कांग्रेस ने बम्बई के अधिवेशन में जो प्रस्ताव पास किया था, उसके अनुसार चर्खा संघ के मन्त्री शंकर लाल बैंकर और ग्राम उद्योग संघ के मन्त्री जेसी कुमाराप्पा की सहायता से लखनऊ कांग्रेस की स्वागत समिति ने लखनऊ में एक प्रदर्शनी का आयोजन किया था, जिसका उद्घाटन 28 मार्च 1936 की शाम को गांधी जी ने किया।
लखनऊ की ग्रामोद्योग प्रदर्शनी में 28 मार्च, 1936 को महात्मा गांधी का भाषण
1920 में जब कांग्रेस का नया विधान बनाया गया, तो पहली बार हमारा ध्यान गांवों की ओर गया। उसके बाद से ही हम अपने देहाती भाई-बहनों के विषय में भी कुछ सोचने लगे। नये विधान के बाद अहमदाबाद की कांग्रेस के साथ जो नुमाइश हुई थी, उसमें मैंने इस सम्बन्ध की अपनी कुछ कल्पनाओं को मूर्त रूप देने की चेष्टा की थी। मैं मानता हूं कि देहातों और देहातियों के बारे में मैंने खूब सोचा है। यह तो मैंने हमेशा ही कहा है कि हिन्दुस्तान हमारे चन्द शहरों से नहीं, बल्कि सात लाख गांवों से बना है। आज हम लोग जो यहां इकट्ठे हुए हैं, देहात के नहीं, शहर के रहने वाले हैं और हममें से कइयों का यह खयाल है कि हिन्दुस्तान शहरों में है और देहात वाले शहर वालों की खिदमत के लिए हैं। यही वजह है कि हम देहातों के बारे में, उनके सुख-दुःख और भूख-प्यास के सम्बन्ध में बहुत कम सोचते हैं। हम इस बात का कभी खयाल भी नहीं करते कि उन्हें क्या तो खाने-पीने को मिलता है और क्या पहनने-ओढ़ने को। कांग्रेस में काम करने वाले चन्द लोग ऐसे जरूर हैं, जो देहातियों के सुख-दुःख में हाथ बटाने की कोशिश करते हैं, लेकिन इन थोड़े-से लोगों के नाम पर शहर वाले यह दावा नहीं कर सकते कि वे देहात वालों की सेवा करते हैं।
देहातों की जो हालत है, उसे मैं खूब जानता हूं। मेरा खयाल है कि हिन्दुस्तान को घूमकर जितना मैंने देखा है, उतना कांग्रेस के नेताओं में से किसी ने नहीं देखा है। पंजाब से लेकर कन्याकुमारी तक जितना भ्रमण मैंने किया है, उतना और किसी ने नहीं किया। यह बात मैं किसी अभिमान के वश होकर नहीं कह रहा हूं। मैं तो सिर्फ यह बतलाना चाहता हूं कि देहात के बारे में जो कुछ मैं कहता हूं, वह पूरे तजुर्बे के आधार पर कहता हूं. मैं यह कह सकता हूं कि हिन्दुस्तान के देहातों को शहर वालों ने इतना चूसा है कि उन बेचारों को अब रोटी का एक टुकड़ा भी वक्त पर नहीं मिलता और वे दाने-दाने को तरसते हैं। यह बात अकेला मैं ही नहीं कहता, जिन अंग्रेजों की यहां हुकूमत है, वे यह तो नहीं कह सकते कि हिन्दुस्तान भूखों मर रहा है लेकिन उनमें से किसी ने अब तक यह भी नहीं कहा है कि हिन्दुस्तानियों को भरपेट खाना मिलता है। क्या आप जानते हैं कि देहात वालों को खाने के लिए क्या मिलता है? अगर चावल मिलता है तो दाल नहीं मिलती, रोटी मिलती है तो साग-भाजी नहीं मिलती। कहीं-कहीं तो देहात वाले सिर्फ सत्तू खाकर जीते हैं। यह सत्तू क्या है सो मैं आपको बताऊं? लोग मटर, चना और जौ वगैरा को भूनकर पीस लेते हैं और अगर मिला तो थोड़ी मिर्च और गन्दा-सा नमक मिलाकर उसी को खा लेते हैं। यही उनकी खुराक होती है। इस खुराक पर कैसे तो वे जिन्दा रह सकते हैं, कैसे तगड़े और तन्दुरुस्त बन सकते हैं और कैसे उनकी बुद्धि का विकास हो सकता है ? यह बिल्कुल नामुमकिन बात है। अगर हम लोगों को इस खुराक पर जीना पड़े तो शायद दूसरे ही दिन हम यह शिकायत करेंगे कि इसे खाकर जीना हमारे लिए सम्भव ही नहीं है; तन्दुरुस्त रहना, काम करना और दिमाग से सोचना तो दूर की बात है।
देहात वालों की इन्हीं सब मुश्किलों का खयाल करके पिछले साल बम्बई में कांग्रेस ने अखिल भारतीय ग्राम-उद्योग-संघ नामक एक नई संस्था खोली। इससे पहले अखिल भारत चर्खा-संघ द्वारा देहात में खादी का काम हो रहा था। आज भी हो रहा है, लेकिन अकेले इससे मुझे कभी सन्तोष न था। मैं तो कई वर्षों से यह मानता आ रहा हूं कि खादी के अलावा दूसरे भी ऐसे अनेक धन्धे हैं, जो गांव वालों के जीवन के लिए बहुत आवश्यक और उपयोगी हैं और जिनसे उनकी हालत एक बड़ी हद तक सुधारी जा सकती है। इसके लिए हमें यह देखना है कि देहात वाले कैसे रहते हैं, क्या काम करते हैं और उनके काम को कैसे तरक्की दी जा सकती है। यही वजह है कि कांग्रेस ने गाँवों में काम करने वाले चर्चा-संघ और ग्राम उद्योग संघ को इन प्रदर्शनियों के आयोजन का भार सौंपा है। इस बार की यह प्रदर्शनी अपने ढंग की पहली प्रदर्शनी है। इसकी रचना के पीछे मेरी यह कल्पना रही है कि यह देहात वालों के हित के लिए है। लेकिन उन्हें लखनऊ लाना तो बड़ा कठिन काम है। उनमें से असंख्य स्त्री-पुरुष तो ऐसे हैं, जो लखनऊ का नाम तक नहीं जानते। हमारे लिए यह कोई अचरज की बात नहीं है, बल्कि बड़े रंज और शर्म की बात है। इसीलिए इस नुमाइश के जरिये हम दिखाना यह चाहते हैं कि भूख से बेहाल इस हिन्दुस्तान में भी आज ऐसे-ऐसे हुनर, उद्योग-धन्धे और कला-कौशल मौजूद हैं, जिनका हमें कभी खयाल भी नहीं होता। इस नुमाइश की यही विशेषता है।
अगर आप शहरों में होने वाली दूसरी नुमाइशों से इसकी तुलना करेंगे तो मैं आपसे कहूंगा कि आपको इसमें निराशा होगी। लेकिन यदि आप देहात वालों का खयाल लेकर वैसी नजर से इसे देखेंगे तो आपको इस नुमाइश से कभी नाउम्मीद न होना पड़ेगा। साथ ही मै यह भी कहूँगा कि यह नुमाइश कोई तमाशा नहीं है। और न इसे तमाशा बनाने का मेरा कभी खयाल ही रहा है। यह नुमाइश तो ऐसी चीज है, जिससे आदमी बहुत कुछ सीख सकता है। जिन्होंने इसे बनाया है, उन्होंने तो अपने वश भर इसे तमाशा न बनाने की ही चेष्टा की है। लेकिन अक्सर कांग्रेस के साथ होने वाली नुमाइश से कांग्रेस का खर्च निकालने का खयाल रहता है और अब तक की कांग्रेस प्रदर्शनियों का आयोजन बहुत कुछ इसी खयाल से होता रहा है। लेकिन आज की इस नुमाइश से पैसा पैदा करने का इरादा असल में कभी नहीं रहा। मद्रास-कांग्रेस के साथ जो नुमाइश हुई थी, उसमें हमें सबसे ज्यादा पैसा मिला था। लखनऊ में भी चाहें तो काफी पैसा मिल सकता है।
पर, यह नुमाइश तो एक ऐसी चीज है, जिससे मनुष्य बहुत कुछ सबक सीख सकता है। इसे देखने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि कोई अगर कुछ सीखना चाहे तो जब तक यह नुमाइश खुली है, तब तक इससे फायदा उठाकर वह बहुत कुछ सीख सकता है। हम इसे कुछ सीखने की दृष्टि से देखें, तमाशे की दृष्टि से नहीं। मैं तो यह मानता हूं कि जो एक बार इस नुमाइश को देख लेगा, उसे फौरन ही पता चल जायगा कि हिन्दुस्तान के देहातों में अब भी कितनी ताकत भरी पड़ी है। देहातों की इस ताकत को पहचानकर जो 28 करोड़ देहातियों की सेवा करता है, वही कांग्रेस का सच्चा सेवक है। जो इन करोड़ों की सेवा नहीं करता, वह कांग्रेस का सरदार या नेता हो सकता है, सेवक या बन्दा नहीं बन सकता।
मृतप्राय या अधमरा होने पर भी हिन्दुस्तान में जो ताकत आज मौजूद है, उसका खयाल आपको इस नुमाइश में मैसूर, मद्रास और कश्मीर से आये हुए कारीगरों के कौशल को देखकर होगा। इन कारीगरों द्वारा बड़ी मेहनत से बनाई हुई चीजों को कौड़ियों के मोल खरीदकर हमने उन्हें जिस दशा को पहुँचा दिया है, वह हमारे लिए जरा भी शोभास्पद नहीं है। चर्खा-संघ और ग्राम उद्योग-संघ के जरिये हम इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि इन कारीगरों को अपनी मेहनत के बदले में पूरी मजदूरी मिले, ताकि वे सुख से रह सकें। लेकिन हमारी यह कोशिश बगैर आपकी मदद के कैसे कामयाब हो सकती है? हम तो यह चाहते हैं कि जिन लोगों को पहले सारा दिन काम करने पर दो पैसे दिये जाते थे, उन्हें दो, तीन या चार आने दें और अगर हो सके तो आठ आने, एक रुपया भी दें। लेकिन यह तो तभी हो सकता है, जब आप हमें इस बात की गारण्टी दें कि उनकी बनाई चीजों को आप पूरे दाम देकर खरीदेंगे। किन्तु मैं यह जानता हूं कि आज आप इसके लिए तैयार नहीं हैं।
इस बात को यहीं छोड़कर मै आपका ध्यान नुमाइश के अन्दर रखी हुई चीजों की ओर दिलाना बेहतर समझता हूं। आमतौर पर हमारी नुमाइशें सिनेमा का ठाठ बन जाती हैं। यहां वह सब ठाट नहीं है। और नुमाइश का यह सीधा सादा-सा दरवाजा मेरी इस बात का सबूत है। दरवाजे पर हल, पहिये, पंजे और नरही वगैरा जो लगे हैं, सो सब हमारे ग्राम-जीवन के सूचक हैं। दरवाजे के आस पास दोनों ओर हमारे ग्राम-जीवन का परिचय कराने वाले जो चित्र लगे हैं, वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शान्ति निकेतन से आये हुए नन्दलाल बोस की प्रेरणा से उन्हीं की देख-रेख में बने हैं। नन्दलाल बाबू तो हिन्दुस्तान के बड़े ऊंचे कलाकार हैं। नुमाइश के अन्दर जिस चित्र-शाला का निर्माण उन्होंने किया है, वह तो अवश्य ही देखने योग्य है। इससे हमें हिन्दुस्तान की पुरानी कला के उत्कर्ष का बोध होता है और इस समय जो ज्ञात और अज्ञात कलाकार देश में मौजूद हैं, उनके सामर्थ्य का परिचय कराने वाली कृतियां देखने को मिलती हैं।
देहात वालों के बारे में मैं अपने आपको बहुत विज्ञ समझता हूं। लेकिन इस नुमाइश में मुझे भी सबक सिखाने वाली कई चीजें मैं देख रहा हूँ। अगर मेरी तन्दुरुस्ती ठीक रही तो मैं इसे कई बार आकर देखने वाला हूं। मैं यह मानता हूं कि मैं यहां से बहुत कुछ सीखकर जा सकता हूं। जो सीखना चाहते हैं, वे तो प्रवेश द्वार की रचना और आस-पास बने हुए इन चित्रों से भी बहुत कुछ बिना पैसा खर्च किये भी सीख सकते हैं।
इनके अलावा भी नुमाइश के अन्दर कई चीजें ऐसी हैं, जिनका गौरव के साथ उल्लेख किया जा सकता है, लेकिन मैंने तो एक देहाती के ढंग से बहुत थोड़े में कुछ बातें आप लोगों को बतला दी हैं। अगर मैं कलाकार होता तो इन्हीं सब वस्तुओं का ऐसा वर्णन आपको सुनाता कि आप सुनकर मुग्ध हो जाते। लेकिन मेरे जैसे देहाती के लिए यह संभव नहीं है। मैं देहाती हूं या नहीं, यह तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन मेरा दिल देहाती है, इसमें मुझे जरा भी शक नहीं है। इसलिए मैंने इस नुमाइश का जिक्र एक देहाती की हैसियत से आपके सामने किया है। हां, बैंड-बाजों और खेल तमाशों का अभाव देखकर आप निराश न हों। ये नुमाइशें इन चीजों के लिए हैं ही नहीं। यहां तो आपको कुछ ऐसे बेहाल आदमी देखने को मिलेंगे, जो दिन भर मेहनत करके मुश्किल से दो-चार आने पैसे पाते हैं।
इस नुमाइश में नुमाइशी चीजों के अलावा ऐसे कारीगर भी आये हैं, जो अपना हुनर आपको दिखाने को तैयार हैं। आप उनके पास बैठकर उनसे बहुत-सी बातें सीख सकते हैं। ऐसा सुभीता और ऐसा अवसर छोड़ने योग्य नहीं है। इसीलिए मैं कहता हूं कि आप जो चन्द लोग यहां आ गये हैं, वे इस नुमाइश के लिए मेरे प्रचारक बन जांय और दूर-दूर तक इसका सन्देश पहुंचायें। वरना आपके सिर यह इल्जाम रहेगा कि देहात वालों के लाभ के लिए जो नुमाइश की गई थी, उसकी आपने उपेक्षा की। आप याद रखिए कि यह नुमाइश देहात वालों के लिए नहीं, आपके लिए है। देहात वाले इसे क्या देखेंगे? वे तो इसे देखकर यही कहेंगे कि ऊंह, इसमें क्या रखा है। इससे अच्छी-अच्छी चीजें हम अपने गाँव में दिखा सकते हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि यह नुमाइश तो शहर वालों के लिए है। और यदि मैं इसके लिए आपसे पैसा न लूं तो किससे लूं? क्या देहात वालों से लूं? उनके लिए जैसी नुमाइश मैं चाहता हूं, मौका मिलने पर वैसी नुमाइश भी करके दिखाऊंगा। और यदि मैं मर गया तो मेरे पीछे रहने वाले उसे करके दिखायेंगे।
इस नुमाइश के लिए स्वागत समिति ने एसे निवास स्थान का प्रबन्ध करके 35 हजार रुपये के खर्च का बजट बनाया है। मैं जानता हूं कि इस कार्य में उसे कई परेशानियों और मुसीबतों का सामना करना पड़ा है। स्वागत समिति ने जो 35000 रु० खर्च किया है, उसे वापस दे देना आपका फर्ज है, इसीलिए तो मैं आपको अपना प्रचारक नियुक्त कर रहा हूं। इस प्रचार कार्य का कोई कमीशन मैं आपको नहीं दूंगा। लेकिन ईश्वर जरूर देने वाला है। अगर आपको उस पर एतबार है, तो वह आपका कमीशन जरूर आपको भेज देगा।
मैं भी आपके इस शहर में थोड़े दिन पड़ा रहने वाला हूं। मैं रोज यह पता लगाता रहूंगा कि किस तरह आप मेरी एजेन्सी का काम करते हैं। आपके काम की परीक्षा के लिए मैं नुमाइश के खजांची से रोजाना यह पूछता रहूँगा कि आपने नुमाइश के लिए कितने आदमी और कितने पैसे भेजे। मैं उम्मीद करता हूं और अदब के साथ कहता हूं कि नुमाइश के लिए रखे गये आठ आने या चार आने के टिकट के लिए कोई शिकायत आपको नहीं होनी चाहिए। अगर आप लोगों की पूरी सहायता रही तो हमारा यह इरादा है कि हम यहां आने वाले देहाती किसानों और मजदूरों को यह नुमाइश मुफ्त में देखने का मौका देंगे, लेकिन यह तभी हो सकता है, जब आप लोग लाखों की संख्या में आयें और मेरा हौसला बढायें. वरना यह सुनकर कि आज नुमाइश एक हजार लोग आये, कल दो हजार आये और परसों कोई भी नहीं आया, मुझे सदमा पहुंचेगा। लेकिन अगर मेरे जैसे देहाती के नसीब में यह भी लिखा है तो उसे सह लूंगा। अन्त में, मैं यह कहूंगा कि इस प्रदर्शनी में जो त्रुटियाँ रह गई हैं, मुझे उम्मीद है कि आप उन कमियों को दरगुजर करके इसमें जो कुछ सीखने लायक है, उसे जरूर सीखेंगे.