अपनी ही आंखों पर लोगों को विश्वास नहीं हो रहा था। लोग देख रहे थे कि दो लाख रुपए के ईनाम वाले बागी, मोहर सिंह, जिनका नाम सुनकर कोई व्यक्ति या समूह नहीं, पूरे इलाके की नींद उड़ जाती थी, वह अपने साथियों के साथ दिन के उजाले में जयप्रकाश नारायण की उपस्थिति में मंच पर रखे महात्मा गांधी के चित्र के सामने हथियार डाल रहे हैं।
सृजन और परिवर्तन प्रकृति की सतत प्रक्रिया है। यह नियमित चलता रहता है। सृजन और विसर्जन यानी पैदा होना और खत्म होना, बनना और बिगड़ना, शुरू होना और समाप्त होना, जीवन और मरण, विकास और विनाश, ये प्रकृति के नियम हैं। प्रकृति में समग्र और खंड दोनों एक ही नियम से संचालित होते हैं। दोनों के लिए दो नियम होंगे तो परम सत्य अटल कैसे रहेगा! सत्य की सत्ता नहीं, प्रभुता स्थापित होती है। सत्ता कितनी भी कोशिश कर ले, वह भ्रष्ट हो ही जाती है। अगर साधना, सादगी, सरलता, सहजता, स्पष्टता, संवेदना, संकल्प, समर्पण और समझदारी का अभाव हो, तो सत्य के नाम पर चलने वाली सत्ता भी भ्रष्ट हो सकती है। अंधभक्ति में अनुयायी असत्य बोलने लगते हैं। सत्य का शोधकर्ता बनकर सत्य की खोज संभव है, इसलिए सत्य की सत्ता नहीं, प्रभुता स्थापित की जाएगी तो सत्य की ओर कदम बढ़ेंगे।
चंबल का क्षेत्र आज शांत और सहज नजर आता है। यह कभी खौफ का पर्यायवाची था। लोग रात को आराम से सो नहीं पाते थे, तो दिन में भी चैन की सांस लेना मुश्किल था। हर समय दिल दहशत से धड़कता रहता था। एक जाना-अनजाना भय व्याप्त रहता था। चंबल घाटी का नाम सुनकर क्षेत्र के बाहर के लोगों की धड़कन भी बढ़ जाती थी, सांस की गति तेज हो जाती थी। उसी चंबल घाटी में आज बेझिझक आवागमन हो रहा है, चहल पहल देखने को मिल रही है। इसका बीज संत विनोबा के हाथों रोपा गया था। विनोबा का प्रभाव क्षेत्र व्यापक रहा है। अध्यात्म के शोधक, सत्य के आग्रही, भूदान के प्रणेता, धर्म के ज्ञाता, शांति सेना के संस्थापक, जय जगत के उद्घोषक और भारत-भूमि को अपने पांवों से नाप डालने वाले विनोबा ने जब चम्बल की चीत्कार सुनी, तो उनके पाँव खुद ब खुद उधर ही मुड़ गये.
‘बागी न तो अपने पैरों से बीहड़ के अंदर जाता है, न अपने पैरों से बीहड़ के बाहर आता है। चंबल के बीहड़, डाकू और पुलिस दोनों से ग्रसित थे।’ चंबल में यह कहावतें प्रचलित थीं, मगर 1960 के बाद यह तस्वीर बदल गई और इसकी नींव रखी बागी मानसिंह के बेटे तहसीलदार सिंह ने. नैनी जेल से पत्र लिखकर उन्होंने बाबा को बताया कि कुछ बागी आत्मसमर्पण करना चाहते हैं। उन्होंने बाबा से चंबल आने का आग्रह किया. चम्बल के बागियों के आत्मसमर्पण की ऐतिहासिक भूमिका यहीं से बननी शुरू हुई। मेजर जनरल यदुनाथ सिंह, बाबा के प्रतिनिधि के रूप में जेल में तहसीलदार सिंह से मिले। इस अभियान में मेजर जनरल यदुनाथ सिंह और हरसेवक मिश्र बाबा अनन्य सहयोगी बने. मेजर जनरल यदुनाथ सिंह और बागी तहसीलदार सिंह की इस मुलाक़ात ने इतिहास की किताब में सुनहरे वर्क जोड़े.
विनोबा के सामने आत्मसमर्पण करने वाले पहले बीस बागी थे
10 मई, 1960 को राम अवतार सिंह, 17 मई को पतिराम, किशन और मोहरमन, 18 मई को लक्ष्मी नारायण शर्मा (लच्छी) और प्रभु दयाल (परभू), 19 मई को पंडित लोकमन दीक्षित (लुक्का), कन्हई, तेज सिंह, हरे लाल, राम स्नेही, दुर्जन, विद्या राम, भूप सिंह (भूपा), जगजीत, मटरे और भगवान सिंह, 20 मई को रामदयाल और बदन सिंह तथा 26 मई को खचेरे ने आत्मसमर्पण किया। मेजर जनरल यदुनाथ सिंह की अध्यक्षता में चम्बल घाटी शांति समिति की स्थापना की गयी. समिति ने बागियों के मुकदमे लड़ने, इनके द्वारा पीड़ितों का पुनर्वास कराने तथा क्षेत्र के आर्थिक व सामाजिक विकास का जिम्मा अपने सामर्थ्य भर सम्भाला. अन्य संस्थाओं और लोगों ने सहयोग का वचन दिया. अनेक वकीलों ने निशुल्क मदद की। कुछ मुकदमे स्वार्थपूर्ति के लिए झूठे भी बनाए गए थे।
इन बीस में से तेरह बागी तो 1963 में ही छूट गए थे। तीन लोग 1968 में रिहा हुए। एक 1970 में रिहा हुआ। चंबल घाटी शांति समिति ने अभिनव प्रयोग कर जो शानदार काम किया, उसने सभी के मध्य सकारात्मक संदेश एवं विश्वास जगाया, जिसका प्रभाव अच्छा रहा। यह बीज अंकुरित होकर 14 अप्रैल,1972 के दिन तक देश दुनिया के सामने एक ऐतिहासिक महत्व के, अहिंसा और प्रेम के वट वृक्ष के रूप में प्रस्तुत हुआ।
इसके बाद एक प्रयास और शुरू हुआ. बागी माधो सिंह ने जगरूप सिंह को विनोबा जी के पास भेजा, मगर उन्हें सफलता नहीं मिली। इसके बाद माधो सिंह अपना नाम बदलकर रामसिंह ठेकेदार के रूप में विनोबा जी और जयप्रकाश जी से मिले। बांग्ला देश के मामले में व्यस्त रहने एवं स्वास्थ्य ठीक न होने के बावजूद जयप्रकाश जी ने चंबल घाटी के काम को उठाने का निर्णय लिया। जेपी के इस फैसले ने 12 वर्ष बाद एक बार फिर चंबल घाटी में आशा की नयी किरण जगाई। चंबल घाटी शांति मिशन के महावीर भाई और हेमदेव शर्मा को काम सौंपा गया। स्वामी कृष्णानंद भी जुड़े और बिना साधनों के उन्होंने शानदार संपर्क व संवाद स्थापित किया। इनको बाद में तहसीलदार सिंह तथा पंडित लोकमन दीक्षित का साथ, सहयोग व सहकार मिला, जिससे काम में तेजी आई। इस तरह बागियों, सर्वोदय कार्यकर्ताओं, आत्मसमर्पण कर चुके बागियों, संबंधित राज्य सरकारों और केन्द्रीय सरकार, सभी के सहयोग से चंबल घाटी की पगारा कोठी पर जेपी के साथ बागियों की बातचीत शुरू हुई। प्रभावती दीदी, देवेन्द्र भाई, नारायण देसाई और सुब्बाराव के साथ जाने अनजाने अनेक कार्यकर्ताओं का समूह पूरी ऊर्जा के साथ सहयोग और सहकार कर रहा था। स्थान, साधन कम थे, मगर उत्साह बेइंतहां था, रात दिन काम करने की लगन थी।
ग्वालियर जैसे शहर में आत्मसमर्पण करने पर भीड़ बढ़ने, इंतजाम करने में कठिनाई आने, व्यवस्था में चूक होने के भय के कारण जौरा के महात्मा गांधी आश्रम में आत्मसमर्पण का आयोजन करने का तय हुआ। उस समय जो लोग उस दृश्य को देख रहे थे, उन्हें भी आश्चर्य हो रहा था कि यह सपना है या यथार्थ! अपनी ही आंखों पर लोगों को विश्वास नहीं हो रहा था। लोग देख रहे थे कि दो लाख रुपए के ईनाम वाले बागी मोहर सिंह, जिनका नाम सुनकर कोई व्यक्ति या समूह नहीं, पूरे इलाके की नींद उड़ जाती थी, वह अपने साथियों के साथ दिन के उजाले में जयप्रकाश नारायण की उपस्थिति में मंच पर रखे महात्मा गांधी के चित्र के सामने हथियार डाल रहे हैं। हृदय परिवर्तन की यह धारा एक बार जो प्रारंभ हुई, तो सैकड़ों बागियों ने आत्मसमर्पण कर अपना, अपने परिवार का, समाज का, क्षेत्र का, देश का और दुनिया की शांति का द्वार खोलने का काम किया। एक और मिसाल इतिहास में दर्ज हो गई। अहिंसा, प्रेम और करुणा के माध्यम से आत्मशक्ति का वह उदय हमने अपनी आंखों से देखा है. वह भव्य, अद्भुत, निराला, शानदार और गजब का दृश्य होता था।
इस श्रृंखला में सैकड़ों बागियों ने आत्मसमर्पण कर एक नई जिंदगी की शुरुआत की। इसका लाभ समाज के सभी तबकों को मिला। इसमें सभी की जीत हुई, किसी की भी पराजय नहीं। गांधी जी ने सही कहा था कि पाप से घृणा करो, पापी से नहीं. भाईजी सुब्बाराव जी एवं उनके नेतृत्व में उनके साथियों ने बागियों के समर्पण के बाद पुनर्वास का कठिन तथा जटिलताओं से भरा काम पूरी हिम्मत, उत्साह और मेहनत के साथ किया। चंबल में युवा शिविरों की श्रृंखला चली। रचनात्मक कार्यक्रम, सृजनात्मक कार्य प्रारंभ हुए। नये नये साथी जुड़ते गए। राष्ट्रीय युवा योजना परिवार का विस्तार होता गया। देश दुनिया में तमाम कार्यक्रम आयोजित किए गए। गांधीजी को माउंटबटन ने वन मैन आर्मी कहा था, यह पंक्ति भाईजी पर भी सटीक बैठती है। भाईजी को देश दुनिया में कितने परिवार अपना हिस्सा, अंग मानते हैं, उनको गिनना आसान नहीं है.
-रमेश शर्मा