहे।
1919 में उनके जीवन में एक भारी मोड़ आया, जब जलियांवाला बाग के पाशविक नरसंहार की फैक्ट फाइंडिंग कमेटी के सदस्य के रूप में तथ्यों का पता लगाने की गरज से उन्हें अमृतसर और पंजाब के अन्य इलाकों में जाना पड़ा। बर्बर नरसंहार के पीड़ितों से मिलने और जनरल डायर के वहशीपन का सच जानने के बाद वह अंदर से हिल उठे, यहीं से उनका वैचारिक कायापलट शुरू हुआ और वह महात्मा गांधी के करीब आए। गांधी जी के संसर्ग में वह पूरी तरह से बदल गए। पश्चिमी शैली का उनका अभिजात्य जीवन और ऐशोआराम की जिंदगी पीछे छूट गई। महल-अट्टालिकाओं में रहनेवाले अब्बास तैयब जी साधारण धर्मशालाओं और आश्रमों में रहने लगे। जमीन पर सोते। उनकी बेटी सोहेला, जिनकी शादी इतिहासकार इरफान हबीब से हुई, के अनुसार गांधी जी के आह्वान पर न सिर्फ अब्बास तैयब, बल्कि उनके पूरे परिवार ने महंगे विदेशी वस्त्रों की होली जला दी थी।
उन दिनों अहमदाबाद और बड़ौदा की गलियों में यह नारा गूंजा करता था- ‘खरा रुपैया चांदी का, राज तैयब-गांधी का।’ वर्ष 1930 में महात्मा गांधी ने दांडी मार्च और नमक सत्याग्रह शुरू किया तो 76 साल के अब्बास तैयब जी भी मार्च में शामिल हुए। गांधी जी ने कहा कि दांडी मार्च में अगर वह कहीं गिरफ्तार कर लिए जाते हैं, तो आगे के मार्च का नेतृत्व अब्बास तैयब जी करेंगे। 4 मई 1930 को गांधी जी और कस्तूरबा गांधी के गिरफ्तार होने के बाद तैयब जी ने दांडी मार्च का मोर्चा संभाला। उनके इस जज्बे को देखकर ही गांधी जी ने उन्हें ‘ग्रैंड ओल्डमैन आफ गुजरात’ कहा था।
अब्बास तैयब जी स्वाधीन भारत को नहीं देख सके। 1 फरवरी 1854 को पैदा होने वाले तैयब जी का 9 जून 1936 को उत्तराखंड के मसूरी स्थित उनके ‘साउथ वुड इस्टेट’ नामक बंगले में इंतकाल हो गया। उनके निधन के 15 साल बाद परिवार के लोगों ने इस बंगले को राष्ट्र के नाम समर्पित कर उसकी देखरेख के लिए एक ट्रस्ट बना दिया, लेकिन उनके बंगले और उससे भी खराब हालत में उनकी मजार के बारे में जानकर बहुत हैरत और शर्मिंदगी का एहसास होता है। बचपन से सुनते आ रहे शेर ‘शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा’ का सच भी पता चलता है।
-जयशंकर गुप्ता