नेहरू धर्म के वैज्ञानिक और स्वच्छ दृष्टिकोण के समर्थक थे। उनका मानना था कि भारत धर्मनिरपेक्ष राज्य है, न कि धर्महीन। सभी धर्मो का आदर करना और सभी को उनकी धार्मिक आस्था के लिए समान अवसर देना राज्य का कर्तव्य है। नेहरू जिस आजादी के समर्थक थे, जिन लोकतांत्रिक संस्थाओं और मूल्यों को उन्होंने स्थापित किया था, आज वे खतरे में हैं। मानव गरिमा, एकता और अभिव्यक्ति की आजादी पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। अब समय आ गया है कि हम एकजुटता, अनुशासन और आत्मविश्वास के साथ लोकतंत्र को बचाने का प्रयास करें। हम आज़ादी के आंदोलन के मूल्यों पर फिर से बहस करें और एक सशक्त और ग़ैर साम्प्रदायिक राष्ट्र की कल्पना को साकार करने में सहायक बनें। हमारे इस पुनीत कार्य में नेहरू एक पुल का कार्य कर सकते हैं।
आज आजादी के पचहत्तरवें वर्ष में भी पं.जवाहर लाल नेहरू चर्चा में हैं। उन पर आरोप-प्रत्यारोप की बारिश हो रही है। वजह साफ है कि नेहरू के सपनों के भारत से हम विमुख हुए हैं। एक नए तरह का भारत बनाने की प्रक्रिया जारी है, जिसके विरोध में नेहरू आज भी चट्टान की तरह खड़े हैं। जाहिर है, बिना उन्हें हटाये ये राह आसान नहीं है। नेहरू ने 15 अगस्त 1954 को लाल किले की प्राचीर से एलान किया था, “अगर कोई मजहब या धर्म वाला यह समझता है कि हिंदुस्तान पर उसी का हक़ है, औरों का नहीं, तो उससे हिंदुस्तान का सम्बंध नहीं है। उसने हिंदुस्तान की राष्ट्रीयता, कौमियत को नहीं समझा है, हिंदुस्तान की आजादी को नहीं समझा है, बल्कि वह हिंदुस्तान की आजादी का एक माने में दुश्मन हो जाता है, उस आजादी को धक्का लगाता है, उस आजादी के टुकड़े बिखेरता है, क्योंकि हिंदुस्तान की जड़ है आपस की एकता और हिंदुस्तान में जो अलग-अलग मजहब, धर्म और जातियां हैं, उनसे मिलकर रहना। उनको एक दूसरे की इज्जत करना है, एक दूसरे का लिहाज करना है।….हमें हक़ है अपनी-अपनी आवाज़ उठाने का, लेकिन किसी हिंदुस्तानी को यह हक़ नहीं है कि वह ऐसी बुनियादी बातों के खिलाफ आवाज़ उठाए, जो हिंदुस्तान की एकता को, हिंदुस्तान के इतिहास को कमजोर करे, अगर वह ऐसा करता है तो हिंदुस्तान के और हिंदुस्तान की आजादी के खिलाफ गद्दारी करता है।”
जिस “आइडिया ऑफ इंडिया” की कल्पना नेहरू ने की थी, उसमें भारत को न केवल आर्थिक एवं राजनैतिक दृष्टि से स्वावलम्बी होना था बल्कि ग़ैर साम्प्रदायिक भी होना था। ये नेहरू ही थे, जिन्होंने समाजवाद के प्रति असीम प्रतिबद्धता दिखाई और धर्म निरपेक्षता तथा सामाजिक न्याय को संवैधानिक जामा पहनाया। प्रगतिशील नेहरू ने विविधता में एकता के अस्तित्व को सदैव बनाये रखते हुए विभिन्न शोध कार्यक्रमों तथा पंचवर्षीय योजनाओं की दिशा तय की, जिस पर चलकर भारत आधुनिक हुआ। नेहरू ने राजनैतिक आज़ादी के साथ-साथ आर्थिक स्वावलम्बन का भी सपना देखा तथा इसको अमली जामा पहनाते हुए कल-कारखानों की स्थापना, बांधों का निर्माण, बिजलीघर, रिसर्च सेन्टर, विश्वविद्यालय तथा उच्च तकनीकी संस्थानों की उपयोगिता पर विशेष बल दिया। महिला सशक्तिकरण और किसानों के हित के लिए कटिबद्ध नेहरू दो मजबूत खेमों में बंटी दुनिया के बीच मजलूम और कमजोर देशों के मसीहा बनकर उभरे। उन्हें संगठित कर गुट निरपेक्षता की नीति का पालन किया और शक्तिशाली राष्ट्रों की दादागिरी से इनकार करते हुए अलग रहे। उन्होंने न केवल व्यक्ति की गरिमा, बल्कि अभिव्यक्ति की आजादी का भी भरपूर समर्थन किया। संसद में और संसद के बाहर भी इसे बचाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, चाहे उन पर कितने भी गंभीर हमले हुए हों।
आज नेहरू को नकारने की सोच रखने वाली शक्तियां अधिक मुखर हुई हैं, ऐसे में हमें नेहरू की वैज्ञानिक सोच पर फिर से विचार करने पर मजबूर कर दिया गया है. यदि उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं का अस्तित्व न होता तो संकट इस की घड़ी में क्या होता! 1947 में भारत न तो महाशक्ति था और न ही आर्थिक रूप से सक्षम और आत्मनिर्भर। बंटवारे में बड़ी आबादी का हस्तांतरण हुआ, पर जिस तरह सड़कों पर कोविड-19 के दौरान लोग मारे-मारे फिर रहे थे, उनका कोई पुरसाहाल नहीं था. ऐसा नेहरू ने विभाजन के समय भी सीमित संसाधनों के बावजूद नहीं होने दिया। अपनी सीमा के अंदर सबको सुरक्षित रखा, जबकि उनके सामने तब भी आज ही की तरह अंध आस्था के लिए आमजन के दुरुपयोग करने वाले संगठन खड़े थे।
15 अगस्त 1954 को लालकिले से नेहरू हमें आजादी के मायने बता रहे हैं, “आजादी खाली सियासी आजादी नहीं, खाली राजनीतिक आजादी नहीं, स्वराज और आजादी के मायने और भी हैं, वह सामाजिक और आर्थिक भी है। अगर देश में कहीं गरीबी है, तो वहां आजादी नहीं पहुंची, यानी उनको आजादी नहीं मिली, जिससे वे गरीबी के फंदे में फंसे हैं। जो लोग गरीबी और दरिद्रता के शिकार हैं, वे पूरी तरह से आजाद नहीं हुए हैं, उनकी गरीबी और दरिद्रता को दूर करना ही आजादी है।…..अगर हिंदुस्तान के किसी गाँव में किसी हिंदुस्तानी को, चाहे वह किसी भी जाति का हो, हम उसको चमार कहें या हरिजन कहें, अगर उसको खाने-पीने में, रहने-चलने में वहां कोई रुकावट है, तो वह गांव अभी आजाद नहीं है, गिरा हुआ है।…अभी यह न समझिये कि मंज़िल पूरी हो गयी है। यह मंज़िल एक जिंदादिल देश के लिए आगे बढ़ती जाती है, कभी पूरी नहीं होती।”
नेहरू के सपनों का भारत तो सदृढ़ रूप में खड़ा है। उनकी कल्पना साकार रूप ले चुकी है, परंतु आजादी के आंदोलन के दौरान लगभग दस वर्षों तक जेल की सजा काट चुके नेहरू को हम याद करने की औपचारिकता भी नहीं निभाते और न वे अब हमारे सपनों में ही आते हैं। “भारत एक खोज” और इतिहास तथा संस्कृति पर अनेक पुस्तकों के लेखक नेहरू आज मात्र पुस्तकों की विषय वस्तु बनकर रह गए हैं। कही-कहीं तो उन्हें वहां भी जगह नहीं मिल रही है। किसी भी देश ने अपने राष्ट्र निर्माता को शायद ही ऐसे नज़रअंदाज़ किया हो, जैसे हमने नेहरू को किया है। आज की पीढ़ी को राष्ट्रीय आंदोलन के मूल्यों के प्रति सचेत करने की ज़रूरत है। उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद, आज़ादी के आंदोलन के मूल्य और नेहरू के योगदान को बताने की जरूरत है।
यह कार्य कौन करेगा!
यह काम साम्प्रदायिक ताक़तें तो करने से रही, वे सदैव नेहरू विरोधी रही हैं, लेकिन कांग्रेस भी कम दोषी नहीं है, उसने कभी भी नेहरू के योगदान एवं उनके व्यक्तित्व पर चर्चा करने की ज़हमत नहीं उठायी, न ही आज़ादी के मूल्यों को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास किया। वास्तव में कांग्रेस भी मूल्य, पारदर्शिता, अभिव्यक्ति की आज़ादी और प्रजातंत्र के प्रति नेहरूवियन सोच से डरती है। भारतीय राष्ट्रवाद के सबसे बड़े दुश्मन विंस्टन चर्चिल ने 1937 में नेहरू को “कम्युनिस्ट, क्रांतिकारी, भारत से ब्रिटिश संबंध का सबसे समर्थ और सबसे पक्का दुश्मन” कहा था. वहीं अठारह साल बाद 1955 में चर्चिल ने कहा “नेहरू से मुलाकात उनके शासन काल के अंतिम दिनों की सबसे सुखद स्मृतियों में से एक है… इस शख़्स ने मानव स्वभाव की दो सबसे बड़ी कमजोरियों पर काबू पा लिया है; उसे न कोई भय है न घृणा”…
इसमें कोई संशय नही होना चाहिए कि साम्प्रदायिक आधार पर विभाजित इस देश में साम्प्रदायिक सद्भाव की अवधारणा और सभी को साथ लेकर चलने की नीति व तरीके की खोज जवाहरलाल नेहरू ने ही की थी। उन्होंने अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भारतीय सिनेमा को न केवल प्रोत्साहित किया, बल्कि हर सम्भव सहायता भी प्रदान की। नतीजा यह हुआ कि उस दौर में तमाम ऐसी फिल्में बनीं, जो हमारी राष्ट्रीय पहचान बन गईं। इन फिल्मों ने सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राष्ट्रीय एकता और सद्भाव का मार्ग प्रशस्त किया। इस सिद्धांत और सामाजिक उत्थान की उनकी अर्थनीति के कारण ही साम्प्रदायिक व छद्म सांस्कृतिक संगठनों का लबादा ओढ़े राजनीतिक दल चार सीट भी नहीं जीत पाते थे।
20 सितम्बर 1953 को नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को लिखा, “साम्प्रदायिक संगठन, निहायत ओछी सोच का सबसे प्रकट उदाहरण हैं। यह लोग राष्ट्रवाद के चोले में यह काम करते हैं। यही लोग एकता के नाम पर अलगाव को बढ़ाते हैं और सब तबाह कर देते हैं। सामाजिक सन्दर्भों में कहें तो वे सबसे घटिया किस्म के प्रतिक्रियावाद की नुमाइंदगी करते हैं। हमें इन साम्प्रदायिक संगठनों की निंदा करनी चाहिए, लेकिन ऐसे बहुत से लोग हैं, जो इस ओछेपन के असर से अछूते नहीं है।” साम्प्रदायिकता के सवाल पर नेहरू का दृष्टिकोण बिल्कुल साफ था। यहां तक कि उन्होंने अपने साथियों को भी नहीं छोड़ा। नेहरू ने 17 अप्रैल 1950 को कहा, “मैं देखता हूँ कि जो लोग कभी कांग्रेस के स्तम्भ हुआ करते थे, आज साम्प्रदायिकता ने उनके दिलोदिमाग पर कब्जा कर लिया है। यह एक किस्म का लकवा है, जिसमें मरीज को पता तक नहीं चलता कि वह लकवाग्रस्त हो चुका है। मस्जिद और मंदिर के मामले में जो कुछ भी अयोध्या में हुआ, वह बहुत बुरा है, लेकिन सबसे बुरी बात यह है कि यह सब चीजें हुईं और हमारे अपने लोगों की मंजूरी से हुईं और वे यह काम लगातार कर रहे हैं।”
नेहरू धर्म के वैज्ञानिक और स्वच्छ दृष्टिकोण के समर्थक थे। उनका मानना था कि भारत धर्मनिरपेक्ष राज्य है, न कि धर्महीन। सभी धर्मो का आदर करना और सभी को उनकी धार्मिक आस्था के लिए समान अवसर देना राज्य का कर्तव्य है। नेहरू जिस आजादी के समर्थक थे, जिन लोकतांत्रिक संस्थाओं और मूल्यों को उन्होंने स्थापित किया था, आज वे खतरे में हैं। मानव गरिमा, एकता और अभिव्यक्ति की आजादी पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। अब समय आ गया है कि हम एकजुटता, अनुशासन और आत्मविश्वास के साथ लोकतंत्र को बचाने का प्रयास करें। हम आज़ादी के आंदोलन के मूल्यों पर फिर से बहस करें और एक सशक्त और ग़ैर साम्प्रदायिक राष्ट्र की कल्पना को साकार करने में सहायक बनें। हमारे इस पुनीत कार्य में नेहरू एक पुल का कार्य कर सकते हैं।
बेहतरीन प्रस्तुति