मोहन से महात्मा का दिलचस्प सफर

आज भी विश्व के अनेक देश भारत को ‘बापू’ के परिचय से ही पहचानते हैं। भारत से गया व्यक्ति अपना परिचय देते हुए जब यह बताता है कि वह उस देश से आ रहा है, जिस देश में गांधी जी ने जन्म लिया था तो उनमें से बहुतेरे उस व्यक्ति को स्पर्श करके ही अपनी आस मिटा लेते हैं और यह अविश्वसनीय घटना आज भी घटती है। बापू के व्यक्तित्व की यह आभा है। पर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बापू को अपने ही देश में बिसराने की कवायद चल रही है। कहीं कहीं तो उन्हें बच्चों के पाठ्यक्रम से ही हटा दिया गया है या हटाने के प्रयास चल रहे हैं। पर यह उन लोगों के लिए आसान नहीं होगा क्योंकि आज भी गांधी के विचारों को अपने जीवन में स्थान देने वालों की एक लंबी फेहरिस्त देखने को मिलती है। साहित्य अकादमी के अध्यक्ष रह चुके स्वर्गीय सुनील गंगोपाध्याय से एक बार किसी सज्जन ने कहा कि मान लीजिए कवि गुरु रविन्द्र नाथ ठाकुर की सारी रचनाएं नष्ट हो जायें तो क्या होगा। इसके उत्तर में उन्होंने जो कहा, वह विचारणीय है। उन्होंने कहा कि हम सब मिलकर पुनः लिख लेंगे, क्योंकि हम बांग्लाभाषियों में ज्यादातर लोंगो को उनकी रचनाएं कंठस्थ हैं। वैसे ही बापू के विचार या उनकी जीवन पद्धतियों को गांधीवादी विचारधारा के लोग आत्मसात कर चुके हैं और वे बापू के विचारों को जन जन तक पहुंचाने में भी लगे हुए हैं। ऐसे ही विशिष्ट जनों में से एक हैं काशी में रहने वाले मिथिलेश दुबे।

मिथिलेश दुबे भारत के जाने माने कठपुतली नाट्य विशेषज्ञ हैं और ‘मोहन से महात्मा’ कठपुतली नाट्य उनकी एक मानीखेज प्रस्तुति है। पिछले पन्द्रह सालों से लगातार इसकी प्रस्तुति वे देश के कोने कोने में जाकर करते रहे हैं। उन्होंने देश के लगभग हर प्रतिष्ठित मंच पर इसकी प्रस्तुति की है। उनसे जब हमने ‘मोहन से महात्मा’ के सफर के बारे में हमने जानने की उत्सुकता जताई तो उन्होंने हमें इससे अवगत कराया।

२ अक्टूबर २००६ यानी गांधी जयंती के दिन ‘मोहन से महात्मा’ की पहली प्रस्तुति जयपुर के प्राकृतिक चिकित्सालय प्रांगण में, विनोबा ज्ञान मंदिर और राजस्थान समग्र सेवा संघ के तत्वावधान में भी की गयी थी। इसकी रचना प्रक्रिया इससे बहुत पहले ही शुरू हो चुकी थी। नारायण भाई देसाई (पुत्र महादेव भाई देसाई) की ‘गांधीकथा’ का आयोजन जयपुर में हुआ था, जहां मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, गांधीवादी विचारधारा के विशिष्ट अतिथिगण और सर्वोदय के कार्यकर्ता भारी मात्रा में उपस्थित थे। कार्यक्रम के समापन के बाद जब नारायण भाई से चिंता व्यक्त की गयी कि बापू की विचारधारा का प्रसार कैसे हो? या ऐसे कार्यक्रमों को आगे कैसे बढ़ाएं? तो उन्होंने बहुत ही सहजता से कहा कि मैं जो कर सकता हूँ, कर रहा हूँ। अब आपको सोचना है कि क्या और कैसे करना है।

जल्द ही गांधीवादियों और सर्वोदय के कार्यकर्ताओं ने एक बैठक का आयोजन किया, जहां यह तय हुआ कि बापू के विचारों को बच्चों के बीच ले जाया जाए तो ज्यादा प्रभावी रहेगा। अब माध्यम की तलाश की जाने लगी। किसी ने कहा, नाटक करते हैं तो किसी ने कुछ और उपाय सुझाए। अन्ततः सभी कठपुतली कला को बच्चों के लिए उपयुक्त माध्यम के रूप में पाया। इसी के माध्यम से बच्चों के बीच गांधी के विचारों को ले जाने की बात तय की गई। साथ ही इस काम की जिम्मेदारी सर्वोदय के कार्यकर्ता द्वय यानी बिंदु सिंह और मिथिलेश दुबे को सौंपी गई।

शोधपरक कार्य आरम्भ हुआ। गांधी जी से संबंधित पुस्तकों का संग्रह और उनका मूल्यांकन कर एक रूपरेखा का निर्माण किया जाने लगा। साथ ही गांधी जी के संसर्ग में रहे महानुभावों से राय मशविरा भी लिया जाने लगा, जिनमें प्रमुख रूप से सिद्धराज ढड्ढा, ठाकुर दास बंग, पंचम भाई, नारायण भाई देसाई आदि अनेक लोगों से संपर्क साधा गया। इसके बाद भारतवर्ष के उन स्थानों का भी भ्रमण किया गया, जहां-जहां गांधी जी ने अपने सेवाकार्य से उसे विशेष दर्जा दिलाया था। पोरबंदर, साबरमती आश्रम, आगा खां पैलेस और सेवाग्राम जैसी विभिन्न जगहों पर जा- जाकर जानकारियों को इकट्ठा किया गया।

सारी जानकारियां इकट्ठा करने के बाद अब बारी थी नाट्यालेख को तैयार करने की। सूचनाओं को दृश्य रूप देना एक अलग शिल्प है। उससे पहले उसे कथा रूप में ढालना ज्यादा जरूरी था। घटनाओं को एक सूत्र में पिरोना किसी चुनौती से कम न था। साथ ही गाँधीजी जैसे व्यक्तित्व के जीवन से जुड़ी किन घटनाओं को रखा जाय और किन्हें छोड़ा जाय, यह तय करना बहुत ही दुरूह कार्य रहा। इसमें मदद मिली गांधी विचार धारा के वरिष्ठ लोगों से, जिनकी सलाह व मार्गदर्शन से गाँधीजी के जीवन से जुड़ी प्रमुख घटनाओं को चुना गया और उन्हें नाटक में शामिल किया गया। इसमें बचपन से लेकर उनके शहीद होने तक की घटनाओं को समायोजित किया गया।

नाट्य लेखन तैयार होने के बाद बारी थी कठपुतली कला में प्रशिक्षित होने की। कठपुतली निर्माण करने की विधि जानने के लिए तिलोनिया संस्था और पौढ़ शिक्षा समिति के प्रयास से दल के साथियों को प्रशिक्षण दिया गया। नाटक के चरित्रों के अनुरूप कठपुतली निर्माण कार्य आरम्भ किया गया। चरित्र के अनुसार वेशभूषा तैयार की गयी। सेट, प्रॉप्स का निर्माण किया गया, जिसमें गांधी जी का चरखा, मेज, कुर्सी, पलंग, बकरी आदि तो हैं ही, साथ ही कारागार, आश्रम, कुटिया, स्कूल बोर्ड जैसी अनेक सामग्रियों का निर्माण किया गया।

सामग्रियों की निर्माण प्रक्रिया को पूर्ण करने के बाद अब बारी थी पूर्वाभ्यास (रिहर्सल) की। असली परेशानी अब समझ आने लगी, जहां केवल धैर्य ही एक मात्र सम्बल रहा। कठपुतली नाट्य प्रस्तुति की शैलियां अलग अलग होती हैं, जिनमें डोरी से चलने वाली कठपुतली, छड़ से संचालित होने वाली कठपुतली, छाया द्वारा दिखाया जाने वाला खेल और हाथों में पुतुलों को बांधकर दिखाया जाने वाला खेल है। ‘मोहन से महात्मा’ में हाथ द्वारा संचालित विधि को अपनाया गया है। यह विधि थोड़ी कठिन  इसलिए भी हो जाती है कि संचालक को अपने दोनों हाथों को सर के ऊपर कर कठपुतली को थामना होता है। केवल थामना ही नहीं, बल्कि उनके संवादों के अनुरूप संचालन भी करना होता है। अतः कुछ ही पलों में दोनों हाथ भर जाते हैं, हाथों को ज्यादा देर ऊपर रखना मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा सभी साथी नए थे, दिक्कत ज्यादा थी, पर हिम्मत नहीं हारे, उत्साह बना रहा।

‘मोहन से महात्मा’ पुतुल नाट्य में एक सौ पचास कठपुतलियों का प्रयोग होता है। अतः शुरू से लेकर आखीर तक के दृश्यों के अनुरूप उन्हें ऐसे सजाकर रखना होता है कि दृश्य दर दृश्य करने में रुकावट या उलझन न हो। चूंकि पूरा नाटक रेकॉर्डेड चलता है, इसलिए सावधानी और सतर्कता की जरूरत अधिक रहती है। किसी भी कारण से कोई दृश्य या एक पल की भी चूक हुई, तो नाटक संभालना टेढ़ी खीर हो जाता है।

मिथिलेश बताते हैं कि इस विशेष और गंभीर कार्य की तैयारी की भनक मीडिया को भी लग गई थी। अतः वे भी इसकी सूचना पाने और अपनी पत्रिका में पहले पहल स्थान देने को लालायित थे। सभी अपने स्तर पर कोशिश करते रहे, पर सर्वोदय के सदस्य चाहते थे कि तैयारी पूरी होने के बाद ही इसका खुलासा किया जाए। अथक प्रयास के बाद जब ‘मोहन से महात्मा’ तैयार हो गई, तब दिन तय हुआ और पहली प्रस्तुति गांधी जयंती के दिन की गई। इसकी प्रस्तुति होते ही लोगों ने इसे हाथों हाथ लिया, क्योंकि गांधी जी के जीवन या यूं कहें किसी विशेष व्यक्तित्व के जीवन की घटनाओं को कठपुतली के माध्यम से दिखाए जाने की उक्त घटना पहली बार घट रही थी। बच्चों को तो यह भाया ही साथ ही बुजुर्गों का भी यह कहना रहा है कि गांधी जी का जीवन जितना सहज और सरल था, यह प्रस्तुति भी उतनी ही सहज रूप से आंखों के सामने बहती है। किसी भी प्रकार के आडंबर से मिथिलेश दुबे इस प्रस्तुति को बचाकर प्रस्तुत करते हैं। इसकी विशेषता यह है कि इसे बड़े से बड़े हॉल में अत्याधुनिक लाइट और तकनीकी के सहारे भी खेला जा सकता है, वहीं सुदूर गाँव के मैदान में जहां केवल सूरज का प्रकाश या रात को मशाल की व्यवस्था हो, वहां भी दिखाया जा सकता है। इस प्रस्तुति की यही खूबी और विशेषता है। इसी वजह से यह प्रस्तुति पिछले डेढ़ दशक से लगातार लोगों के बीच लोकप्रिय रही है। अब तक लगभग आधा भारतवर्ष (लगभग ३५० जिलों के लोग) इस नाटक को देख चुके हैं। मिथिलेश इस नाट्य प्रदर्शन को देश के हर जिले, हर गांव तक ले जाने के लिए प्रयासरत हैं। यह जैसे उनके जीवन का ध्येय बन गया है। उनका कहना है कि पिछले दो सालों में लॉकडाउन आदि के कारण कारवाँ की गति थोड़ी धीमी जरूर हुई है, पर रुकी नहीं है और न ही इसे रोकने का उनका मन है।

पिछले दिनों के हालात ने कला से जुड़े हर कलाकार को औंधे मुंह ला खड़ा किया है। कठपुतली कला का हाल तो और भी बेहाल है। ऐसे में ‘मोहन से महात्मा’ कठपुतली नाट्य का सफर पिछले पंद्रह सालों से सतत जारी है। यह एक मिसाल है, साथ ही शुभ सूचक भी है कि इस कला में अब भी बहुत संभावना है। वर्तमान में जैसा लग रहा है कि बच्चों से उनका बचपन खोता जा रहा है, उन्हें हम कठपुतलियों के जगत में पुनः ले जाकर उन्हें उनका बचपन सौंप सकते हैं। क्यों न ‘मोहन से महात्मा’ ही उसका पाथेय बने।      

-जयदेव दास

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