अंबेडकर की आर्थिक दूरदृष्टि का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि एमएस स्वामीनाथन कमीशन की सिफारिश सामने आने के दशकों पहले उन्होंने सुझाव दिया था कि कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) लागत से कम से कम 50 फीसदी ज्यादा होना चाहिए. कृषि क्षेत्र के विकास में वैज्ञानिक उपलब्धियों के साथ-साथ लैंड रिफॉर्म की अहमियत पर भी उन्होंने काफी पहले जोर दिया था।
डॉ. अम्बेडकर का नाम सारी दुनिया में आमतौर पर या तो भारतीय संविधान के निर्माण में उनकी अहम भूमिका के नाते याद किया जाता है या फिर भेदभाव वाली जाति व्यवस्था की प्रखर आलोचना करने और सामाजिक असमानता के विरुद्ध आवाज उठाने वाले अग्रणी नेता के रूप में। परन्तु डॉक्टर अंबेडकर ने एक महानतम अर्थशास्त्री के रूप में भी देश और दुनिया के स्तर पर अति महत्वपूर्ण योगदान दिया था, जिसकी चर्चा बहुत कम की जाती है।
ब्रिटिश राज में ‘ट्रिब्यूट’ और ‘ट्रान्सफर’ के नाम पर भारतीय सम्पदा की लूट का रहस्योद्घाटन वर्ष 1915 :
डॉ. अंबेडकर किसी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पीएचडी करने वाले देश के पहले अर्थशास्त्री थे। उन्होंने 1915 में अमेरिका की प्रतिष्ठित कोलंबिया यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में एमए की तथा 1917 में पीएचडी की डिग्री प्राप्त की। इसके कुछ साल बाद उन्होंने ‘लंदन स्कूल ऑफ इकॉनमिक्स’ से भी अर्थशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएशन और डीएससी की उपाधि प्राप्त की।
डॉ. अम्बेडकर ने मात्र डिग्रियां लेकर विद्वता को स्वयं तक ही सीमित नहीं रखा, अपितु देश और दुनिया के सामने अपने अर्थशास्त्र-ज्ञान को अमली जामा पहनाकर अपनी प्रतिभा और अद्वितीय विश्लेषण क्षमता से सतत समृद्ध भी करते रहे और उसे सदैव आम जनता की भलाई का विषय बनाया।
डॉ अंबेडकर ने अर्थशास्त्र में एमए की डिग्री के लिए कोलंबिया यूनिवर्सिटी में ‘एडमिनिस्ट्रेशन एंड फाइनेंस ऑफ द ईस्ट इंडिया कंपनी’ नाम से लिखे गए 42 पेज के रिसर्च पेपर में बताया था कि ईस्ट इंडिया कंपनी की आर्थिक प्रणाली ने आम भारतीय नागरिकों के हितों को किस सीमा तक नुकसान पहुंचाया, जिससे आम भारतीय जनता निरंतर गरीब होने लगी । उन्होंने यह भी बताया है कि अंग्रेजी राज ‘ट्रिब्यूट’ और ‘ट्रान्सफर’ के नाम पर किस तरह भारतीय सम्पदा की लूट करता रहा है।
इस रिसर्च पेपर की तुलना कई विद्वान दादा भाई नौरोजी की किताब ‘पॉवर्टी एंड ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ से भी करते हैं, जो भारतीय संपदा की अंग्रेजी राज में हुई लूट को उजागर करने वाली पहली किताब माना जाती है, परन्तु बाबा साहेब ने ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों भारतीय जनता के शोषण को जिस तरह ठोस आर्थिक दलीलों के जरिये साबित किया है, वह उनकी गहरी देशभक्ति की मिसाल है।
भारत में वित्त आयोग के गठन की आवश्यकता:
डॉक्टर अंबेडकर द्वारा 1917 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पीएचडी हेतु लिखी गई थीसिस, जो 1925 में एक पुस्तक के रूप में ‘प्रॉविन्शियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया’ के नाम से छपी, को पब्लिक फाइनेंस के क्षेत्र में अहम योगदान करने वाली थीसिस माना जाता है। इस किताब में उन्होंने 1833 से 1921 की अवधि में ब्रिटिश इंडिया में केंद्र और राज्य सरकारों के वित्तीय संबंधों की अद्वितीय समीक्षा की है, उनके इस विश्लेषण की दुनिया भर के विद्वानों ने सराहना की थी। पुस्तक में केंद्र और राज्यों के वित्तीय संबंधों के बारे में जो तर्क और विचार पेश किए गये हैं, उसे आजादी के पश्चात देश में केंद्र और राज्यों के आर्थिक संबंधों की रूपरेखा बनाने के काम में बेहद प्रासंगिक माना जाता है। कई विद्वानों का तो मानना है कि भारत में वित्त आयोग के गठन का बीज डॉ अंबेडकर की इसी थीसिस में निहित है ।
खेती और फॉर्म होल्डिंग्स:
1918 में उन्होंने खेती और फॉर्म होल्डिंग्स के मुद्दे पर एक अहम लेख लिखा, जो इंडियन इकनॉमिक सोसाइटी के जर्नल में प्रकाशित हुआ। इस लेख में उन्होंने भारत में कृषि भूमि के छोटे-छोटे खेतों में बंटे होने से जुड़ी समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए बताया था कि कृषि भूमि पर आबादी की निर्भरता घटाने का उपाय औद्योगीकरण ही हो सकता है। उन्होंने अपने इस लेख में छिपी हुई बेरोजगारी की समस्या को उसी समय बता दिया था, जब अर्थशास्त्र की दुनिया में इस अवधारणा पर चर्चा भी शुरू नहीं हुई थी. इतना ही नहीं, इस लेख में उन्होंने दिग्गज अर्थशास्त्री आर्थर लुइस से करीब तीन दशक पहले ही अर्थव्यवस्था के टू-सेक्टर मॉडल की पहचान भी कर ली थी।
किसानों की फसलों के लिए एमएसपी का सुझाव:
अंबेडकर की आर्थिक दूरदृष्टि का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि एमएस स्वामीनाथन कमीशन की सिफारिश सामने आने के दशकों पहले उन्होंने सुझाव दिया था कि कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) लागत से कम से कम 50 फीसदी ज्यादा होना चाहिए. कृषि क्षेत्र के विकास में वैज्ञानिक उपलब्धियों के साथ-साथ लैंड रिफॉर्म की अहमियत पर भी उन्होंने काफी पहले जोर दिया था।
रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया के गठन में योगदान:
डॉ. अंबेडकर की एक चर्चित किताब है ‘द प्रॉब्लम ऑफ द रूपी : इट्स ओरिजिन एंड इट्स सॉल्यूशन’। 1923 में प्रकाशित हुई इस किताब में अंबेडकर ने जिस तर्कपूर्ण ढंग से अर्थशास्त्र के बहुत बड़े विद्वान जॉन मेयनॉर्ड कीन्स के विचारों की आलोचना की है, वह इककोनॉमिक पॉलिसी और मौद्रिक अर्थशास्त्र पर उनकी जबरदस्त पकड़ का प्रमाण है. कीन्स ने करेंसी के लिए गोल्ड एक्सचेंज स्टैंडर्ड की वकालत की थी, जबकि अंबेडकर ने अपनी किताब में गोल्ड स्टैंडर्ड की जबरदस्त पैरवी करते हुए उसे कीमतों की स्थिरता और गरीबों के हित में बताया था।
अपनी इस किताब में अंबेडकर ने न सिर्फ यह समझाया है कि सन 1800 से 1920 के दरम्यान भारतीय करेंसी को किन समस्याओं से जूझना पड़ा, बल्कि इसमें उन्होंने भारत के लिए एक उपयुक्त करेंसी सिस्टम का खाका भी पेश किया था। उन्होंने 1925 में ‘रॉयल कमीशन ऑन इंडियन करेंसी एंड फाइनेंस’ के सामने भी अपने विचारों को पूरी मजबूती के साथ रखा था। उन्होंने भारतीय करेंसी सिस्टम का जो खाका पेश किया, उसका रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना में बड़ा योगदान रहा है।
आर्थिक विकास में महिलाओं, श्रमिकों की भूमिका पर जोर:
देश के आर्थिक विकास में महिलाओं के योगदान की अहमियत को हाइलाइट करने का काम भी अंबेडकर ने उस दौर में किया था, जब इस बारे में कम ही लोग बात करते थे या इस मसले की समझ रखते थे। महिलाओं को आर्थिक वर्कफोर्स का हिस्सा बनाने के लिए मातृत्व अवकाश जैसी जरूरी अवधारणा को भी डॉ अंबेडकर ने ही कानूनी जामा पहनाया था। श्रमिकों को सरकार की तरफ से इंश्योरेंस दिए जाने और लेबर से जुड़े आंकड़ों के संकलन और प्रकाशन का विचार भी मूल रूप से डॉ अंबेडकर ने दिया था. इसके अलावा गरीबी उन्मूलन, शिक्षा-औद्योगीकरण और बुनियादी सुविधाओं की अहमियत जैसे कई मसलों पर देश को डॉक्टर अंबेडकर के अनुभवों और अर्थशास्त्री के तौर पर उनके ज्ञान का लाभ मिला।
आजादी के पहले और बाद में देश के विकास में चहुंमुखी योगदान:
डॉ अंबेडकर ने सिर्फ आर्थिक सिद्धांतों और विश्लेषण के क्षेत्र में ही उल्लेखनीय योगदान नहीं किया, अपितु स्वतंत्रता पूर्व भी जब वे 1942 से 1946 तक गवर्नर जनरल की काउंसिल में लेबर सब्जेक्ट के अंतर्गत आने वाले महत्वपूर्ण श्रम एवं जलसंसाधन, बिजली आदि विभागों के प्रभावी मेम्बर थे, इसी अवधि में जब वे ‘पॉलिसी कमेटी ऑन पब्लिक वर्क्स एंड इलेक्ट्रिक पावर’ के पदेन चेयरमैन हुआ करते थे, तब उन्होंने अपने विचारों से देश के नीति नियंताओं को अवगत करा दिया था कि देश को औद्योगिक विकास के रास्ते पर आगे ले जाने के लिए देश के तमाम इलाकों में पर्याप्त और सस्ती बिजली मुहैया कराना जरूरी है. इसके लिए एक सेंट्रलाइज़्ड सिस्टम होना चाहिए. उन्होंने अपनी सूझबूझ से इसकी आधारशिला रखी. आगे इसी महत्वपूर्ण अवधि में श्रम कानूनों से लेकर देश की अथाह जलसम्पदा को बहुद्देश्यीय रूप देने के काम में रिवर वैली प्रोजेक्ट्स यथा दामोदर वैली प्रोजेक्ट, हीराकुंड प्रोजेक्ट आदि के तत्कालीन सिविल इंजीनियर एएन खोसला के कुशल निर्देशन में भारतीय अभियंताओं की एक टीम बनाकर आज के सेंट्रल वाटर कमीशन और सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं की बुनियाद रखने और देश के तमाम हिस्सों तक बिजली पहुंचाने के लिए मूल ढांचे के विकास की शुरुआत करने जैसी कई मूलभूत सेवाओं की विकास परियोजनाओं का श्रेय इतिहास में डॉ. अम्बेडकर के नाम पर दर्ज है।
स्वतंत्रता के पश्चात अछूतों के नेता के रूप में उनके असीम योगदान पर उनके जन्मदिवस और परिनिर्वाण दिवस पर देश में कुछ जोश-सा दिखता है, परन्तु एक नवस्वतंत्र देश की आर्थिक समृद्धि को मजबूत करने, लोकतंत्र के सशक्तिकरण की प्रक्रिया बनाने, आम नागरिक के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने, किसान हित, नारी सशक्तिकरण, गरीबी और सामाजिक तथा शैक्षणिक असमानता को मिटाने जैसे अभूतपूर्व योगदानों के लिए देश उन्हें सदैव याद करता रहेगा।
-जयविलास