हम जो कुछ भी विकास के नाम पर करते हैं, उसका कोई न कोई सामाजिक मूल्य भी होता है. वह केवल आर्थिक नहीं हो सकता, इस सामाजिक मूल्य का भी आकलन होना चाहिए और उसके आधार पर तय करना चाहिए कि सचमुच हम जिसको फायदेमंद मान रहे हैं, उसका कोई फायदा होता भी है या नहीं.
मीनाक्षी नटराजन
1947 के बाद जब हम एक आधुनिक राज्य बन गये, तो राष्ट्र को एक प्रतीक के रूप में देखने लगे, उसकी पूजा करने लगे. हम यह मानते हैं कि यह धरती ईश्वर की है. तो हम यह भी मानेंगे कि हम विशिष्ट नहीं हैं. हमारे और प्रकृति के अंतरसंबंधों के साथ यह राष्ट्र चल रहा है. प्रकृति हमारे डिस्पोजल पर नहीं हैं, हम उसके भाग हैं.
हमारी औपनिवेशिक देन के चलते हमने मान लिया है कि कुछ जोन होंगे, जिनमें वन होंगे, वनस्पति होगी, पशु-पक्षी होंगे, अभ्यारण होंगे और कुछ जोन होंगे, जिनमें हम होंगे. यह समझ औपनिवेशिक देन है. प्रकृति इस तरह से वर्गीकृत होने के लिए नहीं बनी है, हम उसके ही भाग हैं और हम सब एक दूसरे के साथ कैसे रह सकते हैं, इसका नियोजन करने की चुनौती हमारे सामने है. असल में पर्यावरण विकास की राह का रोड़ा नहीं है, जिसको आज हम विकास कह रहे हैं, वह निसर्ग की राह का रोड़ा बन रहा है. हम लोगों को इसका चिंतन करना है और उस निसर्ग में अपने आप को इस तरह देखना है कि उसके बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं है. पूंजी लगाकर हम पर्यावरण को जीवित नहीं कर सकते, बल्कि पर्यावरण से पूंजी प्राप्त कर सकते हैं. आज हम सबके सामने यह बहुत बड़ा प्रश्न है कि पूरे विश्व में भारत कार्बन उत्सर्जन में तीसरे नंबर पर है, लेकिन इसके बावजूद भारत में जो प्रति व्यक्ति उत्सर्जन है, वह मात्र 1.4 टन है. अगर इसकी तुलना हम अमेरिका से करें तो वहां पर प्रति व्यक्ति उत्सर्जन करीब 16.21 टन है. यहाँ एक विषमता की स्थिति दिखाई देती है.
अब अगर हम अमेरिका जैसी जीवन शैली चाहते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमें भी अमेरिका जितनी दर से कार्बन उत्सर्जित करना होगा. हाल ही में एक सर्वे हुआ, इस सर्वे में 623 जिलों के 203313 घरों का कितना कार्बन उत्सर्जन होता है, उसका एक अध्ययन सामने आया. उसमें दो बातें हैं. एक तो यह कि पांचवी अनुसूची के जिलों में, जहां हमने अलग-अलग तरह रिजर्व बना दिए हैं, जिनमें सबसे ज्यादा उत्खनन हो रहा है और जिनमें सबसे ज्यादा गरीबी और कुपोषण है और जिनमें सबसे ज्यादा विस्थापन का दर्द झेला जाता है, ऐसे लगभग 150 जिले हैं. इन्हीं जिलों में सबसे ज्यादा वन हैं, यहीं से सर्वाधिक लोग बेदखल किए जा रहे हैं और सबसे ज्यादा कुपोषण झेलने के लिए मजबूर हैं. यह सब कुछ प्रकृति को बचाने के नाम पर होता है, लेकिन सबसे ज्यादा जो लोग प्रकृति को बचा रहे हैं, वही इस तथाकथित विकास की सामाजिक कीमत चुका रहे हैं.
हम जो कुछ भी विकास के नाम पर करते हैं, उसका कोई न कोई सामाजिक मूल्य भी होता है. वह केवल आर्थिक नहीं हो सकता, इस सामाजिक मूल्य का भी आकलन होना चाहिए और उसके आधार पर तय करना चाहिए कि सचमुच हम जिसको फायदेमंद मान रहे हैं, उसका कोई फायदा होता भी है या नहीं.
जिसको हम विकास कहते हैं, वह फ्लाईओवर हो सकता है, सड़क हो सकती है, वह ऑल वेदर रोड हो सकती है, वह मेट्रो हो सकता है, एयरपोर्ट हो सकता है. लेकिन इसका जो सामाजिक मूल्य हम चुकाते हैं वह यह कि इनसे विस्थापित तबके को इसका कोई लाभ नहीं मिलता. कोविड के समय पैदल चलते मजदूरों को तो हमने देखा, लेकिन जो अपनी जगह पर, अपने पर्यावरण के निकट रहते हुए अपने नेचुरल रिहाइश से हटाए जाते हैं, वह हमें दिखाई नहीं देते और यही लोग सबसे ज्यादा सामाजिक मूल्य चुकाते हैं.
हमारे देश के जो सबसे अमीर लोग हैं, यदि उनका प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन देखें, तो वह 1.32 टन है और जो सबसे गरीब है, जो प्रतिदिन ₹140 से कम कमाते हैं, उनका करीब-करीब पॉइंट 9 टन प्रति व्यक्ति है. अब हमारे सामने दूसरा सवाल यह उठता है कि हम किस तरह से अपनी गरीबी को कम करने का प्रयास करें? एक बहुत बड़ा वर्ग है, जिसको ऐसा लगता है कि गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रमों से कार्बन उत्सर्जन बढ़ता है, पर यह पूरा सही नहीं है. गरीबी उन्मूलन के वे कार्यक्रम, जिनमें काम के बदले अनाज योजना है या जिनमें सामुदायिक वन भूमि पट्टे पर दी जाती है, उन सबसे जो उत्सर्जन होता है, वह 1.97 टन है, लेकिन अगर हम अमीरों को और ज्यादा अमीर बनाएं, तो हम देखते हैं कि कार्बन उत्सर्जन 50 फ़ीसदी बढ़ जाता है.
हम कहते हैं कि हम एक कृषि प्रधान मुल्क हैं, जहां करीब-करीब एक मिलियन हेक्टेयर में 7.27 मिलियन लोगों का पालन होता है, उनमें जो सबसे ज्यादा गरीब हैं, उनके सामने दो चुनौती है. एक तो उनको अपना भरण-पोषण करना है, इसके साथ साथ उनको हमारे देश को भी आत्मनिर्भर बनाना है. ऐसे में जरूरी यह है कि हम स्पेशल इकोनामिक जोन बनाकर निर्धनता को फिर परिभाषित करें. हमारे लिए निर्धनता का मतलब केवल पूंजी का न होना नहीं है, बल्कि निसर्ग का खोना है, इसलिए हम पर्यावरण के पतन को गरीबी के साथ जोड़कर देखें और यह मानें कि पर्यावरण के साथ चलकर हम गरीबी की चुनौतियों को हल कर सकते हैं.