भारत सरकार की ग्रामीण पेयजल योजना और यूपी जल निगम द्वारा लागू योजनाओं के प्रति आम लोग उदासीन हैं और अपने अपने घरों में आरओ लगवाना चाहते हैं, लेकिन ग्रामीण यह नहीं जानते क आरओ समस्या का कोई समाधान नहीं, बल्कि यह स्वंय ही एक बड़ी समस्या है.
भारत सरकार ने एक नया मंत्रालय जल जीवन मिशन नाम से शुरू किया है, जिसका बजट साढ़े चार लाख करोड़ है। आर्सेनिक का भूजल से हमारे शरीर में प्रवेश होता है और अंतत: यह कैंसर जैसी बीमारियों को पैदा करता है। गंगा के किनारे आबादी भी ज्यादा है। यही कारण है कि गंगा के तटवर्ती क्षेत्रों में ऐसी बीमारियाँ ज्यादा पायी जाती हैं। गंगा नदी धर्म और आस्था का केंद्र होने के साथ साथ इकॉनोमी का जरिया भी हैI
इस साल अप्रैल 2020 की जाँच में ठीक इसी तरह के परिणाम आये. जाहिर सी बात है, जल निगम और जल जीवन मिशन कार्यक्रम में सिर्फ खानापूरी ही हुई होगी. यही नहीं, वाराणसी के कई गावों की पाइप सप्लाई में बैक्टीरिया संक्रमण भी मिला, ग्रामीण पेट और लीवर की बामारियों से ग्रस्त हैं. साफ़ है कि सप्लाई पाइप या ओवर हेड टैंक की सफाई या ब्लीचिंग नहीं होती, जबकि जल जीवन मिशन या राष्ट्रीय पेयजल गुणवत्ता कार्यक्रम में इन कार्यों के लिए यूपी जल निगम को काफी पैसा आता है, लेकिन ये सारे काम कागज़ पर ही होते हैं, मॉनीटरिंग होती ही नहीं. फिर कम्युनिटी पार्टिसिपेशन या जागरूकता की कौन कहे!
उत्तर प्रदेश की पेयजल स्कीमों का और बुरा हाल है. जो सप्लाई एक बार चालू हो गयी, दुबारा उसकी कोई मरम्मत नहीं हुई और इस तरह सारी पेयजल योजनाएं दम तोड़ती प्रतीत होती हैं. गावों में जल वितरण में घटिया पाइप का इस्तेमाल होता है और बिजली की भी समस्या रहती है. कुल मिला जुला कर जल जीवन मिशन योजना में धांधली है, जिस पर भारत सरकार की अन्य मॉनीटरिंग एजेंसीज ने भी ऊँगली उठाई है, लेकिन इतनी जाँच के बाद भी हालात जस के तस हैं. वाराणसी में भी कमोबेश यही स्थिति है, वाराणसी में सबसे ज्यादा आर्सेनिक गंगा से लगे गावों में मिला. इसके साथ ही यहाँ बैक्टीरिया के संक्रमण और सैनिटेशन की बड़ी समस्या मिली. 150 फीट से कम गहरे चापाकलों में आर्सेनिक की मात्रा ज्यादा थी. हालांकि कुछ ऐसे भी चापाकल मिले, जो 250 फीट से भी अधिक गहरे थे, लेकिन आर्सेनिक उनमें भी पाया गया. भूजल में आर्सेनिक का होना बड़ी विकट समस्या है, यह सामान्य रूप से हर जगह बराबर मात्रा में नहीं पाया जाता, एक ही आबादी में यह कहीं कम या कहीं अधिक मात्रा में पाया जाता है. नदियों के किनारे इसके पाए जाने की सम्भावना अधिक होती है, इसलिए तटों पर स्थित गावों में लोगों को त्वचा की बीमारियां और स्किन, लीवर, किडनी आदि के कैंसर की बीमारियाँ होती हैं। सामन्यतः दो से तीन साल में 100 पीपीबी जल के सेवन से कैंसर या गंभीर बीमारी का खतरा रहता है. अच्छा पोषण न मिलने की अवस्था में कम समय में ही बीमारी गंभीर रूप ले सकती है. पोषण से इस बीमारी का सीधा सम्बन्ध है. सर्वे में यह बात भी सामने आयी कि इस बीमारी से जूझ रहे लोगों के लिए इलाज़ की भी कोई व्यवस्था नहीं है, न ही डाक्टर इस बीमारी के बारे में ज्यादा जानते हैं. कई गावों में झाड़फूंक की बात सामने आयी. कुछ जगह इसे एड्स का नाम दिया गया. कहीं कहीं अर्सेनोकोसिस को टीबी मान कर भी इलाज़ हो रहा था. किसी भी गाँव या ब्लाक में जल की नियमित जाँच की सुविधा नहीं है. यदि नियमित जाँच हो तो समय रहते समस्या सामने आ जाती है.
जल जीवन मिशन योजना में इसके लिए गावों को जाँच किट दिए जाते हैं, लेकिन हमारे सर्वे में कहीं भी ऐसा नहीं पाया गया. जांच में यह भी मिला कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के सैकड़ों विद्यालयों में बच्चे जहरीले जल का सेवन कर रहे हैं, लेकिन शायद ही इस पर किसी का ध्यान गया हो. भारत सरकार के अलावा हमने उत्तर प्रदेश जल निगम से डेटा माँगा था, लेकिन उनका कहना है कि उनके पास कोई रिपोर्ट नहीं है. पूर्वी यूपी के बलिया में आर्सेनिक के निस्तारण में घोर धांधली मिली, जिसके चलते पिछले एक दशक में हजारों जानें गयी हैं. इसकी पुष्टि भारत सरकार एवं मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट में भी हुई, लेकिन कोई करवाई नहीं हुई. बलिया, गाजीपुर, चन्दौली, मिर्जापुर, इलाहाबाद, बहराइच, लखीमपुर खीरी आदि में शायद ही कोई पाइप वाटर स्कीम या आर्सेनिक फ़िल्टर प्रयोग होता हो, जो पूरी तरह ठीक ठीक काम करता हो. पूर्वी उत्तर प्रदेश में कई हज़ार करोड़ की ऐसी पेयजल परियोजनाएं है, जो गांवों में काम नहीं करतीं. जल जीवन मिशन की योजना में पूर्वी उत्तर प्रदेश के आर्सेनिक प्रभावित क्षेत्रों के लिए लैब की भी योजना थी, लेकिन हमारे सर्वे में कहीं भी लैब काम करते नहीं मिले. जिस तरह से आर्सेनिक का भूजल में प्रकोप बढ़ रहा है, आने वालों दिनों में वाराणसी की स्थिति भी बलिया और खीरी जैसे हो सकती है.
कुओं के जल में आर्सेनिक नहीं होता, लेकिन सरकार की मंशा कुएं साफ़ करने की नहीं है, क्योंकि यह कम पैसे में हो जाता है. दूसरी बात यह कि भूजल रिचार्ज के लिए भी कुछ नहीं हो रहा है. जल जीवन मिशन का ध्यान केवल बड़ी बड़ी योजनाओं पर है. जल संभरण और संरक्षण के हमारे जो परंपरागत उपाय हैं, उन पर भी किसी का ध्यान नहीं है. जिन गांवों में आर्सेनिक का प्रकोप है, वहां के लोग भी यदि कुएं के जल का प्रयोग करते हैं, तो उनमें त्वचा व अन्य किसी प्रकार की बीमारियाँ नहीं पाई जाती हैं. यह भी सामने आया कि सरकार की 400 फीट की पाइप वाटर सप्लाई में भी आर्सेनिक आ रहा है. सर्वे में सामने आया कि भारत सरकार की ग्रामीण पेयजल योजना और यूपी जल निगम द्वारा लागू योजनाओं के प्रति आम लोग उदासीन हैं और अपने अपने घरों में आरओ लगवाना चाहते हैं, लेकिन ग्रामीण यह नहीं जानते कि आरओ समस्या का कोई समाधान नहीं, बल्कि यह स्वंय ही एक बड़ी समस्या है. आरओ जल का प्रयोग एक दो दिन तक ही होना चाहिए, इसका ज्यादा प्रयोग स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के भूजल में आर्सेनिक को निपटाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें अभी तक कोई ठोस योजना नहीं बना पाई हैं, नतीजा ये है कि आने वाले दिनों में बीमारियां और बढ़ने की आशंका है.
-सौरभ सिंह