ब्रह्मविद्या मंदिर के पीछे विनोबा की भव्य कल्पना थी। वे मानते थे कि वह उनकी सर्वोत्तम कल्पनाओं में से एक है। वे चाहते थे कि वहां मन को समाप्त करने की साधना हो।
1938 में स्वास्थ्य लाभ के लिए विनोबा पवनार आये और फिर वहीं स्थिर हुए। स्वाभाविक रूप से उनके इर्द गिर्द आश्रम खड़ा हुआ। इस भूमि पर विनोबा की गहरी साधना हुई – आध्यात्मिक साधना और शारीरिक साधना भी। इस भूमि के चप्पे-चप्पे पर न केवल उनके चरण चले, बल्कि उनका पसीना भी बहा और उनके हाथ भी घूमे। इसी जमीन को खोदते हुए उन्हें भरत-राम मूर्ति का सहज लाभ हुआा इसीलिए पवनार के स्थान के बारे में विनोबा को गहरा लगाव था।
1958 में विनोबा जी के मन में इस तरह का आश्रम खड़ा करने की कल्पना आयी। उनकी पदयात्रा के दौरान ही 14 मार्च 1959 को जमनालाल बजाज के जन्मस्थान काशिकावास में ब्रह्मिवद्या मंदिर के उद्घाटन की घोषणा हुई। सात व्यक्ति वहां से निकलकर पवनार पहुंचे, जहां पुराने सत्याग्रह आश्रम का ढांचा खड़ा ही था। वहीं ब्रह्मविद्या मंदिर बना। विनोबा जी की पदयात्रा जारी रही।
1964 में भारत की पूरी प्रदक्षिणा करने के बाद विनोबा जी को अपने थके हुए पैरों को रोकना पड़ा। फिर विनोबा जी का निवास 1965 से 1969 के बीच बिहार में चले ग्रामदान अभियान की कालावधि छोड़कर यहीं रहा। यही स्थान उनकी आखिरी साधना का स्थान बना। विनोबा जी के लिए ही यह पुण्यभूमि बनी है। ब्रह्मविद्या मंदिर के पीछे विनोबा की भव्य कल्पना थी। वे मानते थे कि वह उनकी सर्वोत्तम कल्पनाओं में से एक है। वे चाहते थे कि वहां मन को समाप्त करने की साधना हो। इसीलिए उन्होंने आश्रमवासी भगिनियों से कहा था, ‘तुम सब किस स्तर की हो, इसकी मुझे चिन्ता नहीं है। यहां हम जो प्रयोग कर रहे हैं, उसका स्तर हम याद रखें, तो पर्याप्त है। ऊंचा ध्येय सामने रखते हैं और उसका उच्चारण करते हैं, तो उतने भर से आप आगे बढ़ेंगे। उद्देश्य और शब्द आपको आगे ढकेलेंगे।’
इसी श्रद्धा के साथ, विभिन्न प्रदेशों से आयी भगिनियों का समूह आज भी वहां डटा है। गांधी जी और विनोबा जी के आश्रमों में अक्सर वे ही जीवन क्रम और जीवन शैली निर्धारित करते थे। ब्रह्मविद्या मंदिर अपवाद है। वहां गणसेवकत्व चले, यह कल्पना है। वहां कोई एक व्यवस्थापक नहीं है। सब मिलकर सर्वानुमति से हर एक निर्णय लेते हैं। गांव-गांव में यही हो, यह विनोबा जी चाहते थे। उसका प्रयोग करने की ईमानदार कोशिश यहां हो रही है। जब विनोबा जी थे, तभी से हो रही है। विनोबा जी कहा करते थे कि वे यहां डिक्शनरी (शब्दकोश) के जैसे रहेंगे। शब्दकोश का उपयोग कोई करना चाहे, तब कर सकता है। वह अपनी ओर से कुछ नहीं करता। यही विनोबा जी की भूमिका रही।
दूसरे आश्रमों या मठों जैसे ब्रह्मचर्य और ऐच्छिक दारिद्र्य के सिद्धान्त यहां अपनाये गये हैं। शरीर श्रम और स्वाध्याय आश्रम की दिनचर्या के मुख्य अंग हैं। उनके द्वारा स्वावलंबन साधने की कोशिश होती है – स्थूल अर्थ में भी, और आध्यात्मिक, यानी आत्मावलंबन के अर्थ में भी। आश्रम के छोटे-से खेत में समूह खेती करता है। कताई के द्वारा वस्त्र स्वावलंबन साधता है। गोशाला दूध की आपूर्ति करती है। ब्रह्मविद्या मंदिर में हर वर्ष 15-16-17 नवंबर को मित्र-मिलन होता है। इसके सिवा समय-समय पर संगीतियां होती हैं, जिनमें बाहर के कुछ लोग भी शिरकत करते हैं।
विनोबा जी का जन्मदिन 11 सितंबर को पवनार गांव के लोग भक्तिमय वातावरण में मनाते हैं। बुक स्टाल पर विनोबा जी की पुस्तकें उपलब्ध रहती हैं। ‘मैत्री’ मासिक पत्रिका नियमित रूप से निकलती है। पहले उसके लिए आश्रम में एक छोटा-सा मुद्रणालय भी था। आधुनिक तंत्रज्ञान आने से वह अब नहीं रहा। विनोबा जी की पुस्तकों के संपादन तथा अनुवाद का कार्य भी होता रहा है। विनोबा जी का चुनिन्दा साहित्य 21 खंडों में प्रकाशित हुआ है। वह सब काम तथा विनोबा जी के चरित्र का चित्रमय दर्शन कराने वाला ‘विनोबा दर्शन’ ग्रंथ यहीं के पुरुषार्थ से संभव हुआ है।
ब्रह्मविद्या मंदिर आज भी दर्शनार्थियों के आकर्षण का केन्द्र है। लोगों का आवागमन चलता रहता है। नीचे से धाम नदी बहती रहती है। उसी के कारण इसका ‘परंधाम’ नाम दिया गया है। किनारे पर गांधी जी की छतरी है, जहां गांधी जी की अस्थियां विसर्जित हुई हैं। नदी के पात्र में ही विनोबा जी की अस्थियां विसर्जित हुई। वहां एक स्तम्भ खड़ा है। ब्रह्मविद्या मंदिर में आज भी एक प्रयोग चल रहा है। बेशक, बहुसंख्य भगिनियों की ढलती उम्र और गिरते स्वास्थ्य के कारण मर्यादाएं आयी हैं। जरूरी है कि नये खून की आपूर्ति होती रहे। यह जिम्मेवारी पूरे सर्वोदय परिवार की है।
-पराग चोलकर