विस्थापन का दर्द झेल रहे साबरमती के दलित आश्रमवासी

अगस्त 2021 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने फैसला किया कि साबरमती आश्रम को ‘दुनिया में गांधी का सबसे महत्वपूर्ण स्मारक’ बनाने के लिए 1200 करोड़ रुपये खर्च किये जायेंगे। इसके लिए आश्रम के दलित निवासियों को मुआवजे की पेशकश की गई, उनके सामने एक फ्लैट या 60 लाख रुपये की राशि चुनने का विकल्प था। लगभग 300 दलित आश्रमवासियों में से 260 परिवारों ने आश्रम परिसर छोड़ दिया, लेकिन लगभग 40 परिवार अभी भी संघर्ष कर रहे हैं। पढ़ें, इंडियन एक्सप्रेस की यह रिपोर्ट।

मैं अदालत जाने का जोखिम नहीं उठा सकता। मैं केस हारना बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा। साबरमती आश्रम के निवासी पुरुषोत्तम चौहान इंडियन एक्सप्रेस की रोसम्मा थॉमस से आगे कहते हैं कि मैं गांधी के तरीके से, शांति से, अहिंसक रूप से और दृढ़ संकल्प के साथ लड़ूंगा। उनके आसपास उनके पड़ोसियों के घर मलबे में दबे हुए हैं। 2021 तक साबरमती आश्रम के परिसर में लगभग 300 दलित परिवार निवास करते थे। अब करीब 40 ही बचे हैं। चौहत्तर वर्षीय पुरुषोत्तम चौहान उन अंतिम लोगों में शामिल हैं, जिन्होंने मुआवजा लेने से इंकार कर दिया और साबरमती आश्रम परिसर में स्थित अपने घर से नहीं जाने पर जोर दिया।

वे बताते हैं कि हम 12 लोगों का परिवार है, मेरे तीन बेटों के पोते हैं; हम लंबे समय से यहाँ ख़ुशी-खुशी रहते आये हैं। सरकार द्वारा दिया गया कोई भी फ्लैट हम सब को इतना आराम नहीं दे सकता। मैंने मुआवजा स्वीकार नहीं किया है और यहाँ से जाने का इरादा भी नहीं है। बीते दिनों, दोमंजिला घर की एक दीवार पर बुलडोजर चला दिया गया। इस दबाव के बावजूद यह परिवार आज भी वहीं रह रहा है।

1930 में जब बापू साबरमती आश्रम से दांडी के लिए 384 किलोमीटर के मार्च पर निकले, तो उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक भारत को स्वतंत्रता नहीं मिल जाती, तब तक वे आश्रम वापस नहीं लौटेंगे। बाद में वे वर्धा चले गए और साबरमती आश्रम दलितों को दे दिया, जिन्हें वे हरिजन कहते थे। यहाँ बसने के लिए आने वाले दलित परिवारों, जिनमें से कुछ उन पूर्वजों से जुड़े थे, जो 1917 में आश्रम की स्थापना के समय पहली बार यहां आए थे, को आश्रमवासी के रूप में जाना जाता था।

तोड़-फोड़ का शिकार हो रही गांधी की विरासत

अगस्त 2021 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने फैसला किया कि साबरमती आश्रम को ‘दुनिया में गांधी का सबसे महत्वपूर्ण स्मारक’ बनाने के लिए 1200 करोड़ रुपये खर्च किये जायेंगे। इसके लिए आश्रम के दलित निवासियों को मुआवजे की पेशकश की गई, उनके सामने एक फ्लैट या 60 लाख रुपये की राशि चुनने का विकल्प था।

साबरमती रिवर फ्रंट और सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट की तरह यह परियोजना भी एचसीपी डिजाइन, प्लानिंग एंड मैनेजमेंट प्राइवेट लिमिटेड द्वारा क्रियान्वित की जा रही है, जिसके अध्यक्ष हैं बिमल पटेल, जो एक वास्तुकार है और जिनके नरेंद्र मोदी के साथ घनिष्ठ संबंध हैं। इस फर्म की वेबसाइट पर अभी तक इस परियोजना के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है, हालांकि मोदी शासन में किए गए कई अन्य कार्यों की सूची यहाँ देखी जा सकती है।

दुनिया भर से लगभग 700000 आगंतुक प्रत्येक वर्ष आश्रम में आते हैं, मोदी सरकार पर्यटकों की आमद बढ़ाकर पैसा कमाने के लिए तैयार है, हालांकि इस आश्रम का भारत के इतिहास में विशेष स्थान है और पर्यटन केंद्र के रूप में इसका पुनर्निर्माण बापू के आदर्शों के खिलाफ होगा।

बापू के पौत्र राजमोहन गांधी, दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एपी शाह और मजदूर किसान शक्ति संगठन की अरुणा रॉय उन सौ से अधिक लोगों में शामिल थे, जिन्होंने महत्वपूर्ण अभिलेखीय सामग्री के नुकसान की चेतावनी देते हुए यह बयान जारी किया था कि सबसे भयावह पहलू सभी गांधीवादी अभिलेखों पर सरकारी नियंत्रण है। चूंकि महात्मा गांधी की हत्या उन तत्वों ने की थी, जिनकी विचारधारा आज भारत की सत्ता में बैठे कुछ लोगों को प्रेरित करती है, इसलिए इस खतरे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इस बयान में चेतावनी दी गई थी कि सरकार की योजना गांधी की ‘दूसरी हत्या’ हो सकती है।

साबरमती आश्रम में वास्तुकार चार्ल्स कोरिया द्वारा डिज़ाइन किया गया एक संग्रहालय भी है, जो 1963 में पूरा हुआ, इसमें महत्वपूर्ण पत्र और तस्वीरें रखी गयी हैं। इस संग्रहालय में गांधी द्वारा लिखा गया वह पत्र भी है, जिसमें हरिजन परिवारों को साबरमती आश्रम में समायोजित करने की मांग की गई थी।

अहमदाबाद में आश्रम रोड (एक सड़क जो आश्रम की भूमि से होकर गुजरती थी) के दोनों किनारों पर आश्रम के 100 एकड़ के परिसर में लगभग 300 परिवार रहते थे। शहरी योजनाकारों ने पहले मांग की थी कि इस सड़क से विभाजित आश्रम के दोनों किनारे फिर से एक हो जाएं। समाचार पत्रिका फ्रंटलाइन ने बताया कि इस पुनर्निर्माण योजना में मुख्य आश्रम मार्ग को फिर से रूट करना शामिल है। जैसे-जैसे अहमदाबाद शहर का विस्तार हुआ, आश्रम से अधिक से अधिक भूमि ली जाती रही और अब जो मुख्य आश्रम क्षेत्र शेष है, वह साबरमती के तट पर केवल पांच एकड़ है।

फरवरी 2023 में जब इस रिपोर्टर ने आश्रम क्षेत्र का दौरा किया, तब 100 एकड़ क्षेत्र में फैले दलितों के घरों को ज्यादातर नष्ट कर दिया गया था और मलबा अभी भी चारों ओर बिखरा हुआ था। आश्रम में रहने वाले लगभग 300 परिवारों में से अभी भी लगभग 40 परिवार वहां रह रहे हैं। इस इलाके में एक छोटा सा रेस्तरां चलाने वाले पार्थ चौहान अपने परिवार के घर पर कब्जा करने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं। वे कहते हैं कि जब लोगों को लगता है कि वे वैसे भी अपना घर खो ही देंगे और यह मुआवज़ा स्वीकार करने के साथ साथ यह जगह छोड़ देना ही व्यावहारिक होगा, तो क्या किया जा सकता है?

उन्होंने आगे कहा कि अगर सारे आश्रमवासी एक होकर खड़े हो जाते और हिलने से मना कर देते, तो हमें अपनी आवाज सुनाने का बेहतर मौका मिल सकता था। जब एक परिवार मुआवजा स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाता है, तो प्रशासन तेजी से यहां आकर घर को नष्ट कर देता है, इसलिए लौटने का विकल्प बंद हो जाता है। पार्थ चौहान बताते हैं कि जिन लोगों ने मुआवज़ा स्वीकार किया था, उन्हें अब एहसास हो रहा है कि एक करोड़ रुपये में भी इस क्षेत्र में ज़मीन खरीदना और घर बनाना मुश्किल होगा। हमें पैसे की ज़रूरत नहीं है; हमें सम्मान की जरूरत है।

जयसुखलाल आश्रम में करघे बनाने वाले बढ़ई के रूप में काम करते थे, वे भी इस बात से दुखी दिखाई देते हैं कि उन्हें मुआवजा स्वीकार करने के लिए मजबूर किया गया। यहां तक कि जब इस रिपोर्टर ने दौरा किया, तो कुछ पूर्व निवासी स्थानीय मंदिर में लौट आए, जहाँ लगभग तीन पीढ़ियों से पूजा अर्चना होती थी। उदय सिंह राठौर बताते हैं कि कैसे उनकी स्कूल यूनिफॉर्म के बटन भी बुने हुए कपड़े से बनते थे। उन्हें और उनके सहपाठियों को भी आश्रम से मुक्त कर दिया गया, उन्होंने कहा कि उन्हें मुआवजा मिला है, जिससे उन्होंने हाल ही में भारी खर्च करके एक घर बनवाया। उनके पास एक और भूखंड भी था, जिस पर उन्होंने धन की कमी के कारण कुछ भी निर्माण नहीं किया था। सरकार ने इस भूखंड के लिए मुआवजा देने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि केवल घरों वाले लोग ही मुआवजे के हकदार थे।

उनके पास व्यक्तिगत स्वामित्व दिखाने के लिए कोई दस्तावेज नहीं था और सरकार उनके पास मौजूद दस्तावेजों को स्वीकार करने से इनकार कर रही थी, जिसमें सामूहिक तौर पर जमीन का हस्तांतरण दिखाया गया था। आश्रमवासियों को पहले नौकरी देने का वादा किया गया था, लेकिन अब इस तरह के मुआवजे की कोई बात नहीं है; आश्रमवासियों को यह भी पता नहीं था कि उनसे अधिग्रहीत की जाने वाली भूमि के लिए सरकार की योजना क्या है।

विक्रम परमार, जिन्होंने मुआवज़ा स्वीकार कर लिया है, लेकिन अक्सर अपने पुराने घर का दौरा करते रहते हैं, कहते हैं कि लोगों ने इस डर से पैसे स्वीकार किए कि अगर उन्होंने इनकार कर दिया तो अंततः दोनों से हाथ धोना पड़ेगा। पार्थ चौहान बताते हैं कि जो लोग जाने के लिए राजी हुए, उन्हें गगनचुंबी, महंगे अपार्टमेंट्स में रखा गया। वे कहते हैं कि जब लिफ्ट खराब हो जाती है, तो इसमें भारी खर्च होता है। हम ऐसे लोग नहीं हैं, जो इतना अधिक पैसा खर्च कर सकें। हमारे लिए जमीन के करीब रहना सबसे अच्छा है।
जयेश पटेल, जो मानव साधना नामक एक गैर सरकारी संगठन चलाते हैं और जिनका विवाह उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल की बेटी अनार से हुआ है, जिन्होंने कभी गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में भी कार्य किया था, ने भी अब आश्रम के सामने अपने लिए जगह बना ली है।

विस्थापितों द्वारा उठाए गए सवालों के जवाब जानने के लिए इस रिपोर्टर द्वारा अहमदाबाद नगर निगम के अधिकारियों से फोन पर संपर्क करने के प्रयास सफल नहीं हुए।

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