जन-मन
बिरले लोग ही होंगे, जिन्हें औरंगज़ेब के बाद के मुग़ल शासकों के नाम याद होंगे। कभी परीक्षा के लिए याद भी किया होगा तो परीक्षा के फ़ौरन बाद भूल भी गए होंगे। ऐसा होना बिल्कुल स्वाभाविक है, क्योंकि औरंगज़ेब के बाद मुग़ल साम्राज्य बिखर गया था और दिल्ली व उसके आसपास के कुछ इलाक़ों तक ही महदूद रह गया था। बाद में तो हालात ऐसे हो गए कि मुग़लों की फ़ौज लाल क़िले की हिफ़ाज़त तक करने के लायक़ नहीं रह गई थी।
जगह-जगह इलाक़ाई सरदारों और रजवाड़ों का बोलबाला शुरू हो गया। ये वही वक़्त था, जब होलकर, सिंधिया, मराठा आदि ने लगभग पूरे उत्तर भारत को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। कुछ छोटे-बड़े नवाबों को छोड़ दें तो आमतौर पर भारत पर हिन्दू धर्म मानने वाले शासकों का राज क़ायम हो चुका था। यही वजह है कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हुई बग़ावत में जिनके पास फ़ौजें थीं, उनमें से ज़्यादातर हिन्दू शासक ही थे। ये बात अलग है कि उन फ़ौजों में सिपाही से लेकर सिपहसालारों तक मुसलमानों की एक बड़ी तादाद मौजूद थी। शायद यही वजह रही हो कि अंग्रेज़ों की मुख़ालिफ़त करने वाले रजवाड़ों ने विद्रोह का ख़लीफ़ा एक ऐसे बादशाह को बनाया, जो बेचारा अपने क़िले की हिफ़ाज़त करने लायक़ भी नहीं था और मुअावज़ों पर जी रहा था।
औरंगज़ेब 1707 में ज़मींदोज़ हो गया और ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना 1857 के विद्रोह को कुचलने के बाद हुई। यानी लगभग 150 वर्ष ऐसे रहे हैं, जब अमूमन हिंदुस्तान के ज़्यादातर इलाक़ों पर हिन्दू राजे-रजवाड़ों की हुकूमत रही, जिनमें एक से बढ़कर एक बहादुर और लड़ाके शामिल थे। रानी लक्ष्मीबाई, यशवंत राव होलकर, तांत्या टोपे जैसे दर्जनों वीर-बाँकुरे अपनी रियासत और हिंदुस्तानियत के लिए जान न्यौछावर करने को तैयार बैठे थे।
यहाँ एक बात ग़ौर करने वाली है कि इस पूरे समय के दौरान ख़ुद्दारी से भरे इन हिन्दू राजाओं ने किसी मस्जिद को तोड़कर मंदिर नहीं बना दिया, यह कहकर कि यहाँ पहले मंदिर हुआ करता था, जिसे किसी आतताई मुग़ल शासक ने तोड़ कर उसी जगह मस्जिद बना दी। ऐसा कहना कि उन्हें इतिहास की जानकारी नहीं रही होगी या वे कायर रहे होंगे या वे मुग़लों के ग़ुलाम जयचंद क़िस्म के लोग रहे होंगे, उनके प्रति बेईमानी और बदतमीज़ी होगी। इतना ही नहीं कि उन्होंने मस्जिद तोड़कर मंदिर नहीं बनाए, बल्कि भारत की आज़ादी की लड़ाई की कमान मुग़ल साम्राज्य के प्रतीक बुज़र्ग और कमज़ोर शायर-मिज़ाज बहादुर शाह ज़फ़र के हाथों सौंप दी।
इतिहास उतना सरल और सपाट होता नहीं है, जितना उसे बनाने और बताने की कोशिश की जाती है। पर अंधकाल में इतिहास, तर्क, तथ्य नहीं काम करते।
-इश्तियाक अहमद