माता आनन्दमयी और महात्मा गांधी
उस दिन हम सब माताजी के साथ बापूजी से मिलने सेवाग्राम के लिए चले। बापूजी पहली ही बार माताजी से मिल रहे थे। मुझे ऐसा लग रहा था कि सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर स्वराज हासिल करने की अपनी तीव्रता में मग्न गांधीजी, उस दिन सेवाग्राम में आठ घंटे के माताजी के उस छोटे से प्रवास के दौरान उनकी दिव्य प्रकृति को पूरी तरह से पहचान लेने के लिए आतुर थे। वे माताजी के उज्ज्वल व्यक्तित्व से अत्यधिक प्रभावित थे। यद्यपि सेठ जमनालाल बजाज की प्रबल इच्छा थी कि बापू जी को माताजी के साथ एकांत में बात करने का अवसर मिल जाय, पर वैसा हो न सका। जैसे ही माताजी ने चरखा चलाते बापूजी के कमरे में प्रवेश किया, उन्होंने जोर से पुकारा, “पिताजी, आपकी पागल बच्ची आपको देखने आई है!’’
बापूजी ने माताजी की ओर देखा और हंसते हुए कहा, ‘‘अगर तुम सच में पागल बच्ची होती, तो शायद भइया जी (जमनालाल बजाज) जैसे इन्सान तुमसे इतने प्रभावित न होते।’’ भइया जी का बापू जी के साथ तीस सालों तक घनिष्ठ सम्बन्ध रहा, लेकिन लाख प्रयास करके भी बापू जी उनके मन को थिर नहीं कर सके थे। वे कमला नेहरू के गुरु भी थे. बापूजी ने माताजी से यह भी कहा कि उन्होंने स्वयं भइया जी को उनसे मिलने के लिए कहा था। भइया जी माताजी के दिव्य व्यक्तित्व से इतने आकर्षित थे कि उन्होंने बार-बार बापूजी को लंबे समय तक उनके साथ रहने की अनुमति के लिए पत्र लिखा था। बापूजी ने भी सहमति व्यक्त की थी, क्योंकि उन्हें लगा कि माताजी की उपस्थिति भइया जी को मन की शांति दे पाने में मदद कर सकती है।
बापूजी ने माताजी को भइया जी की यह इच्छा भी बताई कि वह कम से कम एक महीने के लिए गोपुरी में रहें, ताकि स्वयं बापूजी, भइया जी, राजेंद्र बाबू और स्वामी आत्मानंद उनके साथ वर्तमान युद्धग्रस्त दुनिया के सामने उपस्थित जटिल समस्याओं पर चर्चा कर सकें। बापूजी ने उस रात माताजी को वर्धा जाने की अनुमति नहीं दी और उन्हें सेवाग्राम में अपने साथ रहने के लिए राजी करने में सफल रहे। बापूजी की कुटिया के खुले बरामदे में एक-दूसरे के पास लकड़ी के दो तख्तों पर माताजी और बापूजी के लिए बिछौने बिछाए गए थे। उच्च रक्तचाप के रोगी होने के कारण बापूजी को लगभग 10 बजे बिस्तर पर जाना था। डॉ. सुशीला नैय्यर और अमृत कौर सहित आश्रम की कुछ अंतेवासिनियां उनके शरीर की हल्की मालिश कर रही थीं। माताजी बापूजी के पास बैठी थीं, बापूजी ने माताजी के दाहिने हाथ की कलाई पकड़ रखी थी। जब महिलाएं बापूजी की मालिश करने में व्यस्त थीं, तभी माताजी ने उनसे पूछा कि अगर मैं बापूजी को तुमसे कहीं दूर ले जाऊं तो क्या करोगी। माताजी ने यह प्रश्न तीन बार दोहराया, तब उनमें से एक महिला ने उत्तर दिया कि वे भी बापूजी के साथ चलेंगी। तब माताजी ने बापूजी से कहा कि समय आने दीजिये, मैं आपको यहाँ से ले जाऊंगी।
यह सुनकर मुझे बहुत दुख हुआ, क्योंकि मुझे लगा कि माताजी शायद बापूजी की शीघ्र मृत्यु का संकेत दे रही हैं, जो एक या दो वर्ष के भीतर ही हो सकती है। मैंने कुछ कहना चाहा, लेकिन माताजी को मेरा व्यवधान अच्छा नहीं लगा, उन्होंने मुझे चुप रहने और देखते रहने का आदेश दिया। मैं अनिच्छापूर्वक खामोश रह गया। अगली सुबह, माताजी सागर जाने के लिए सेवाग्राम से वर्धा रवाना हुईं। वे वहां कुछ समय एकांत में रहना चाहती थीं। गुरुप्रिया दीदी और अभया भी उनके साथ थीं। वर्धा से इटारसी तक, मैंने प्रथम श्रेणी के डिब्बे में माताजी के साथ यात्रा की। इस तरह मुझे उनके साथ निजी तौर पर सेवाग्राम में उनके अल्प प्रवास के दौरान उनके अजीब व्यवहार पर चर्चा करने के लिए पर्याप्त समय मिल गया। मैं हैरान था कि उन्होंने बापूजी को अपना वास्तविक स्वरूप, प्रकृति और दर्शन समझने में उनकी बिलकुल मदद नहीं की। यह भाईजी और भइया जी दोनों की बड़ी इच्छा थी। माताजी ने मुझे बापूजी द्वारा प्रचारित अहिंसा के सिद्धांत के बारे में बहुत सी बातें बतायीं। मेरे मन में माताजी से सुनी हुई बातों के आधार पर बापूजी को एक पत्र लिखने की इच्छा हुई, ताकि बापूजी अपनी भविष्य की कार्य योजनाओं पर कुछ नये ढंग से विचार कर सकें। माताजी पहले तो मेरे सुझाव से सहमत नहीं हुईं, लेकिन मैंने जब लगातार अनुरोध किया, तो उन्होंने आखिरकार मुझे पत्र लिखने की अनुमति दे दी।
1947 के अंत में हुई वह आखिरी मुलाक़ात
-बीथिका मुखर्जी
उस समय हरिराम जोशी बाबाजी दिल्ली में थे। वह गांधीजी से मिलना चाहते थे, जो उस समय शहर में ही थे। श्री मां का नाम ही सारे बंद दरवाजे खोलने के लिए काफी था। हम एक काफिले के साथ गांधीजी के आवास पर पहुंचे, क्योंकि जो लोग भी हमारे साथ मौजूद थे, वे हर समय श्री मां के साथ ही रहना चाहते थे। गांधीजी ने श्री मां का बड़े स्नेह और आनंद से स्वागत किया। उन्होंने उनकी सेवाग्राम यात्रा के बारे में बात की और कहा कि वे उनके साथ ही रहें. बापूजी श्री मां के इधर-उधर भटकते रहने के खिलाफ थे। श्री माँ ने जोर देकर कहा, “पिताजी, मुझे आपसे दूर कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है, मैं सदैव आपके साथ हूँ। आप मुझ पर भरोसा कीजिये। आपकी यह बेटी कभी झूठ नहीं बोलती।
गांधीजी आनन्द से भर गये, वे उन्हें खुद से दूर जाने देने के बिलकुल अनिच्छुक थे। उन्होंने अपनी आजानु भुजाओं में उन्हें भर लिया और प्रार्थना सभा की ओर चल पड़े। उन्हें उन महात्माओं में कोई दिलचस्पी नहीं थी, जो उस समय उनसे मिलने आए थे। श्री मां के याद दिलाने पर उन्होंने उनकी उपस्थिति पर ध्यान दिया और तब उन महात्माओं को भी मंच पर समायोजित किया गया। गांधीजी ने श्री माँ को अपने पास बैठाया। वे बहुत खुश थे। कभी श्री मां से बातें करते और कभी उनके बारे में अन्य महात्माओं को बताते। मुझे इतना याद है कि वे बालसुलभ चंचलता के साथ कह रहे थे, “देखिए मेरी बेटी (बच्ची) आ गई है। सबलोग उदारता से दान करो. यदि तुम बुरा व्यवहार करोगे तो वह तुम्हारे बारे में क्या सोचेगी!” उन्होंने महात्माओं की मंडली को कई बार हंसाया भी। यह उन दोनों की आखिरी मुलाकात थी। 30 जनवरी 1948 की दुखद तारीख अब दूर नहीं थी। -“माई डेज़ विद श्री माँ आनंदमयी” से।
हालांकि माता जी ने मुझे बताया कि उन्होंने बापू जी के बारे में जो कुछ कहा था, वह मेरे अपने मार्गदर्शन के लिए था। मैंने बापूजी को देवी माँ की उपस्थिति में एक पत्र लिखा और मार्च 1942 के पहले सप्ताह में लखनऊ से भेज दिया। यह पत्र और और बापू का उत्तर, जो उनकी अपनी लिखावट में था, पढ़कर माताजी के व्यक्तित्व, भइयाजी की भक्ति और उनके प्रति उनके समर्पण की भावना के बारे में आप अपने निष्कर्ष निकाल सकते हैं। इस पत्र में मैंने जहाँ तक संभव हुआ, अपनी सीमा के भीतर रहकर, ट्रेन में माताजी के साथ यात्रा करते समय जो कुछ अकेले में उनसे सुना था, उसे पूरी तरह जस का तस उतार देने का प्रयास किया। यह पत्र संक्षेप में माताजी की सार्वभौमिक शिक्षाओं के बारे में भी कुछ सुराग देता है और कुछ हद तक उनकी वास्तविक दिव्य प्रकृति को भी दर्शाता है। बापूजी को लिखा हुआ मेरा यह पत्र यदि पूरी चेष्टा और श्रद्धा से पढें, तो पाठकों के लिए बहुत लाभदायक होगा।
मार्च 1942 में बापू के नाम हरिराम जोशी का पत्र
(सम्पादित हिस्से)
बापू के चरणों में हरिराम जोशी का प्रणाम. इस बार माताजी आपके साथ अधिक समय तक रहने का समय नहीं निकाल सकीं और किसी छोटे बच्चे की तरह बहुत जल्दी ही जाने की अनुमति मांग ली। फिर भी मुझे आशा है कि आपके साथ उनकी अगली बैठक दूरगामी परिणाम देगी। उस मुलाकात से पूरी दुनिया को फायदा होगा।
कमला नेहरू ने माताजी को हाथ का काता और बुना हुआ कपड़ा दिया था, माताजी ने उसे पहना भी। माताजी हमेशा आध्यात्मिक बातें करती हैं. वर्धा से वापसी के दौरान, जब उनके साथ मेरे सिवा और कोई नहीं था, मुझे उनके शब्दों को सुनने का अवसर मिला। उनके धन्य होठों से इतनी महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ सुनने का सौभाग्य मुझे पहले कभी नहीं मिला था। मैं आपको वह सब लिखने के लिए तरस रहा हूं, जो मैंने माताजी को कहते हुए सुना है। इसलिए मैंने उनसे अपने शब्दों को आप तक पहुंचाने की अनुमति मांगी। श्री माँ ने कहा, “हम सब एक हैं। मुझसे क्यों पूछते हो? परमपिता, माता, मित्र और भगवान वास्तव में एक ही हैं, वही राम हैं, नारायण हैं, कृष्ण हैं, वही महादेवी हैं, वही शक्ति हैं, ब्रह्म हैं, आत्मा हैं। सचमुच, सब कुछ उसी का खेल है।” बापूजी, माताजी के शब्दों का महत्व समझने की क्षमता मुझमें नहीं है। लेकिन श्री मां ने आपके विषय में जो विशेष बातें कहीं, उन्हें मैं जितना समझ पाया, उतना लिख रहा हूँ।
आपसे मिलने के बारे में, माताजी ने मुझसे कहा, ‘पिताजी प्रेम के अवतार हैं, उन्होंने इस छोटे बच्चे को अपने पास बुलाया और स्नेह के आनंद से उसका स्वागत किया। यह नन्हीं सी बच्ची पिताजी को उतनी ही प्यारी है, जितना बाकी सभी बच्चे। पिताजी को इस छोटी बच्ची को भी अपनी ही बच्ची स्वीकार करना होगा, और चूंकि वह सभी बच्चों में सबसे छोटी है, इसलिए उसकी और भी अधिक देखभाल करनी होगी।’ मुझे आशा है कि आपका स्वास्थ्य अच्छा होगा। मैं श्री मां से प्रार्थना कर रहा हूं कि आपका उद्देश्य पूरा हो और आप पूर्ण आनंद और पूर्ण शांति प्राप्त करें।
आपका, हरि राम जोशी
पूज्य बापूजी का उत्तर
भाई जोशी,
आपके पत्र के लिए धन्यवाद। आपने इसे लिखकर अच्छा किया। अब जानकी बहन वहां गई हैं। कृपया श्री मां से कहें कि जब भी उनका मन करे, वह आ जाएं। बापू के आशीर्वाद।
इसके एक साल बाद 20 फरवरी, 1943 को, जब बापूजी अहमदनगर जेल में बीमार थे, मैं विंध्याचल आश्रम गया और बापूजी के जीवन को बचाने के लिए माताजी से प्रार्थना की। उन्होंने लगभग पचहत्तर वर्ष की आयु के एक महाराष्ट्रियन ब्राह्मण की ओर इशारा किया, जो उनके सामने ही बैठे थे। वे आजीवन ब्रह्मचारी और गीता के महान विद्वान थे। वे वाराणसी से आये थे और पिछले तीन दिनों से उनके सामने रो रहे थे। वे बापूजी के जीवन को बचाने के लिए माताजी से प्रार्थना कर रहे थे। मेरे विंध्याचल पहुंचने के दो घंटे बाद, माताजी ने आश्रम में सभी को अखंड नाम यज्ञ में शामिल होने का आदेश दिया, लेकिन वह हमें कोई स्पष्ट संकेत नहीं दे रही थीं कि बापूजी की जान बच जाएगी या नहीं। हम सभी के लिए खुशी की बात है कि अगले ही दिन यह खबर प्रसारित की गई कि बापूजी ने चमत्कारिक परिस्थितियों में संकट को पार कर लिया है, डॉ बीसी रॉय सहित उनके सभी चिकित्सकों को बड़ा आश्चर्य हुआ, जिन्होंने पहले घोषणा की थी कि बापूजी के पास जीवित रहने का अब कोई मौका नहीं है। मुझे लगता है कि माताजी ने अपनी सम्पूर्ण ममता से बापूजी के नाम जीवन का एक और पट्टा लिख दिया था।
(हरिराम जोशी लिखित ‘माँ आनंदमयी लीला’ से)