इस प्रकरण में तथा ऐसे ही अन्य प्रकरणों में प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, भाजपा अध्यक्ष, आरएसएस प्रमुख की चुप्पी एक खतरनाक संदेश देती है। वे इस तरह की घटनाओं की निंदा नहीं करते हैं तो यह कोई संयोग भर नहीं है, बल्कि उनकी रणनीति का हिस्सा है। वे अपने अनुयायियों को यह बताना चाहते हैं कि वे रक्षा कवच के रूप में मौजूद हैं, इसलिए वे जो जी में आए, कर सकते हैं
शास्त्रों में मौन को स्वीकृति का लक्षण माना गया है। हालांकि यह कभी बेबसी, अवसरवाद, चालाकी तो कभी साजिश का लक्षण भी हो सकता है और कभी-कभी इन सब का मेल भी। पश्चिम बंगाल में हिंदू महासभा द्वारा पहली बार आयोजित दुर्गा पूजा से उत्पन्न विवाद को इसी पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है। इतिहास को हमेशा कालखंडों में बांटकर देखा जाता है। भारत में आजादी के बाद एक कालखंड का प्रारंभ होता है, जिसका एक उपखंड है केंद्र में 2014 में दक्षिणपंथी विचारधारा की सरकार का पूर्ण बहुमत के साथ गठन।
इस उपखंड की कई खासियतें हैं। एक तो आजादी के आंदोलन के नायकों के व्यक्तित्व, विचार और मूल्यों को एवं तोड़ना मरोड़ना, विकृत करना, निस्तेज करना, भ्रमित और दूषित करना। इस दौर की प्रचलित हरकतें लुभावनी हैं। अपने इन्हीं उद्देश्यों को हासिल करने के बीच-बीच में नाटकीय करतब पेश किए जाते हैं। ऐसा ही एक कारनामा पश्चिम बंगाल के कस्बा इलाके में रूबी क्रॉसिंग के पास स्थापित दुर्गा प्रतिमा के साथ हुआ। इस प्रतिमा में महात्मा गांधी को महिषासुर के स्थान पर रखा गया था। इसकी तुरंत प्रतिक्रिया हुई और घटना की चौतरफा निंदा होने लगी। पश्चिम बंगाल कांग्रेस पार्टी के नेता कौस्तुभ बागची ने टीटागढ़ थाने में आयोजकों के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई। इसके बाद स्थानीय पुलिस ने स्वतः संज्ञान लेते हुए देर से ही सही, कस्बा थाने में एक और मामला दर्ज कर लिया। इस घटना की जानकारी मिलते ही पुलिस चौकस हो गई और रातों-रात मूर्ति का हुलिया बदल दिया गया। चश्मा उतार दिया गया और डरावनी मूंछे लगा दी गयीं। सर पर बालों का विग लगा दिया गया और इस प्रकार अवांछित मूर्ति का महिषासुर में रूपांतरण हो गया।
इस पूजा के आयोजक और पश्चिम बंगाल में हिंदू महासभा के कार्यवाहक अध्यक्ष चंद्रचूड़ गोस्वामी दावा करते हैं कि महात्मा गांधी को असुर के रूप में नहीं दिखाया गया था, यह महज एक संयोग था। उनका कहना था कि यह सही है कि असुर का चेहरा गांधीजी से मिलता था, लेकिन ऐसा जान बूझकर नहीं किया गया। लेकिन हमलोग मोहनदास करमचंद गांधी को राष्ट्रपिता नहीं मानते, नेताजी का सम्मान करते हैं। आयोजकों का कहना है कि ऊपरी दबाव के चलते मूर्ति का चेहरा बदल दिया गया। यहां चंद्रचूड़ इस घटना की सीधे जिम्मेवारी नहीं ले रहे हैं और इसे संयोग बता रहे हैं। जबकि हिंदू महासभा के प्रदेश अध्यक्ष सुंदरगिरी महाराज फरमाते हैं कि हिंदू समुदाय के लोग धार्मिक से ज्यादा दार्शनिक हैं, गांधीजी किसी भी लिहाज से महात्मा नहीं थे, ऐसे में अगर असुर की मूर्ति गांधी जी की तरह दिखती थी, तो उसमें कुछ गलत नहीं था।
एक ही संगठन के दो प्रमुखों के वक्तव्यों को आमने- सामने रखकर परीक्षण करें, तो इसमें पाखंड एवं चालाकी टपक रही है. एक पदाधिकारी इसे संयोग बता रहा है तो दूसरे को इसमें कुछ भी गलत नहीं नजर आ रहा। यहां यह पूछा जाना चाहिए कि क्या कोई मूर्तिकार बिना आयोजकों की फरमाइश के अपारंपरिक मूर्ति बनाने की हिम्मत सकता है? स्वाभाविक है, आयोजकों ने ऐसी मूर्ति बनाने का निर्देश दिया था।
दोनों पदाधिकारियों के बयान से स्पष्ट होता है कि एक तरफ कानूनी पेचीदगियों से बचने की कवायद है तो दूसरी ओर करतूत को उचित ठहराने का प्रयास। आरएसएस और हिंदू महासभा जैसे दक्षिणपंथी संगठनों की एक मूल कार्यशैली है, जिसमें झूठ, फरेब,छल, तिकड़म, पाखंड आदि गुण समाहित है।
इस प्रकरण में तथा ऐसे ही अन्य प्रकरणों में प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, भाजपा अध्यक्ष, आरएसएस प्रमुख की चुप्पी एक खतरनाक संदेश देती है। वे इस तरह की घटनाओं की निंदा नहीं करते हैं तो यह कोई संयोग भर नहीं है, बल्कि उनकी रणनीति का हिस्सा है। वे अपने अनुयायियों को यह बताना चाहते हैं कि वे रक्षा कवच के रूप में मौजूद हैं, इसलिए वे जो जी में आए, कर सकते हैं।
-अरविंद अंजुम