महात्मा गांधी अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में लिखते हैं कि तीन पौण्ड का एक नासूर था, जबतक यह रद्द न हो जाय, चित्त को शान्ति नहीं मिल सकती। यह नासूर कौन-सा था, जो उनको पीड़ा दे रहा था? दक्षिण अफ्रीका में वकालत करते हुए अभी कुछ ही समय गुजरा था, जब एक मार्मिक घटना घटी, जो उस नासूर का कारण था।
1884 की बात है, एक दिन बाल सुन्दरम नाम का एक तमिल निवासी अपने फटे हुए कपड़े उतारकर रोता हुआ उनके पास आया। वह डर के मारे कांप रहा था और उसके आगे के दो दांत टूटे हुए थे। उसके अंग्रेज मालिक ने उसे बुरी तरह से मारा था। वह गांधीजी के पास न्याय मांगने के लिए आया था। गांधीजी तमिल जानते नहीं थे। उन्होंने एक मुंशी को बुलाकर सारी बात जानी। बाल सुन्दरम एक प्रतिष्ठित गोरे के यहाँ मजदूरी करता था। मालिक किसी वजह से गुस्सा हुआ होगा, उसने बाल सुन्दरम की जमकर पिटाई की थी। गांधीजी ने उसे कपड़ा पहनाया और एक आदमी के साथ डॉक्टर के पास उपचार के लिए भेजा। गांधीजी ने मन बना लिया था कि इसे उस अंग्रेज अफसर से छुटकारा दिलाना होगा। इसके लिए गांधीजी ने गिरमिटियों के सम्बन्ध में पूरी जानकारी कर ली।
1860 में जब अंग्रेज दक्षिण अफ्रीका गये थे, तब उन्हें लगा कि यहाँ पर गांजे की खेती अच्छी होगी। इसके लिए उन्होंने मजदूरों को भारत से बड़ी संख्या में बुलाने का फैसला किया, क्योंकि वे जानते थे कि भारत के मजदूर खेती करने में बाकी लोगों से ज्यादा जानकारी रखते हैं। इसलिए नेटाल निवासी गोरों ने भारत सरकार से विचार-विमर्श करके हिन्दुस्तानी मजदूरों को नेटाल ले जाने की अनुमति प्राप्त कर ली। उन्हें यह लालच दिया गया कि पांच साल तक मजदूरी करने का बंधन रहेगा और पांच साल बाद उन्हें स्वतंत्र रूप से नेटाल में बसने की छूट रहेगी, उनको जमीन का मालिक बनने का भी पूरा अधिकार होगा। उस समय गोरे चाहते थे कि हिन्दुस्तानी मजदूर पांच साल बाद जमीन जोतें और उसका लाभ नेटाल को दें। जो मजदूर इन शर्तों को मानकर दक्षिण अफ्रिका आये, वे गिरमिटया कहे गये और उनके लिए अलग कानून बनाये गये।
गंधीजी ने पूरा कानून समझकर बाल सुन्दरम की मदद करने का निर्णय लिया। मारपीट में लगी चोटों का डॉक्टर से एक कागज बनवाकर गांधीजी गिरमिटया कानून के अधिकारी से मिले और उसे पूरी जानकारी दी। उसने सुझाव दिया कि अगर कोई दूसरा अंग्रेज सुन्दरम को रखने के लिए तैयार हो जाये, तो वह उसे मुक्त करवा देगा। गांधीजी भी यही चाहते थे। उन्होंने अपने एक जान-पहचान वाले अंग्रेज से बातचीत की और वह अंग्रेज सुन्दरम को रखने के लिए तैयार हो गया। गांधीजी पुनः उस अंग्रेज के पास गये, जिसने सुन्दरम को मारा था और कहा कि आपने बालसुन्दरम को बहुत बुरी तरह से मारा है। आपको कायदे से सजा दिला सकता हूँ, पर मेरी इच्छा यह है कि आप इसे मुक्त कर दें और इसका गिरमिट उसके नाम लिखने के लिए राजी हों तो मुझे सन्तोष होगा। मालिक भी यही चाहता था। मजिस्ट्रेट ने मालिक को अपराधी ठहराकर बाल सुन्दरम का गिरमिट उसके नाम लिखना स्वीकार किया।
इस घटना के बाद गांधीजी दक्षिण अफ्रीका के मजदूरों में विख्यात हो गये। 1894 में नेटाल सरकार ने एक नया कानून लागू करने का निश्चय किया, हिन्दुस्तानी मजदूरों ने पांच साल में अच्छी तरक्की कर ली, सब्जी एवं फल आदि लगाकर अच्छा व्यापार करने लगे, घर बनाने के लिए जमीन खरीदी, कुछ मजदूर अच्छे जमींदार बन गये और मकान मालिक बन गये। कई तो स्वतंत्र व्यापारी भी हो गये। अंग्रेज व्यापारियों ने कभी नहीं सोचा था कि हिन्दुस्तानी हमसे ज्यादा अच्छा व्यापार करने लगेंगे। इस चिंता के कारण नेटाल सरकार ने निर्णय लिया कि मजदूरी का इकरार पूरा हो जाने पर गिरमिटिये वापस हिन्दुस्तान चले जायें अथवा नये गिरमिटिये भिजवायें, जिन्हें कुछ अधिक वेतन दिया जाये। अगर वे वापस नहीं जाते तो मजदूरी का नया इकरारनामा लिखें, जिसमें हर साल 95 पौण्ड का कर दें। इस कानून को स्वीकार कराने के लिए दो अंग्रेज अफसर सर एनरी बींस एवं मि नेसनका को भारत के अधिकारी मि एलविज से मिलने के लिए भेजा गया। 95 पौण्ड का कर नामंजूर कर दिया गया। उसके स्थान पर 3 पौण्ड का कर लेने की स्वीकृति मिली, जिसका मूल्य उस समय 45 रू था, जो वहाँ के मजदूरों के लिए बहुत अधिक था। दुनिया के किसी भी देश में इस तरह का कानून नहीं था। तीन पौण्ड का कर गांधीजी को नासूर लगता था और वे इसे किसी भी तरह समाप्त करना चाहते थे। तीन साल अफ्रीका में रहने के पश्चात गांधीजी 6 माह के लिए भारत आये और उन्होंने अपना यह कर्तव्य समझा कि भारतवासियों को दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले लोगों के संबंध में ज्यादा से ज्यादा जानकारी दें। इसलिए उन्होंने एक अफ्रीका के संबंध में छोटी सी पुस्तिका लिखी, जिसकी दस हजार प्रतियाँ छपवायीं। इसे उन्होंने देश के सभी समाचार पत्रों के सम्पादकों को भेजा। इसी के साथ हिन्दुस्तान के प्रमुख नेताओं से मिलने का विचार भी बनाया। इस पुस्तक को ब्रिटेन की सरकार के पास भी भेजा।
गांधीजी ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए हिन्दुस्तान के प्रमुख शहरों में लोगों की बड़ी सभा करने के लिए निवेदन किया और समाचार पत्रों के सम्पादकों से इस विचार को जन-जन तक पहुंचाने की अपेक्षा रखी। इसी क्रम में उन्होंने बम्बई के मशहूर वकील फिरोज शाह से मुलाकात की और उनके सहयोग से सभा का आयोजन किया। गांधीजी ने पूना में लोकमान्य तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले से मिलकर मुहिम को आगे बढ़ाया। लोकमान्य तिलक के साथ मुलाकात उनके लिए उत्साहवर्धक रही। गोखले से गांधीजी फरगुसन कॉलेज में मिले और उनके साथ आत्मीय बातचीत हुई। गांधीजी गोखले की उदारता से प्रभावित हुए और दोनों एक-दूसरे के निकट आ गये। गांधीजी पूरे भारत का भ्रमण करने के बाद पुनः दक्षिण अफ्रीका गये और गहराई से इसकी जानकारी प्राप्त की।
गांधीजी लगातार यह प्रयास करते रहे कि भारत का कोई बड़ा नेता यहाँ आये और इस कानून को खत्म करने में सहयोग करे। उन्होंने गोखले को पत्र लिखकर अपनी इस भावना से अवगत कराया। 25 फरवरी, 1910 को भारत की कौंसिल ने एक प्रस्ताव किया कि नेटाल का कोई भी मजदूर वापस नहीं भेजा जाये। गोखले ने भारत सरकार से इच्छा व्यक्त की कि वे अफ्रीका जाना चाहते हैं और वहाँ भारतीयों की दशा की जानकारी प्राप्त कर अपनी रिपोर्ट सरकार को देंगे। सरकार ने गोखले की बात मान ली और 6 हफ्ते के लिए अफ्रीका जाने की अनुमति दे दी। यह समाचार गांधीजी के लिए बहुत सुखद था। गोखले उस समय इंग्लैण्ड गये हुए थे, वहीं से उनका दक्षिण अफ्रीका जाने का कार्यक्रम बना।
22 अक्टूबर 1912 को गोखले केपटाउन पहुंचे। गांधीजी ने वहां उनका भव्य स्वागत किया। जोहांसबर्ग में गांधीजी ने एक बड़ी दावत रखी, यहाँ गोखले ने लम्बा भाषण दिया और सभी के सामने वस्तुस्थिति रखी। गोखले के स्पष्ट विचारों का काफी प्रभाव पड़ा। अंतिम पड़ाव में प्रिटोरिया में कार्यक्रम रखा गया जहाँ पर सरकार के दो सम्मानीय मंत्रियों के साथ जनरल मि. बोथ एवं जनरल मि. स्मूथ ने भी भाग लिया। चर्चा के बाद निर्णय लिया गया कि काला कानून 3 पौण्ड को रद्द किया जाये। भारतीयों के साथ जो व्यवहार किया जाता है उसमें सुधार किया जाये।
गोखले के भारत आने के बाद अंग्रेज सरकार ने अपनी ही बात नहीं मानी और काला कानून जारी रखा। गांधीजी ने यह सूचना गोखले जी को भेजी और यह भी लिखा कि जब तक हम जिंदा हैं, इस कानून के खिलाफ लड़ते रहेंगे। इस लड़ाई ने दक्षिण अफ्रिका में विकराल रूप ले लिया। जगह-जगह आन्दोलन प्रारम्भ हो गये। अंततः 30 जून, 1914 को यह कानून समाप्त किया गया। इसके बाद गांधीजी 1915 में हमेशा के लिए भारत आ गये। इस जीत का समाचार भारत में जन-जन तक पहुंचा और गांधीजी अब ‘‘कर्मवीर गांधी’’ हो गये। इस बात में भरोसा जागा कि अहिंसक रास्ते पर भी सफलता संभव है।
-डॉ. अवध प्रसाद