सत्य निरपेक्ष होता है! सत्य आत्मनिर्भर होता है!! सत्य ही ईश्वर होता है!!

व्यक्ति लोगों पर, समाज पर, देश और व्यवस्था पर निर्भर होता है। जैसे दूध के लिए गाय या भैंस का होना आवश्यक है और गाय-भैंस को पालने के लिए चारे की और चारे के लिए बीज, खाद, पानी आदि की जरूरत होती है। कपड़े के लिए मिल, मजदूर, दुकानदार, दर्जी, सुई, धागा और बटन आदि की आवश्यकता होती है। दवा के लिए वैज्ञानिक, डॉक्टर, अस्पताल, दुकान और दवा वंâपनी की आवश्यकता होती है। शिक्षा के लिए शिक्षक, विद्यालय, किताब-कॉपी और कलम की आवश्यकता होती है। ठीक वैसे ही व्यक्ति को उसके विकास के लिए समाज की जरूरत होती है। निष्कर्ष यह कि समाज आत्मनिर्भर हो सकता है, देश आत्मनिर्भर हो सकता है, व्यवस्था आत्मनिर्भर हो सकती है, परंतु व्यक्ति आत्मनिर्भर नहीं हो सकता है। व्यक्ति जिस समाज में रहता है, जिस देश में रहता है, जिस व्यवस्था में रहता है, वह वृहद समूह, व्यवस्था (सिस्टम) तो आत्मनिर्भर हो सकता है, पर व्यक्ति, परिवार, एक गांव या एक छोटा समूह आत्मनिर्भर नहीं हो सकता है। समाज और व्यवस्थापरक सोच में व्यक्ति बड़ा नहीं है, समाज बड़ा है। लोक सबसे आगे और व्यक्ति सबसे पीछे, इस परिकल्पना को चरितार्थ करना ही हमारा आदर्श लक्ष्य होना चाहिए।
किसी बड़े से बड़े शहर में किसी व्यक्ति को अकेला छोड़ दें, भले ही उसे वहां का शासक-प्रशासक बना दें तो क्या वह खुश रह सकेगा? शहर का सन्नाटा उसे भयभीत कर देगा। किसी प्रशासक को किसी शहर के लोग सहयोग न करें, तो क्या वह वहां टिक सकेगा? वह उल्टे पैर भाग जायेगा। प्रधानमंत्री बनने के लिए भी लोगों के वोट की जरूरत होती है। ब्रह्मांड का हर हिस्सा एक दूसरे पर निर्भर होता है, कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं होता, जिसे अपने सर्वाइवल के लिए दूसरे हिस्से की जरूरत न हो। बरगद की शाखाएं, पत्ते, जड़, तना आदि मिलजुल कर पेड़ का अस्तित्व बनाये रखने का प्रयास करते हैं।
डार्विन ने कहा, जीने के लिए संघर्ष करो। हक्सले ने कहा, जियो और जीने दो। गांधी ने कहा, तुम दूसरों के लिए जियो, मैं तुम्हारे लिए जिऊंगा। सर्वोत्कृष्ट यही है कि हम एक दूसरे के जीने में सहयोग करें। व्यक्ति का व्यक्तिगत व पारिवारिक जीवन महत्त्वपूर्ण है, लेकिन समाज भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है।
सुखी रहने के लिए पड़ोसी का अच्छा होना, अपने से ज्यादा अच्छा होना अधिक जरूरी है। खुराफती पड़ोसियों के बीच रहना बहुत कष्टकर है। इसी तरह उपद्रवग्रस्त समाज-व्यवस्था भी अत्यन्त घातक है। उपद्रवग्रस्त समाज में कौन रहना पसंद करेगा? कहीं बसने से पूर्व लोग वहां के माहौल की जानकारी प्राप्त करने के बाद ही नयी जगह बसते हैं। लोग उपद्रवग्रस्त जगह से हटकर भले लोगों के बीच रहना पसंद करते हैं। उदाहरणस्वरूप जम्मू-कश्मीर से नागरिकों का पलायन, युद्धकाल में लोगों का पलायन, देश-विभाजन के समय हिन्दू-मुसलमानों की अदला-बदली।
अपनी जाति के डावूâ को दूसरी जाति के संत से बेहतर समझना समाज व देश के लिए खतरनाक है। सभी को अपने समाज के डावूâ को डावूâ और दूसरे समाज के संत को संत समझना होगा। अलग-अलग जातियों का सत्य अलग-अलग नहीं हो सकता है। सत्य निरपेक्ष है। सत्य को इसीलिए हमारे सिस्टम का आधार होना चाहिए। सत्य आत्मनिर्भर है, सत्य चाहे जिस जाति, धर्म, वर्ग का हो, वह सबको दिखना चाहिए और इसी प्रकार असत्य चाहे जिस जाति, धर्म का हो, वह भी सबको दिखना चाहिए। हमारा दृष्टिकोण मात्र यह होना चाहिए कि सत्य, सत्य है और असत्य, असत्य है।
गांधीजी ने पहले कहा कि ईश्वर ही सत्य है, लेकिन विभिन्न धर्मों के ईश्वर तो भिन्न-भिन्न हैं, इस तरह तो सत्य भिन्न-भिन्न हो जायेगा। यह भी प्रश्न खड़ा हुआ कि बहुत से लोग नास्तिक हैं, फिर उनके सत्य का क्या होगा? इसलिए गांधीजी ने कहा कि ‘सत्य ही ईश्वर है’। महापुरुषों की जातिगत समीक्षा अत्यंत दु:खद है। सभी महापुरुष सम्माननीय एवं श्रद्धेय हैं। जैसे बाग में विभिन्न प्रकार के पौधे व वृक्ष मिलकर बाग की संरचना करते हैं, सबकी अपनी-अपनी उपयोगिता है, जिस प्रकार सभी वृक्ष ऑक्सीजन, फल, लकड़ी आदि देते हैं, इसी प्रकार समाज के सभी महापुरुषों का अपना-अपना महत्त्व है। महापुरुषों की तुलना करना छलावा है। महापुरुष देश व समाज की बगिया के वृक्ष और पुष्प हैं।
जो व्यक्ति जिस महापुरुष के प्रति आदर रखता है, उसी महापुरुष के सकारात्मक गुणों को ग्रहण करके श्रेष्ठ मानव की भूमिका समाज में अदा कर सकता है। मैंने अपने गांव में पटेल बिरादरी के लोगों से पूछा कि क्या आप लोगों की श्रद्धा लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल में है? सभी ने उत्साहपूर्वक स्वीकार किया कि उनकी श्रद्धा पटेल जी में है। मैंने पूछा अगर सरदार पटेल में श्रद्धा है तो उन्होंने कब कहा कि आप लोग नशे का सेवन करें? यदि आप इन चीजों का उपयोग करते हैं तो इसका आशय यह क्यों न लगाया जाये कि आपको सरदार पटेल में कोई श्रद्धा नहीं है? इसी प्रकार अपने गांव की दलित बस्ती में यही प्रश्न किया कि क्या आप लोगों की बाबा साहेब अम्बेडकर में श्रद्धा है? सभी ने स्वीकार किया कि उनकी श्रद्धा बाबा साहेब में प्रबल रूप से है। मैंने प्रश्न किया कि शराब आदि नकारात्मक चीजों का प्रयोग करने के लिए बाबा साहेब ने कब कहा और कहां कहा? इसका आशय आप लोगों की श्रद्धा असली नहीं है। लोग इस बात से चकित हुए। उन्हें लगा कि वाकई कहीं न कहीं, कुछ न कुछ गलत हो रहा है। या तो हमारी श्रद्धा अशुद्ध है या फिर हमारी आदतें गलत हैं।
वास्तव में, इन बातों का असर पड़ने लगा है। धीरे-धीरे ही सही, हमारे गांव का मौसम बदलने लगा है।

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