अहमदाबाद मिल आंदोलन

यह गांधी की प्रभावशाली जीत थी

सत्तर के दशक की एक मशहूर मूवी थी। एक अमीर मिल मालिक का बेटा अपने दोस्त को, मजदूरों के बीच लीडर बनाकर बैठा देता है। दोस्त मजदूरों की बस्ती में रहता है। जब मजदूरों का दर्द समझता है, तो अपने ही दोस्त, यानी मिल मालिकों के खिलाफ हो जाता है। राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन अभिनीत इस मूवी को आपने जरूर देखा होगा। कर्तव्य और मित्रता के बीच राजेश खन्ना की उस कशमकश को भी। गांधी को भी इसी कशमकश से गुजरना था। दक्षिण अप्रâीका से लौटे गांधी ने अहमदाबाद को अपना बेस बनाया। शहर में 51 कपड़ा मिलें थीं और इनके मालिक गांधी के मुरीद थे। गांधी जी का आश्रम बनाने और चलाने के लिए सबने दिल खोलकर दान दिया था।

गांधी राजनीति के साथ सामाजिक परिवर्तन भी करने चले थे। एक अछूत परिवार लाकर आश्रम में रख लिया। दानदाता भौंचक्के रह गए। दान घट गया, तो आश्रम चलाना कठिन होता गया। ऐसे में एक दिन आश्रम के गेट से एक मोटर घुसी। अंबालाल साराभाई, शहर की कई फैक्ट्रियों के मालिक, सधे कदमों से गांधी के कक्ष में आये। कुशल क्षेम पूछते हुए गांधी के करीब पहुंचे और 13 हजार रुपये नगद उनके हाथों में रख गए। यह 1916 था। तब सोने का भाव 20 रुपये तोले से भी कम हुआ करता था।

दो साल के भीतर अहमदाबाद में तबाही आयी। यह प्लेग था, लोग शहर छोड़कर भागने लगे। अब मजदूर भी भाग जायेंगे तो फैक्ट्री कैसे चलेगी? तय हुआ कि रुककर काम करने वालों को बोनस मिलेगा। मजदूरों को दोगुना पैसा मिलने लगा, मिल चलती रही। कुछ माह में प्लेग का कहर कम हुआ, लोग अहमदाबाद वापस आने लगे। प्लेग-बोनस भी हटा लिया गया। आर्थिक हालात खराब थे। पहला विश्वयुद्ध बीता ही था, जरूरी सामानों की कमी थी, मुद्रास्फीति ने गरीबों के हालात बिगाड़ रखे थे। मांग हुई कि बोनस जारी रखा जाए। मिल मालिक तैयार न थे। नतीजा यह हुआ कि मांग करने वालों को नौकरी से निकाला जाने लगा। नये मजदूर भर्ती होने लगे। अब मजदूरों की बात गांधी जी तक गयी। सबको पता था कि गांधी जी की इज्जत मिल मालिक भी करते हैं। इस वक्त कोई फिल्मी हीरो होता, तो अपने वित्तपोषक मित्रों के हितों के खिलाफ जाने को लेकर बेहद कशमकश में पड़ जाता। पर यह हीरो असली था। गांधी ने मामले में दखल देना तय किया। मीटिंग हुई, मिल मालिकों ने 20³ बोनस देना तय किया, मजदूर पक्ष 50³ से कम पर राजी नही था। गांधी जी ने केस स्टडी की। बाजार, मूल्य, मिलों की आर्थिकी, इंफ्लेशन देखकर तय किया कि 35³ बोनस देना होगा, नहीं तो मजदूर हड़ताल करेंगे। मालिकों ने प्रस्ताव खारिज कर दिया। हड़ताल शुरू हुई। कुछ दिन उत्साह रहा, मगर मजदूर धीरे धीरे अधीर होने लगे। उनकी जगह दूसरों की भर्ती का डर भी था। ऐसे में बहुतेरे मजदूर, मालिकों से जो मिल रहा था, उसी पर ड्यूटी ज्वाइन करने लगे। गांधी जिनके लिए लड़ने गए थे, वही साथ छोड़ रहे थे।

देखा जाए, तो किसी आम नेता के लिए यह खिसकने का माकूल वक्त था। मिल मालिक उन्हें दुआएं ही देते। पर इस आदमी का नाम गांधी था। बैठ गया अनशन पर – ‘जब तक सारे मजदूर काम छोड़कर हड़ताल पर नही लौटते, तब तक कुछ नहीं खाऊंगा।’ मजा देखिये, यह अनशन मिल मालिकों के खिलाफ नहीं था। यह मजदूरों के खिलाफ था। उनकी अवसरवादिता, कमजोरी और स्वार्थ के खिलाफ था। अपने ही समर्थकों के खिलाफ गांधी का अनशन तीन दिन चला। शर्मिंदा मजदूर हड़ताल पर लौट आये। मिलों की चिमनी से निकलता धुआं रुक गया। यह अनशन गांधी के दृढ़ निश्चय का परिचायक था। मिल मालिक भी समझ गए कि यह आदमी डिगेगा नहीं। एक एक कर ३५³ बोनस पर सहमति देते गए। यह गांधी की प्रभावशाली जीत थी। साल भर पहले यही आदमी चंपारण में सरकार से भिड़ गया था। वहां किसानों को उनका हक दिलवाया और यहां आकर पूंजीपतियों से भिड़ा… निस्संकोच, निर्भीक। उन्हीं उद्योगपतियों से, जिनके चंदे से उसका आश्रम चलता था।

अहमदाबाद के मिल मालिक गांधी से डर नहीं गये थे, बल्कि उनकी नजर में गांधी का दर्जा और ऊंचा हो गया था। आने वाले दौर में उन्होंने खुले हाथ गांधी की मदद की। नैतिक ईमानदारी आपकी कीमत बढ़ाती है। समर्थन बढ़ाती है। कद बढ़ाती है। गुजरात में आज भी मिलें है, उद्योग हैं, उद्योगपति हैं। वे गांधी के दौर से ज्यादा धनी, ज्यादा बड़े और ज्यादा ताकतवर हैं। इतने ताकतवर कि सरकारें बनवाते हैं, अपनी दुकान की तरह चलाते हैं और जब चाहे दुकानदार बदल भी देते हैं।

अब उनकी जेब में पल रहे छोटे कद के लीडर्स में नैतिक ईमानदारी नहीं है। इतनी हिम्मत नहीं है कि पूंजीपतियों का नुकसान करके भी उनसे समर्थन पा सवेंâ। इसलिए कि पूंजीपतियों को इन नेताओं की वकत पता है। उन्हें पता है कि उनके दिये पैसे, अछूतों के किसी आश्रम में या राष्ट्रीय आंदोलन में नहीं, हर जिले, हर गली में बन रहे सात सितारा पार्टी कार्यालयों में लगने हैं। दल बदलने वाले विधायको-सांसदों की खरीद फरोख्त में लगने हैं। चुनावों के औंजार और निजी अय्याशियों में लगने हैं। क्या कहियेगा ऐसी लीडरशिप को?

आप सोचिये। तब तक मैं बताता चलूं कि अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना की उस मूवी का नाम ‘नमक हराम’ था।

-मनीष सिंह

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